dr vandna Sharma

Drama

5.0  

dr vandna Sharma

Drama

हिंदी विभाग की यादें

हिंदी विभाग की यादें

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१५ जून को पहली बार मैं आर.बी.डी. कॉलेज गयी थी मॉस्कोम में प्रवेश लेने। तब मेरा हिंदी से एम. ए. करने का कोई इरादा नहीं था। मैं साइंस की छात्रा थी। कोई प्रफेशनल कोर्स करना चाहती थी जैसे एम.बी.ए., एम.सी.ए. आदि। उस समय टीचर की जॉब भी अच्छी नहीं लगती थी। मुझे किसी बड़ी कम्पनी में ,बड़े से ऑफिस में जॉब करने का मन था। क्योंकि टीचर की जॉब इतनी ग्लैमरस् नहीं होती। टीचर को बिल्कुल आदर्शवादी छवि बनानी पड़ती है बच्चों के सामने। पॉइंट पर आती हूँ वरना टॉपिक से भटक जाउँगी।

हिंदी विभाग की यादें लिखनी है पूरी ज़िंदगी की नहीं। पर ये सच है हिंदी विभाग में मेरा आगमन स्वतः नहीं था। चूँकि मैं मॉस्कोम करने आयी थी विद्यालय, पर फीस थी इसकी दस हज़ार। प्राचार्या मैम ने एक ऑफर दिया। यदि मैं इसी विद्यालय से एक कोर्स और कर लूँ तो मेरी आधी फीस माफ़ हो जाएगी। अब समस्या यह कि बी. ए तो किया नहीं, एम. ए. कैसे करूँ ?

मैम ने सुझाव दिया। दस सीट गैर संकाय की छात्रा को मिलती है तो काम बन गया। इस तरह मैं हिंदी विभाग की शिष्या बनी। हिंदी एक वैज्ञानिक भाषा है इसे सीखने में हमारी उत्सुकता और जोश पुरे उफान पर थे। सही से अध्ययन किया जाये तो हिंदी एक कठिन विषय है निपुणता प्राप्त करने के लिए। बाकी सब विषय में तो पाठ्यक्रम सीमित होता है पर हिंदी साहित्य तो इतना व्यापक है जितना पढ़ो उतना कम ही लगता है। चूँकि मैं विज्ञान वर्ग से थी। पॉइंट टू पॉइंट लिखने की आदत थी। डॉ मीना अग्रवाल मैम काव्य पढ़ाती थी। जब किसी काव्यांश की व्याख्या करने को देती तो मैं दो पंक्तियों में शाब्दिक अर्थ बताकर काम खत्म कर देती। तब पता चला व्याख्या मतलब, शाब्दिक अर्थ+भावार्थ। अब भावार्थ लिखने के लिए बहुत अभ्यास करना पड़ा। उन्होंने टोक-टोक कर हमारी वर्तनी भी शुद्ध कर दी। डॉ. सविता मिश्रा मैम हिंदी साहित्य का इतिहास और आधुनिक काव्य पढ़ाती। उनके पढ़ाने का तरीका इतना सहज,सरल था कि आगे पढ़ने की जिज्ञासा बनी रहती। कालांश छोटा प्रतीत होता। एक बार सविता मैम ने चाणक्य विचार पत्रिका देकर उस पर प्रतिक्रिया लिखने को कहा और प्रकाशित करने की बात कही।

अगले दिन प्रतिक्रिया लिखकर हमने मैम को दिखायी। उन्होंने हमारा उत्साहवर्धन किया और पत्रिका के पते पर पोस्ट करने के लिए कहा। मैम के आशीर्वाद से वो प्रतिक्रिया अगले अंक में प्रकाशित भी हुई। हमारी ख़ुशी का तो पैमाना ही नहीं था। मैम ने कई साहित्यिक पत्रिकाएँ पढ़ने को दी और उनमें अपनी रचनाएँ भेजने का सुझाव दिया। फिर क्या था। हमें तो चस्का लग गया। मैम से शाबासी लेने का और रचनाएँ प्रकाशित कराने का। डॉ. विदुषी मैम काव्यशास्त्र पढ़ाती। वो पेपर बहुत ही वैज्ञानिक एवं दार्शिनक था। रोचक तो बहुत था पर कुछ नियम मेरी समझ से परे थे पर विदुषी मैम बड़े धैर्य के साथ मेरे सवालों का समाधान करती। मेरी रूचि भी दर्शन में बढ़ी। २००९ में विदुषी मैम के आशीर्वाद से हिंदी विभाग में अध्यापन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। विदुषी मैम और सविता मैम ने मुझे पुत्री की तरह स्नेह दिया और कदम कदम पर मेरा मार्गदर्शन किया। मेरा उत्साह बढ़ाया और सिखाया। आजीवन दोनों की ऋणी रहूँगी।

मेरा शोध कार्य डॉ. विदुषी भारद्वाज के निर्देशन में पूर्ण हुआ और मेरा कवि व्यक्तित्व सविता मैम के निर्देशन में पूर्ण हुआ। मैं आज भी हिंदी विभाग की शिष्या हूँ और आजीवन शिष्या ही रहना चाहूँगी फिर भी कुछ यादें लिखना चाहूँगी।

मार्च माह की एक सुहानी सुबह। सुनहरी धुप चारों ओर फैली हुई। ठंडी पुरवाई चल रही थी। जैसे ही मैं हिंदी विभाग में पहुँची।

डॉ. मिश्रा, "आओ वंदना, तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहे थे। आओ साथ चलते हैं।"

बिना कोई प्रश्न पूछे मैं उनके साथ रिक्शा में बैठ गयी। मुझे कुछ नहीं पता कहाँ जाना है क्यों जाना है पर जब मैम साथ हैं तो सब अच्छा ही होगा यही सोच रही थी। डॉ. मिश्रा ने तो हॉस्पिटल का पता बताया रिक्शा वाले को शायद किसी मरीज़ को देखने जाना हो। रिक्शा तो हॉस्पिटल के सामने ही रुका पर हम दोनों उसके सामने वाली गली में कोरियर की दुकान पर गए। वहाँ डॉ. मिश्रा ने अपनी पुस्तक किसी परिचित को कोरियर की। कई विचार मन में चल रहे थे पर मैं चुप थी। अब हम उसी रिक्शा से फिर चले अबकी बार रिक्शा टाउन हाल के सामने वाली गली में मुड़ी तो मैंने पूछ ही लिया, "मैम हम जा कहाँ रहे हैं ?"

डॉ. मिश्रा ज़ोर से हँसने लगी। उन्हें मेरी मासूमियत पर हँसी आ रही थी। "बस, यही एक दुकान तक।"

उस दुकान में घुसते ही गुंझियों की महक आने लगी। एक तरफ हलवाई मठरी और शक्करपारे बनाने में व्यस्त, एक तरफ चिप्स, चॉकलेट और स्वीट्स सजी हुई। मैम ने घर का सामान लिया और एक बड़ी चॉकलेट मुझे दी, "तुम्हें चॉकलेट पसंद है न।"

एक दिन क्या हुआ जैसे ही मैं कॉलेज पहुँची काशीराम जयंती मनाने की चर्चा चल रही थी।

"आज तो केक काटना चाहिए वो भी बड़ा वाला और निबंध कोण सुनाएगा। याद करके आये हैं न सब।"

डॉ. केसर ने स्वरचित कहानी सुनाई। कभी-कभी ज़िंदगी में सब कुछ अप्रत्यशित होता है, सोचते कुछ हैं और हो कुछ जाता है। सब कुछ कितना अनिश्चित है। सोचते है गंगा पार जाने की और पहुँच जाते हैं जमुना पार।

"आज कहीं घूमने चलते हैं, आज घर नहीं जाना, मेरा घर से निष्काषन हुआ है।"

डॉ. मिश्रा ने शरारती मुस्कराहट के साथ कहा तो मैंने पूछा, "क्यों मैम ऐसा कैसे हो सकता है ?

डॉ. केसर शांत रही। उन्होंने सोचा कोई समस्या होगी।

"केसर पूछा नहीं तुमने क्यों कहा हमने ऐसा !"

डॉ. मिश्रा ने केसर को छेड़ते हुए कहा। डॉ. मिश्रा के होंठो पर फिर वही नटखट मुस्कान लहरा उठी।

"आज हमारे घर में मरम्मत का कार्य हो रहा है तो पापा ने कहा है कि शाम को देर से आना। आज कहीं घूम आना।

वंदना ने कहा, "मैम अच्छा मौका है, कहीं घूमने चलते हैं पर कहाँ जाये ?"

निर्णय हुआ कि डॉ. भारद्वाज के घर चलते हैं पर पहले कुछ खा -पी लेते हैं। डॉ. मिश्रा हमें एक रेस्टोरेंट ले गयी और हमें डोसा पार्टी दी।

वंदना, "मैम डॉ. भारद्वाज के घर तीनों एक साथ नहीं जायेंगे। आगे-पीछे एक-एक करके जायेंगे तो उन्हें तीन बार गेट खोलने आना पड़ेगा और अच्छा सरप्राइज भी हो जायेगा।"

उस दिन ऐसा लग रहा था जैसे प्रकृति भी हमारे साथ मस्ती के मूड में हो। तेज आँधी, धूल उड़ाती न जाने कहाँ से आयी। ऊँचे-ऊँचे पेड़ तेजी के साथ हिल-हिल कर कोलाहल कर रहे थे। तेज हवा के साथ पत्ते ऐसे उड़ रहे थे जैसे वो भी आनंद ले रहे हो हमारे साथ उस दिन का। बातों ही बातों में कब डॉ. भारद्वाज का घर आ गया पता ही नहीं चला। सबसे पहले वंदना अंदर गयी और ड्राइंग रूम में बैठ गयी। फिर केसर मैम आयी और सबसे बाद में डॉ. मिश्रा का प्रवेश। हमें हँसी आ रही थी डॉ. भारद्वाज के चेहरे के भावों को पढ़कर।

सभी खिल-खिलाकर हँसने लगते हैं। सोचा था शाम तक वही रुकेंगे ,कुछ साहित्यिक चर्चा करेंगे ,कुछ पल व्यस्त ज़िंदगी से चुराकर साथ-साथ जियेंगे पर वक़्त तो हमारी सोच से दो कदम आगे चलता है। अगले पल क्या होने वाला है ये कौन जानता है ?

हम सभी हल्की -फुल्की बातों का आनंद ले रहे थे, तभी डॉ. मिश्रा का फोन बज उठा और वो तुरंत जाने के लिए खड़ी हो जाती है। सभी विस्मित से उन्हें देखते हैं। किसी को कुछ समझ नहीं आता क्या हुआ ? डॉ. मिश्रा ख़ामोशी को तोड़ते हुए-"पापा की उंगली में चोट लग गयी है, बहुत खून बह रहा है, अभी जाना होगा।" डॉ. केसर एवं वंदना भी साथ ही वहाँ से विदा लेते हैं और इस तरह से सपनों का एक बुलबुला वक़्त के हाथों टूट जाता है।


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