हमें भी पढ़ना है...!
हमें भी पढ़ना है...!
वह अपना बस्ता लेकर उचक- उचक कर उन कच्चे रास्तों के आगे बनी अपनी पाठशाला के दरवाज़े पर टकटकी लगाए देख रही थी।
वह मुस्कुराकर बुदबुदाई – कितना अच्छा लगता था, स्कूल जाना ! पता नहीं कब खुलेगा। ?
अरी बिटिया, कहाँ चली गई....? माँ की आवाज़ से वह बस्ता एक तरफ़ रख कर, रसोई में जाकर, बेमन से, माँ की मदद करने लगी।
पिता और भाई खाना खा रहे थे।
पता नहीं, इन बच्चों का स्कूल कब खुलेगा ? यह साल तो बर्बाद ही हो गया।
माँ, गहरी श्वास भर कर रोटी बनाने लगी।
सुना है, शहर में बच्चे आजकल मशीन पर पढ़ते हैं - पिता ने कहा।
बाबा ! ...ऑनलाइन ....मेरे दोस्त ने बताया था। घर पर ही बैठ कर पढ़ लेते हैं।
हाँ, वही। .यहाँ, तो बिजली, पानी का सही लाइन नहीं है....! करोना ने वैसे ही हाल ख़राब कर दिया है। घर में बेकार बैठने से तो अच्छा है न, खेत में मदद करो।
पिता के हाथ धोते ही, वह मचलकर उन के पास जाकर बोली -बाबा, मुझे पढ़ना है। मुझे भी ऑनलाइन ला दो न, मेरी टीचर ने कहा था हमें खेतों में काम नहीं, पढ़ना चाहिए।
हम भारत का भविष्य हैं !
भविष्य। ! महीनों से बंद पड़ी तेरी पाठशाला। कोई देखने भी नहीं आया। इस देश का विकास तो हो रहा है मगर गाँवों के विकास में अभी समय है।
ये गाँव की कच्ची सड़कें, शहरों तक नहीं जाती और न वहाँ की कागज़ पर लिखी बातें गाँवों तक पहुँच पाती हैं।
बाबा, भाई को खेत लेकर चले गए, और उसकी आँखें देर तक उन कच्चे रास्तों को देखती रहीं।
विडंबना हैं, कागज़ों पर लिखी विकास की बड़ी- बड़ी बातें, गाँवों के टेढ़े- मेढ़े कच्चे रास्तों पर चलने से कतराती हैं। ऐसे में वर्चुअल क्लासेज़ की व्यवस्था की हकीकत भी सामने आती है।