प्रतिशोध
प्रतिशोध
अँधेरा और डर दोनों का कभी न छूटने वाला साथ है।
अँधेरा भी था और मैं डरी हुई भी थी। रास्ता भी वीरान था और मेरी चप्पल भी टूट गयी थी। साड़ी से खुद को ढक कर मैं आगे बढ़ रही थी। तभी अपने पीछे कमर पर किसी का हाथ महसूस किया मैंने। पल भर में मेरी साड़ी उसके हाथ में थी। जिस साड़ी को खींच कर उसने मेरे तन को बर्फ़ कर दिया था उसी साड़ी से मैंने भी दुर्गा बन उसका गला घोंट दिया था।
अब उस बियाबान में था अँधेरा,कोई अनजान बेजान जिस्म, मेरी टूटी चप्पल, पाक-मुक़द्दस और बेखौफ सिर्फ मैं।
डर कहीं भाग खड़ा हुआ था।