हम नहीं तो कोई और माँ-बाप तो अपने बच्चों के साथ दीवाली मना सकें!!!#Prompt28
हम नहीं तो कोई और माँ-बाप तो अपने बच्चों के साथ दीवाली मना सकें!!!#Prompt28
"पापा, आप मम्मी को समझा देना। इस बार दीवाली पर हम घर नहीं आ रहे हैं। लॉक डाउन के कारण काफी दिनों से कहीं घूमने नहीं गए तो अब दीवाली पर वेकेशन के लिए कश्मीर घूमने जा रहे हैं। ", सुदेशजी के एकलौते बेटे वैभव ने ऐसा कहकर फ़ोन रख दिया था।
सुदेश जी एक प्राइवेट फर्म में अकाउंटेंट थे। बहुत ज्यादा तनख्वाह नहीं मिलती थी, उनकी पत्नी सुधा ने हर कदम पर उनका साथ दिया था। सुधाजी की सुघड़ता से कम तनख्वाह में भी सुदेशजी ने अपना एक छोटा सा घर बना लिया था। जैसा कि सभी माँ-बाप करते हैं, उन्होंने भी अपनी जरूरतों के साथ समझौता कर अपने एकलौते बेटे को बेहतर शिक्षा दिलवाई थी। वैभव भी एक अच्छी कंपनी में अच्छी
नौकरी पा गया था, फिर जब वैभव ने अपने साथ ही काम करने वाली मायरा से शादी की इच्छा व्यक्त की तो सुदेश जी और सुधाजी ने सहमति दे दी थी।
मायरा एक अच्छे धनी परिवार की एकलौती बेटी थी। कभी -कभी उसकी और सुधाजी और सुदेश जी की सोच नहीं मिलती थी। मायरा ने कभी अपनी ज़िन्दगी में कोई समझौता नहीं किया था, जबकि सुधाजी और सुदेशजी की ज़िन्दगी का तो दूसरा नाम ही समझौता था। फिर भी दोनों जब कभी मायरा आती, उसकी ख़ुशी का भरसक ध्यान रखने का प्रयास करते थे।
उम्र बढ़ने के साथ -साथ सुदेशजी के काम करने की क्षमता भी घट रही थी, तो सुदेश जी केवल घंटे -दो घंटे के लिए कंपनी जाने लगे थे। उन्होंने अपने खर्चों की पूर्ति के लिए अपने घर का एक हिस्सा किराए पर दे दिया था ताकि कम तनख्वाह में भी घर चला सकें। अपने बेटे वैभव से न तो उन्होंने कभी अपनी आर्थिक समस्या का ज़िक्र किया और न ही वैभव ने कभी पूछा।
किरायेदार आनंद उन्हीं के शहर में एक प्राइवेट कंपनी में काम करता था और अपनी पत्नी मेघा और बेटे चिंटू के साथ रहता था। आनंद सुदेश जी की आर्थिक स्थिति से अच्छे से वाकिफ था, लॉक डाउन के दौरान भी आनंद ने थोड़ा देर से ही सही सुदेश जी को पूरा किराया दिया। सुदेश जी ने उसे कहा भी, " बेटा, इस महीने का किराया रहने दो। तुम्हारी भी तो तनख्वाह कट गयी होगी। "
"नहीं, अंकल कोई दिक्कत नहीं। आपकी दुआ से सब ठीक है। ", आनंद ने सुदेशजी से झूठ बोल दिया था।
लॉक डाउन के दौरान और उसके बाद भी आनंद को पहले जितना वेतन नहीं मिल रहा था। लेकिन वह अपनी बचत से जैसे -तैसे मैनेज कर रहा था। दीवाली पर उसे बोनस मिलने की पूरी उम्मीद थी, तो उसने दीवाली पर अपने गांव जाने का हर बार की तरह प्लान कर रखा था। लेकिन आज ही उसे सूचना मिली थी कि कंपनी इस बार बोनस नहीं देगी। अतः उसने मेघा को बता दिया था कि बोनस न मिलने के कारण इस बार गांव नहीं जाएंगे। मेघा और सुदेश की बातें चिंटू ने सुन ली थी।
सुदेशजी और सुधा जी कई महीनों पहले ही पैसे बचाने शुरू कर देते थे ताकि दीवाली पर बच्चों के साथ अच्छे से त्यौहार मना सके। बच्चों को विशेषकर, मायरा को कोई दिक्कत न हो। इस बार भी सुदेशजी और सुधा जी काफी समय से दीवाली की तैयारी और बच्चों के आने का इंतज़ार कर रहे थे।
लेकिन वैभव के फ़ोन ने सुदेशजी के दीवाली मनाने के उत्साह को फीका कर दिया था। अभी सुदेश जी सुधा को बताने जाने ही वाले थे कि उन्हें चिंटू खेलते हुए दिख गया। सुदेश जी चिंटू के साथ खेलने लग गए। उन्होंने बातों -बातों में चिंटू से पूछा, " बेटा, दादा -दादी के पास कब जा रहे हो ?"
चिंटू ने बताया कि, " मम्मी -पापा बोनस की बात कर रहे थे। इस बार हम यहीं दीवाली मनाएंगे। "
सुदेश जी आनंद की समस्या समझ गए थे। उन्होंने सुधा जी के साथ चर्चा की और दोनों ने आनंद का गांव तक जाने का आरक्षण करवा दिया। सुदेशजी का कहना था कि कम से कम आनंद के माँ -बाप तो अपने बच्चों के साथ दिवाली का त्यौहार मना सकें। शाम को आनंद के आने पर सुदेश जी ने यह कहते हुए उसे टिकट्स दे दिए कि, " बेटा, कोई योजना चल रही थी। हमने वैभव के पास जाने के टिकट बुक करवाए थे। डिस्काउंट का पूरा लाभ लेने के लिए तुम्हारे भी टिकट्स करवा दिए। तुम तो हर बार ही दीवाली पर घर जाते हो। पैसे का हिसाब -किताब, जब तुम लौटकर आओगे, तब कर लेंगे। "
आनंद के पास सुदेशजी का धन्यवाद व्यक्त करने के शब्द नहीं थे। किरायेदार और मकान -मालिक दोनों ही अच्छे इंसान थे।