हिंदी दिवस
हिंदी दिवस
श्रीमती वाग्देवी खुश थीं कि आज उन्हें अपना मकसद मिल गया था । जिसकी उन्हें हमेशा ही चाह रही थी। कौआ बचाओ एनजीओ की टेम्प्लेट बनवा कर घर लौट रही थीं।.. रास्ते में ही थीं कि मोबाइल की घंटी बजने लगी। संयोग ही था ,घर पहुँच कर जब अपना मोबाइल चैक किया तो हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में उन्हें आमंत्रित किया गया था। अब तो सोने पर सुहागा जैसी बात हो गयी। जैसे बंद रास्तों के द्वार स्वयं खुलते जा रहे हैं और वे सीधे उनमें प्रवेश पा रही हैं। तभी पतिदेव जी एक गिलास ठंडा पानी लेकर आ गये और उनकी ओर मुखातिब होते हुए कहा,..." जिस काम से गयी थीं। वह पूरा हुआ क्या ? "
..." प्रयोजन निश्छल हो तो सारी कायनात उसे पूरा करने के लिए तत्पर रहती है। मुझे लगता है जैसे सब कुछ सही दिशा में जा रहा है। सुनिए कल हिंदी दिवस है, मुझे केंद्रीय हिंदी संस्थान में मेरी सहेली के निमंत्रण पर उनके साथ जाना है। आपका क्या ख्याल है.? क्या मुझे जाना चाहिए.?"
..." अवश्य जाएं, कुछ न कुछ जानने को ही मिलेगा। हिंदी का तो जो भला होगा सो होगा ही पर आपका समोसा , चाय तो पक्का है।"
....." सही कह रहे हैं आप । दो सौ रुपए खर्च करके हिंदी महत्ता सुनने जाएं और समोसा भी न मिले तो घोर ना इंसाफी है जी। कुछ याद आया आपको जब त्रिवेंद्रम गये थे तो चाय ,ब्रेड के शाॅपकीपर ने क्या कहा था ? "
....." हाँ ! जहाँ तक मेरी यादाश्त है,तो मुझे याद आ रहा है..."ओनली मलयालम " कहा था। यानि उन्हें हिंदी में कोई दिलचस्पी नहीं थी। "
....." होनी ही चाहिए, जैसे हम लोगों से कोई तमिल में बात करेगा तो हम भी तो यह कहेंगे,"ओनली हिंदी " है कि नहीं?"
......" कोई बात नहीं आप भी कुछ तैयार कर लीजिए शायद बोलने का अवसर मिल जाए।"
....." नहीं वहाँ सब पहले से ही निश्चित होता है, बड़े बड़े विद्वान शिरकत करते हैं। हम किस खेत की मूली हैं जी।"
..."मूली ! आज तो मूली का परांठा बनना ही चाहिए। मैं चाय बना कर लाता हूंँ। बाजार से समोसा नहीं लेकर आयीं क्या ?"
...." वह कैसे भूला जा सकता है । बृजवासी तक जाएं और समोसा न लाएं। आपकी मनपसंद खुर्मी भी है"।
...." आज खुदा कुछ ज्यादा ही मेहरवान हैं। चाय तैयार है हम लेकर आते हैं।"
सोफे पर एसी से ठंडे किए गये कमरे में ठकुराइन साहिबा रविन्द्र नाथ टैगोर जी का गीत गुनगुनाने लगीं।
एकला चलो ,एकला चालो, एकला चालो रे....
जोड़ी थोर डाक शुने केउ ना आसे तोबे
एकला चलो रे....
जोड़ी थोर डाक शुने केउ न आसे तोबे
एकला चलो रे...
एकला चलो, एकला चलो
एकला चलो, एकला चलो रे...
जोड़ी थोर डाक शुने केउ न आसे तोबे
एकला चलो रे....
.....लग रहा था जैसे चाचीजी के मन में हजारों गुलमोहर खिल गये हैं और वे किसी षोड़शी की तरह पेड़ों के इर्द गिर्द चक्कर लगाते हुए अपने प्रिय का रास्ता देख रही हों। अपनी इसी भावना को उन्होंने अपने प्रिय के साथ कुछ इस तरह से अभिव्यक्त किया," सुनिए जी ,यह मन तो हमेशा ही हमारे शरीर में एक ही सामग्री से बना हुआ रहता है...है कि नहीं ? या फिर रसायन भी समय-समय पर बदलते रहते हैं?"
...." रसायन तो एक ही रहता है,पर मनोनुकूल कार्य होने से उसकी क्रिया, प्रतिक्रिया बदलने लगती हैं। इसका असर हमारे शरीर पर साफ दिखाई देता है। जैसे कि आज आपका चेहरा किसी नवयुवती की तरह प्रसन्नता और ताजगी से सराबोर हो गया है।"
..…" चाय बहुत अच्छी बनायी है आपने,ठीक ऐसी ही पीनी थी मुझे। वैसे चाय आप हमेशा ही बढ़िया बनाते हैं।"
....."शुक्रिया मोहतरमा! पता है दाढ़ी वाले बाबा जी कनाडा से वापस आ गये हैं। कल का दिन हम उनके साथ बिताएंगे और आप अपने हिंदी संस्थान में।"
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.....चौदह सितम्बर यानि हिंदी दिवस*
मिसिज वागले एक प्रख्यात कालेज में प्रवक्ता रही हैं और मिसिज वाग्देवी * यानि ठाकुराइन चाची अच्छी मित्र हैं। साथ -साथ आने -जाने में दोनों की जोड़ी कालोनी में मशहूर है। मिसिज वागले सरल हृदय की महिला हैं समय-समय पर वे जब अकेले कहीं जाना होता है तो ठकुराइन मैडम को साथ ले जाती हैं जिससे उनकी मित्र मंडली में वह अजनबी नहीं हैं अब।
....." केंद्रीय हिंदी संस्थान के केंद्रीय कक्ष में आज पूरे भारत से शोधार्थी, साहित्यकार, हिंदी सेवी उपस्थित हुए हैं। सब के अपने मत मतांतर हैं । हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार और अपनाने के लिए सभी अपनी प्रतिबद्धता प्रेषित कर रहे हैं। ठकुराइन चाची मिसिज वाग्देवी बहुत प्रसन्न हैं क्योंकि उनकी ज्ञान पिपासा को अमृत रस प्राप्त हुआ है। बहुत से विचार उनके अंदर भी उथल- पुथल मचा रहे हैं लेकिन अपनी बात वह किस अधिकार से कहें। अपने मन में वह सोच ही रही थीं कि संचालक महोदय श्री धर जी ने दर्शक दीर्घा में बैठे श्रोताओं से रूबरू होते हुए कहा, " मित्रो ! आज हिंदी दिवस है,जो हिंदी प्रेमी हैं वे अपने कीमती समय से वक्त निकाल कर यहाँ उपस्थित हैं। जाहिर है कि वह भी अपने विचार यहाँ रखना चाहते हों। तो आइए यह मंच सभी का स्वागत करता है। दो मिनट का समय सभी को मिलेगा।"
...." चाचीजी की बांछे खिल गयीं। तत्परता से वह उठ कर गयीं और अपना नाम लिखवा दिया। संचालक महोदय ने उन्हें बोलने की अनुमति दी तो उन्होंने कहा...साथियो!
हम स्वतंत्र भारत में रहते हैं तो हमारे देश की एक भाषा तो होनी ही चाहिए। हिंदी को हमारे मनीषियों ने बहुत सोच समझ कर ही राजभाषा चुना था। हमारा देश परम्परागत, सांस्कृतिक संस्कृति वाला देश है। हिंदी भाषा हमारे देश के भाल पर बिंदी के समान है। जैसे भारतीय नारी के मस्तक पर चंदन, रोली, कुमकुम, सिंदूर की छोटी-बड़ी बिंदियां शोभा देती हैं,वैसे ही अनेक बोली भाषाओं के होते हुए भी हिंदी आज सभी की जुबां पर शोभायमान है। यह हम सभी के लिए खुशी और गर्व की बात है। हम उस महान संस्कृति के देश के वासी हैं जहाँ बच्चे शेर के बच्चों के साथ खेला करते थे और उनके दांत गिना करते थे। हमारी कथाएं हमारी सांस्कृतिक विरासत हैं जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक हमें एक सूत्र में बांधने का काम करती हैं। जिस तरह से रामायण, गीता, महाभारत पूरे देश में पढ़ी जाती हैं, वैसे ही हिंदी भी हमको एक सूत्र में बांधने का कार्य करती है। शुक्रिया धन्यवाद।"
परम्परा और सांस्कृतिक विरासत से उन्हें अपना ध्यान आया तो उन्होंने कहा , भारत एक आस्था वादी देश है। यहाँ मनुष्य के साथ- साथ, प्रकृति,पशु,पक्षी सभी का समान आदर और महत्व है। समय कम है इसलिए मैं आपको अपने मंतव्य के पैम्पलेट दूँगी। आप अपने विचार फोन पर प्रेषित कर सकते हैं। धन्यवाद । मिलते हैं भोजन कक्ष में।
...." एक बढ़िया लंच का भी आयोजन किया गया था। सभी की प्रस्तुति समाप्त होने के बाद जलपान कक्ष में उपस्थित हुए थे सभी राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले। आपसी चर्चा में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के संदर्भ में पक्ष-विपक्ष में राय थी सभी की। बहुत से मंतव्य ऐसे भी थे जिनमें सभी राज्यों की स्थानीय भाषाओं को कोर्स में रखने के प्रस्ताव भी थे। कुल मिलाकर तबादला ए ख्यालात का केंद्र बिंदु बन गया था भोजन कक्ष। यहाँ प्रसिद्ध लेखिका सविता चढ़्ढा जी से मिलकर कुछ उनके पास चर्चा में मशगूल थे तो कोई अन्य साहित्यकारों के आटोग्राफ ले रहे थे। एक बड़े से हॉल में पुस्तकों की प्रदर्शनी भी लगाई गई थी। जिसमें प्रसिद्ध साहित्यकार और स्थानीय साहित्यकारों को भी समान रूप से जगह दी गयी थी।
हिंदी दिवस मना कर ठकुरानी साहिबा श्रीमती वाग्देवी शाम चार बजे घर वापस आ गईं। उन्होंने देखा कि उनके पति देव तो अभी घर पर ही है । अतः उन्होंने मीठे शब्दों में पूछा , " क्या आप बाबा जी से मिलने नहीं गए ?"
उन्होंने जवाब दिया ," जाऊँगा अभी शाम के पाँच बजे बुलाया है उन्होंने।"
इतना कहकर वह रसोई में गए और चाय का पानी गैस पर चढ़ा दिया। बढ़िया इलायची वाली चाय जिसमें दूध और चीनी अलग से मिलाया गया था, लेकर अपनी पत्नी जी से कहा," लीजिए शाम हो गई है , चाय पी लेते हैं।"
थोड़ी ना नकूर करने के बाद पत्नी जी ने कहा , " यह कार्य तो अंग्रेजी कल्चर का हिस्सा है जी ! हिंदी सभ्यता चाय बनाने का भार पत्नी पर डालती है। यद्यपि मैं चाय नाश्ता सभी कुछ करके आई हूँ। पर आपके हाथ से बनी हुई चाय का लोभ संवरण नहीं कर पाती । बड़ा अच्छा लगता है जब एक कप चाय या एक परांठा कोई बना कर दे। दिल से दुआ निकल रही है। लाइए पी ही लेते हैं । आइए आप भी बैठिए, पर समोसे की दुकान तो रास्ते मिली ही नहीं।"
...." कोई बात नहीं जी ! समोसा कोलस्ट्रॉल ही बढ़ाएगा। हमें अब हैल्थी फूड की ओर अपना रुझान करना होगा। जब भी इन रेस्टोरेंट और हलवाइयों की दुकानों के सामने से निकलें, ऐसे बिहेव करना है जैसे ये वहाँ हैं ही नहीं। इनविजिबल गेम जैसे बच्चे खेलते हैं। "
..." ठीक ही कह रहे हैं आप। अपनी गुड़िया का छुटकू भी यही कह रहा था, नानी ! मैंने इनविजिबल होना सीख लिया है।"
"पता है हिंदी में वह सामर्थ्य है जो किसी अन्य भाषा में नहीं है। "
"कैसी सामर्थ्य?"
"यही कि यह अपने अंदर हर भाषा को एडजस्ट कर लेती है।"
"आखिर भाषा किस देश की है ? अपने ही देश की ही तो ,जहाँ विविध संस्कृति निवास करती हैं।"
"सच अंग्रेजी में हिंदी के शब्द समाहित नहीं हो सकते ,मगर हिंदी में सब ऐसे मिल जाते हैं जैसे दूध में शक्कर,केसर ,बादाम....."
