दस्तक
दस्तक


फिर वही शोर ....बाहर भी और अंदर भी....!
अंतः करण में गूँजते शब्द दस्तक देने लगे।
विद्यालय में नए सत्र के कार्यों के लिए सबके नाम घोषित किए जा रहे थे। अध्यापकों की भीड़ में बैठी …..कान अपने नाम को सुनने को आतुर थे, मगर... नाम, कहीं नहीं.....!
क्यों...? बहुत से सवाल मन में आ रहे थे।
आस -पास बहुत से मुस्कुराते मुखौटे थे जिनके लिए योग्यता नहीं, चाटुकारिता का कौशल मायने रखता था। आज, दूसरे के काम पर अपनी मुहर लगा आगे बढ़ने वालों को, दूसरे की लगन और स्पष्ट वादिता भी तो चुभती है।
ऐसे में, योग्यता में असमर्थ, अपने स्वार्थ में अंधे, ज़हर का संचार करते हैं।
पिछले 10 साल से बिना किसी लाग- लपेट के ख़ुद को अपने कार्य के समर्पण से साबित किया था इसलिए उम्मीद कर रही थी कि इस बार मेरी योग्यता का उचित मूल्यांकन किया जाएगा। 10 साल पहले जिस ग्रेड के लिए मैंने अपनी योग्यता सिद्ध की थी, नौकरी पर रखने का पुष्टीकरण पत्र देते हुए, मुझे कहा गया कि यह पद फ़िलहाल उपलब्ध नहीं है। मेरे मना करने पर मुझे यह आश्वासन दिया गया कि आपको बड़ी कक्षाएँ दी जाएँगी मगर ग्रेड, पद उपलब्ध होने पर दिया जाएगा। कोई और रास्ता न देख, स्वीकार कर आगे बढ़ गई। सोचा, अपनी मेहनत से अपना मुकाम बना ही लूँगी।
इस बीच पदाधिकारियों की आकांक्षाओं के अनेक रूप देख रही थी मगर पद के लिए समझौता स्वीकार नहीं था इसलिए अपने कार्य से अपनी पहचान बनाई।
उच्च पद और बहुत सी सफल प्रतियोगिताओं में बच्चों का मार्गदर्शन .... बहुत से कार्यक्रमों का निर्देशन।कहानियों और नाटकों का सफल मंचन भी करवाया।
चींटी की तरह एकाग्रचित्त हो लगी रही हमेशा !
इस बार सांत्वना दी गई थी कि आपकी ज्येष्ठता को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाएगा।
विभाग में एक नई अध्यापिका को कुछ महीने पहले बड़ी कक्षाओं के लिए अस्थायी रूप से नियुक्त किया गया था। इस सत्र से उन्हें नियमित कर दिया गया था। दबे शब्दों में सब जानते थे कि वह प्रधानाचार्या की रिश्तेदार हैं। विभाग में बहुत ख़ुशी से उनका स्वागत किया जा रहा था। उनके आने की मुझे भी ख़ुशी थी मगर मैं कहाँ थी ....?
मेरा 10 साल का समर्पण धूमिल हो रहा था।
मुझसे मेरा सम्मान क्यों छीन लिया गया ...?
कुछ आँखों में मेरे लिए प्रश्न चिह्न भी था मगर उनकी उपलब्धियों पर बधाई देकर,
अपने अंदर की उथल -पुथल को छिपाती, हल्की -सी मुस्कान लिए मैं ऑफ़िस की तरफ़ बढ़ गई। वहाँ दो और सीनियर भी बैठे थे।
मुझे नज़र अंदाज़ करते हुए प्रधानाचार्या हँस पड़ी –“अरे, तुम इतनी जल्दी आ गईं ? थोड़ा इंतज़ार करना था। हम तुम्हें कुछ और देना चाहते हैं।” उन सब की व्यंग्यात्मक हँसी मुझे विचलित कर रही थी।
मेरे पुनः विनम्र निवेदन पर मुझे कहा गया कि किसी अभिभावक ने मेरी शिकायत की है। बात करते वक़्त पता चला कि ये लोग ,जो बात कर रहे हैं वह दो महीने पहले हुई थी जिसमें एक बच्चे को दूसरे विषय में समस्या थी। मैंने कक्षा अध्यापिका होने के नाते उस बच्चे की समस्या का समाधान भी किया लेकिन अब यह बात......अगर कुछ गलत था तो मुझे बताया क्यों नहीं .....? बहुत से सवाल ज़हन में आ रहे थे। पूछने पर कोई उत्तर नहीं ....मैंने अपने कर्तव्य को निभाते हुए रात दिन एक किया था....अब ऐसे कैसे ....उस गलती की सज़ा ...! जो मैंने कभी की ही नहीं ...?
ओह .....एकाएक कड़ियाँ जुड़ने लगीं ....उस नई अध्यापिका का आना ....और मुझे हटाना ....मैं साज़िश का शिकार हो रही थी।
इतने सालों में कभी कोई चेतावनी पत्र भी नहीं मिला था। वे लोग मुझे कुछ बताना भी तो नहीं चाहते थे !
बहुत कुछ कह रही थी, वे आँखें और उनकी दबी ,व्यंग्यात्मक हँसी !…
.हाल ही में उनके बच्चे की उत्तर पुस्तिका जाँचते समय मैंने निर्धारित नियमों के आधार उसकी गलतियों पर अंक काट लिए थे। उस बच्चे के चेहरे के हाव -भाव भी ऐसे थे कि आज तक किसी अध्यापक ने मेरे अंक नहीं काटे ....आप कैसे ...? मगर मेरे सिद्धांतों के तहत जो नियम बाकी बच्चों पर लागू होते हैं वह उस पर भी होंगे।
बाद में कुछ लोगों ने मुझे समय के अनुसार चलने का तर्क दिया।नहीं तो अपने आदर्शों के साथ अकेले रह जाने का डर भी दिखलाया। जीवन के 22 साल इस क्षेत्र को दिए हैं। बहुत कुछ सिखाया और सीखा है। माना , मैंने अध्यापन को नहीं चुना था ,उसने मुझे चुना था। मगर यह क्षेत्र मेरे लिए उतना ही महत्त्व पूर्ण है जितना एक सैनिक के लिए सीमाओं की रक्षा करना है। कक्षा में पढ़ते हुए बच्चों को जब सही सोच के साथ प्रश्न करता देखती हूँ तो एक शिक्षक के रूप में जीवन सार्थक लगता था।
बदलते दौर के साथ, यह वह समय है जब कार्य के प्रति समर्पण और मेहनत को कम आँका जाता है चाटुकारिता और भाई- भतीजावाद का कौशल फल -फूल रहा है। शिक्षक समाज का निर्माण करता है मगर सच यह है कि इन बड़ी -बड़ी इमारतों में शिक्षा का व्यापार, समाज को खोखला कर रहा है।
मगर ....सब ख़ामोश हैं। अंकों की इस होड़ में ज्ञान सीमित हो गया है !
दर्द होता है जब शिक्षक आगे बढ़ने के लिए अपने पद की गरिमा को धूमिल करते हैं।
उच्च पदवियों पर बैठे लोगों को ख़ुश करने के लिए उनके बच्चों की भी चापलूसी करते हैं। उपहार देने के बहानों की तो हमारे देश में कमी नहीं ....! ऊपर से शादी- ब्याह का मामला तो सोने पर सुहागा सिद्ध होता है।
जितना भारी उपहार, उतनी पदोन्नति !
पहले लोग सम्मान कमाते थे ,आज ख़रीदते नज़र आते हैं।
विडंबना होती है जब बाहर आदर्शों की बातें करते लोग मौका मिलने पर बंद कमरे में चापलूसी के सारे पैमाने लाँघ जाते हैं।
स्तब्ध थी.....व्यवस्था में बैठे भ्रष्ट लोग ,अपने गलत कार्य को सही साबित करने के लिए मेरी योग्यता पर प्रश्न चिह्न नहीं लगा पाए तो मानसिक प्रताड़ना का शिकार बना रहे थे ?
मेरे प्रश्न करने से पदाधिकारियों के अहं को ठेस लगी थी इसलिए अब वे मेरे स्वाभिमान को तोड़ना चाहते थे।
कुछ समय पहले अंतर्विदयालयी रंगमंच प्रतियोगिता में मेरे निर्देशन में स्कूल के दल ने प्रथम स्थान प्राप्त किया था मगर यथा राजा -तथा प्रजा के इस दौर में चाटुकार दूसरे की मेहनत में अपना जाम छलकाते नज़र आए।
मुझे सहायक अध्यापक का काम दे दिया गया। बाकी सभी मुख्य कार्यों से हटा दिया गया। सही होने पर भी दूसरों की आँखों में उठते प्रश्न और व्यंग्य से मैं ,आहत भी हो रही थी।
अपना ध्यान केवल अपने काम पर लगा रही थी मगर दूसरी तरफ चल रही खलबली ,मुझे चैन से नहीं बैठने देना चाहती थी।
तभी उन्होंने अपनी साख बचाने के एक अंतर्विद्यालयी प्रतियोगिता मुझे दी। कहानी से लेकर मंचन तक केवल 7 दिन का समय था फिर भी हार नहीं मानी। स्क्रिप्ट तैयार की ,दल बनाया और बहुत मेहनत की और अंत में वह दिन आया और कुछ लोगों की आशाओं के विपरीत हमारे दल ने प्रथम स्थान प्राप्त किया।
मेहनत की गूँज देखकर, फिर विचलित हुए मुट्ठी भर लोग........ !
बच्चों के साथ जब हम अपनी सफलता का आनंद उठा रहे थे, मेरे पास एक संदेश आया।
ऑफ़िस में बुलाया। इस बार, मेरी पहली कक्षाओं से हटा कर निचली कक्षाओं का सहायक बना दिया था। मेरी मेहनत का क्या ख़ूब इनाम था ....?
उनकी मुस्कुराहट के पीछे का व्यंग्य समझ पा रही थी।
अपने अंदर सैलाब को समेटे मैं वहाँ से चली गई।
मेरे पंखों को अपनी मुट्ठी में करना चाहते थे। अपने पद की ताकत में चूर ,चंद लोग तानशाह बन रहे थे।
कुछ ख़ामोश रहने के लिए मजबूर थे , कुछ बिक चुके थे ....कुछ चाटुकारिता के कौशल में माहिर परिस्थितियों का मज़ा ले रहे थे।
मुझे याद आई कुछ दिन पहले की बात ,जब मुझे ऑफ़िस में चार लोगों के बीच कहा गया था कि तुम्हें माँगना नहीं आता। फिर उन्होंने अपने हाथ जोड़ कर बताया -ऐसे माँगो ....!
उस दिन देखा मैंने ,बड़ी -बड़ी बातें करने वाले ,अपने पद को शर्मसार करते लोग .....!
एक शिक्षक अपना स्वाभिमान बेच कर ,कैसे स्वाभिमानी समाज का निर्माण कर सकता है ?
ख़ामोश हो गई, मैं.....!
उनकी ओछी मानसिकता पर यह सोच कर ,मुझे बहुत दर्द हुआ कि समाज का निर्माण उन लोगों के हाथ में है जो स्वयं दीमक से ग्रसित हैं।
शिक्षक के रूप में स्वस्थ समाज का निर्माण का हिस्सा बनना चाहती थी।
मगर यहाँ शतरंज की बिसात बिछी थी।
किसी अपने को लाने के लिए, दूसरे को हटाना था ,
मगर ,अब मुझे अपनी दृढ़ शक्ति को आजमाना था।
ये बेचैनी,ये तनाव , जीवन एक किस्सा था .....!
हार नहीं मानी ,
प्रश्न किया और आईना भी दिखला दिया।
अब, ज़िंदगी ने मुझे फिर परखना था...
कलम का साथी बन, हर अध्याय, जो लिखना था।
दोस्तों,
समाज ऐसा ही था, ऐसा ही है, ज़रूरत है ,अपने -आप पर विश्वास रखने की। आपकी हार तब तक नहीं होगी जब तक आप हार नहीं मानेगे।
मेरे अनुभवों की दस्तक ,अगर किसी के तनाव को काम कर सकी तो मेरा प्रयास सार्थक होगा।