हम हिंदी वाले
हम हिंदी वाले
चौथी कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद पांचवी कक्षा में पहुँच चुका निहार बेसब्री से खिड़की पर खड़ा अपनी माँ के आने की राह देख रहा था।
उसकी माँ नीना जी उसके विद्यालय से नई कक्षा की किताबें लाने गयी हुई थी।
जैसे ही नीना जी किताबें लेकर घर पहुँची, निहार ने उत्सुकता से किताबों का बंडल खोला और उसमें से सबसे पहले हिंदी की पाठ्यपुस्तक निकाल कर पढ़ने में जुट गया।
नीना जी के बार-बार खाने के लिए आवाज़ देने पर भी निहार अपनी जगह से तब तक नहीं हिला जब तक कि उसने पुस्तक की सारी कहानियां और कविताएं नहीं पढ़ ली।
खाने के टेबल पर निहार के पहुँचते ही उसकी दीदी तन्वी जो कि आठवीं कक्षा की छात्रा थी, उसने व्यंग्य से कहा, "लो आ गए हिंदी के गुरुजी।"
"मेरे हिंदी प्रेम से तुम इतना चिढ़ती क्यों हो दीदी," निहार गुस्से से बोला।
तन्वी ने हँसते हुए कहा, "तुम्हारी बेवकूफी पर तरस आता है मुझे। भला आज के जमाने में हिंदी कौन पढ़ता है? हिंदी में तो तुम नब्बे प्रतिशत लाते हो और अंग्रेजी में बस किसी तरह उत्तीर्ण हो जाते हो। यही हाल रहा तो तुम्हें कोई नौकरी भी नहीं मिलेगी।"
तन्वी की बात सुनकर निहार ने हैरानी से नीना जी से पूछा, "माँ, क्या दीदी सच कह रही है? हिंदी पढ़ने वालों को नौकरी नहीं मिलती?"
"हाँ बेटे बड़ा अफसर बनने के लिए, विद्यालय के बाद अच्छे कॉलेज में जाने के लिए हिंदी की नहीं अंग्रेजी की जरूरत पड़ती है।" नीना जी ने कहा।
निहार बोला, "पर माँ, हिंदी तो हमारी मातृभाषा है, हमारे देश की पहचान। फिर भी ऐसा क्यों?"
"यही तो इस देश की विडंबना है मेरे बच्चे की यहां फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वालों को विद्वान और हिंदी बोलने वालों को गंवार समझा जाता है। हर परीक्षा में अंग्रेजी जानने वालों का बोलबाला है।" नीना जी ने शांत स्वर में कहा।
तन्वी की तरफ देखते हुए निहार बोला, "अगर ऐसा है तो मैं आपसे वादा करता हूँ कि मैं अपनी हिंदी के साथ ही आप सबको बड़ा अफसर बनकर दिखाऊंगा।"
"ठीक है फिर लगाते है शर्त। जो हारेगा उसे जीतने वाले कि एक बात माननी होगी।" तन्वी ने निहार की तरफ हाथ बढ़ाते हुए कहा।
निहार ने तन्वी से हाथ मिलाकर इस शर्त को स्वीकार कर लिया।
वक्त अपनी रफ्तार से गुजर रहा था।
तन्वी अब जहां एक प्रतिष्ठित बैंक में अफसर बन चुकी थी, वहीं निहार कॉलेज में आ चुका था। अपनी पसंद के मुताबिक उसने कॉलेज की पढ़ाई के लिए मुख्य विषय हिंदी(प्रतिष्ठा) रखा था।
पढ़ने के साथ-साथ निहार को लिखने का भी शौक था। बहुत ही जल्द वो कॉलेज से निकलने वाली मासिक हिंदी पत्रिका का मुख्य लेखक बन चुका था।
कविता पाठ का उसका अंदाज इतना रोचक था कि बिना उसके कॉलेज का कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं होता था।
पढ़ाई के साथ-साथ निहार प्रशासनिक परीक्षा की तैयारियों में भी जी-जान से जुटा हुआ था।
उसके सहपाठियों और कई शिक्षकों ने उसे समझाया कि वो परीक्षा के लिए अंग्रेजी माध्यम चुने क्योंकि आमतौर पर अंग्रेजी माध्यम वालों को ही उच्च परीक्षा में वरीयता दी जाती है। लेकिन निहार ने साफ शब्दों में मना कर दिया।
प्रारंभिक और मुख्य परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद अब साक्षात्कार की बारी थी।
नियत दिन निहार साक्षात्कार के लिए पहुँचा।
साक्षात्कार लेने वाले पैनल ने उसके हिंदी विषय से पढ़ाई और हिंदी लेखन की बात जानकर उससे पूछा, "आज जब सब लोग अंग्रेजी को वरीयता देते है तब हिंदी पढ़ने की आपकी क्या वजह है?"
निहार ने उत्तर दिया, "महोदय, मुझे बचपन से ही हिंदी विषय में रुचि रही है। मातृभाषा होने के कारण जो सहज लगाव हिंदी से है वो अंग्रेजी से कभी हुआ ही नहीं।"
पैनल ने फिर उससे सवाल किया, "क्या आपको कभी अंग्रेजी ना बोलने के कारण शर्मिंदगी का अनुभव नहीं हुआ?"
निहार ने कहा, "मुझे तो इसमें शर्मिंदगी जैसी कोई बात नहीं लगती महोदय। अंग्रेजी क्या है महज एक भाषा ही तो है, जो कभी भी सीखी जा सकती है। अमेरिका में तो मामूली सफाईकर्मी भी अंग्रेजी बोलते है क्योंकि वो उनकी मातृभाषा है। उसी तरह हिंदी मेरी मातृभाषा है जिसे बोलने और जिसमें रुचि रखने पर भारतीय होने के नाते मुझे गर्व की अनुभूति होती है।"
पैनल के सभी सदस्य उसके जवाब से पूर्णतया संतुष्ट नज़र आ रहे थे। कुछ और सवाल-जवाब के बाद उन्होंने निहार को जाने की आज्ञा दे दी। जैसे-जैसे अंतिम परिणाम का दिन नज़दीक आ रहा था निहार के साथ-साथ उसके घरवालों, दोस्तों और शिक्षकों की उत्सुकता भी बढ़ती जा रही थी। परिणाम की सुबह जैसे ही निहार ने आँखें खोली सामने तन्वी खड़ी थी।
"अरे दीदी, आज इतनी सुबह कैसे? तुम्हारे बैंक में छुट्टी है क्या?" निहार ने हैरानी से पूछा।
निहार के मुँह में बड़ा सा लड्डू ठूंसते हुए तन्वी बोली, "छुट्टी है नहीं, खास छुट्टी लेकर आयी हूँ अपने इस हिंदी के गुरुदेव के लिए।"
मुँह से लड्डू निकालते हुए निहार बोला, "ओफ्फ हो, ये क्या है दीदी, अभी मैंने दांत भी साफ नहीं किये है।"
"अरे शेर भी कभी मुँह धोते है मेरे भाई। ये देख तेरी बहादुरी के चर्चे पूरे देश में है आज।" बोलते हुए तन्वी ने आज का अखबार निहार के आगे रख दिया।
अखबार में छपी हुई खबर पढ़कर सहसा निहार को यकीन नहीं हुआ कि ये सच है।
उसने तन्वी से कहा, "दीदी, जल्दी से मुझे चिकोटी काटो। कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा हूँ।"
उसकी बात सुनकर तन्वी ने उसे जोर से चिकोटी काटी।
"आहहहह, इतनी जोर से काटने को किसने बोला था? सारा बदला आज ही ले लोगी क्या?" मुँह बनाते हुए निहार बोला।
तन्वी हँसते हुए बोली, "अब पता नहीं मेरे शर्त हारने पर तुम मुझसे कौन सी मनवाओ, इसलिए सोचा उससे पहले मैं कुछ कसर पूरी कर लूँ।"
आज के अखबार की जिस मुख्य खबर की दोनों भाई-बहन बात कर रहे थे वो ये थी कि बहुत वक्त के बाद किसी हिंदी माध्यम वाले प्रतियोगी ने प्रशासनिक परीक्षा में सबसे ज्यादा अंक लाने का गौरव प्राप्त किया था जो कोई और नहीं निहार था।
बचपन में तन्वी से लगाई हुई शर्त आज वो जीत चुका था। इससे पहले की तन्वी और निहार आगे कुछ बात करते, निहार को बधाई देने आने वालों का तांता लगने लगा। जब अख़बार और समाचार चैनल वाले उसका साक्षात्कार लेने पहुँचे और इस सफलता के बारे में उससे कुछ बोलने के लिए कहा गया तब निहार ने कहा, "मैं बस इतना ही कहना चाहूंगा कि भारतीय होने के नाते हमें अपनी भाषा, अपनी संस्कृति पर गर्व करना सीखना चाहिए, उनका आदर करना चाहिए, ना कि उन्हें अपनी शर्मिंदगी की वजह समझकर अपनी जड़ो से कट जाना चाहिए। जरूरी नहीं है कि अंग्रेजी ही आपकी सफलता का माध्यम हो। अगर आपमें काबिलियत है तो आप अपनी मातृभाषा के साथ भी अपने सपनों को सच कर सकते है।"
हर जगह आज निहार के कहे शब्दों की चर्चा हो रही थी। कभी उसके भविष्य के प्रति चिंतित रहने वाले उसके पूरे परिवार, दोस्तों और शिक्षकों को उस पर गर्व था।
