हाथ की चाभी

हाथ की चाभी

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 "अरे सुमन ! तुम तो वीर को ऐसे नचाती हो मानो वह तुम्हारे हाथ की कठपुतली हो ।"

"और क्या !तुझे पहले ही कहा था, मुझसे सीख ले ।सीख लेती तो आज राकाश भी तेरे इशारों पर नाच रहा होता।"

" कोई बात नहीं। अब सिखा दे।" दोनों सहेलियाँ हँस पड़ी। तभी किसी के आने की आहट हुई। "बहू नाश्ता बन गया है! आ जाओ।"

" चलो लवली नाश्ता करते हैं।"

"अरे वाह सुमन !पूरा घर तुम्हारे मुट्ठी में है।" लवली ने सुमन के कान में धीरे से कहा।

" आगे आगे देखती जा।"सुमन ने धीरे से कहा।

" वीर कहाँ है बहू ?"

"वह लवली के लिए गिफ्ट लेने गए हैं।"

"बहू ! पहले बोलती मुझे भी अपना चश्मा बनवाना था।"

" मैं भी दे देती ।"

"अरे!आप तो काम कर ही ले रही हैं बिना चश्मे का। कौन सा आपको परीक्षा देने जाना है।"

 रमाजी चुपचाप अपने कमरे में चली गई ।सारे घर का काम वही सँभालती थी। पर किसी को उनकी मेहनत नहीं दिखती हो ।वह रोज उस दिन को कोसती जब अनिल जी उन्हें छोड़कर चले गए थे ।"मुझे भी साथ ले चलते। यहाँ क्यों छोड़ दिया ।जब बेटा ही अपना नहीं रहा तो बहू को क्या कहूँ ? सारा दिन काम करती हूँ, केवल दो बोल प्यार के सुनने के लिए तरस जाते हूँ ।"रमाजी अनिलजी की तस्वीर से बात कर रही थी।  "क्या माँ! किससे बातें कर रही हो?क्यों सुमन के लिए बुरा भला कह रही हो।"

" मेरी आँखों में तुझे आँसू नहीं दिखते बेटा जो तू सुमन की जी हुजूरी में लगा रहता है। मेरा चश्मा नहीं बनवा पा रहा और उसके दोस्त के लिए गिफ्ट लेने चला गया।"

" कल बनवा दूँगा माँ ! अब तो तुम चुप हो जाओ।"

 "बेटा भगवान ना करे राहुल तुझसे यह सब सीखे वरना तुझे भी एक दिन यही दिन देखना पड़ेगा ।जब तू चश्मे के लिए बोलेगा वह अपने दोस्तों के साथ घूमने चला जाएगा।तू तो अपनी पत्नी के हाथ की कठपुतली बनकर रह गया है। भगवान करे तेरी बहू ऐसी न हो।" वीर चुपचाप माँ को देखता रह गया।


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