हिन्दुस्तानी
हिन्दुस्तानी
मेरा घर सीमा से सटी सेना की चौकी के काफी नज़दीक था। रात भर गोलियां चलतीं रहती थीं। पड़ोसी मुल्क से लगातार हम आम लोगों पर किसी न किसी तरह से हमले होते रहते थे।
तभी मैंने दर्द की कराहट सुनी। देखा ज़मीन पर एक आदमी दर्द से तड़प रहा था। उसके बदन पर कपड़े नहीं थे और टांग में गोली लगी थी। नज़दीक जा कर देखा तो वो बेहोश हो चुका था। किसी तरह उसे खींच कर घर लाया। बीवी भाग कर आयी और पानी का छींटा उसके मुँह पर डाला। अंदर पड़ी खाट पर लिटाया। कम्बल से उसके शरीर को ढका और मुझे हकीम जी को बुलाने को कहा और उसके जूते उतार कर उसके पैरों को जोर-जोर से मलने लगी।
मैं उसका मुँह ताक रहा था कि कैसे ये हिम्मत से उस अनजान आदमी की खिदमत कर रही है।
क्योंकि पिछली रात पड़ोसी मुल्क के कुछ उपद्रवियों ने घात लगाकर मेरे घर पर हमला किया था और मेरी पत्नी व बेटी को बुरी तरह पीट कर गए थे।
गर्म पानी ला कर उसने मेरी बेटी से उस आदमी के माथे पर पट्टी रखने को कहा। बेटी उसके माथे पर गरम पानी की पट्टी रखने लगी। मैं आनन्-फानन में हकीम जी को बुला लाया। उस आदमी को भी थोड़ा-थोड़ा होश आ रहा था। हकीम जी गोली निकाल कर व कुछ दवाई देकर उस आदमी को आराम का कह कर चले गए।
हम तीनों उसके आस-पास ही मौजूद रह कर उसकी देखभाल कर रहे थे। तभी आधी रात को वो अचानक से उठा और हमारा शुक्रिया कर जाने लगा।
पत्नी ने उसे मेरे कपड़े पहनने को दिए और उसे जल्दी ही निकलने को कहा।
"इतनी जल्दी जाने को क्यों कह रही हो। अभी तो ये ठीक से चल भी नहीं सकते। एक-दो दिन रुक जाने देतीं इन्हें यहाँ"-मैंने कहा।
"नहीं…नहीं इन्हें अभी निकल लेना चाहिए। बाद में मुश्किल हो सकती है। तुम जाओ यहाँ से। जल्दी निकलो। इससे पहले कि कोई देख ले तुम्हें"-पत्नी बोली।
अभी वो आदमी ठीक से चल भी नहीं पा रहा था अचानक वो मेरी पत्नी के पैरों में गिर पड़ा।
"मुझे माफ़ करें। आपने मुझे बचाया क्यूँ "-वो रो-रो कर धीमे-धीमे बुदबुदा रहा था।
"हम हिन्दुस्तानी औरतें हैं और शरण में आये लोगों का धर्म और देश नहीं देखतीं। तुम अब जल्दी अपने देश लौट जाओ। इससे पहले कि मेरे अंदर देश प्रेम जाग जाए और मैं तुम्हें यहीं कत्ल कर दूँ और अपनी व अपनी बेटी की कल रात हुई बेइज्जती का बदला ले लूँ। मुझे मालूम है कल के हमले में तुम भी शामिल थे"-ऐसा कह उस आदमी को घर से बाहर निकाल मेरी पत्नी ने दरवाज़ा बंद कर लिया।
