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Ranjana Jaiswal

Tragedy

4  

Ranjana Jaiswal

Tragedy

हाँ, मैं भागी हुई स्त्री हूँ

हाँ, मैं भागी हुई स्त्री हूँ

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भूमिका—

आकाश गिद्धों से भरा हुआ था, यही समय था कि एक नन्हीं चिड़िया पिंजरा तोड़कर उड़ी थी। उसे नहीं पता था कि आसमान इतना असुरक्षित होगा। उसने तो सपनें में आसमान की नीलिमा देखी थी। ढेर सारे पक्षियों की चहचहाहटें सुनी थीं। शीतल , मंद पवन की शरारतें देखीं थी। स्वच्छ जल से भरा सरोवर देखा था और फर- फरकर करती हुई अपनी उड़ान देखी थी पर यथार्थ कितना भयावह था!कहां -कहां बचेगी और किस -किससे !वे आसमान से धरती तक फैले हुए हैं । कोई पंजा मारता है कोई चोंच । बचते- बचाते भी उसकी देह पर कुछ निशान बन ही जाते हैं । कैसे प्राण बचाए ?कैसे क्षितिज तक जाए ?कोई साथ नहीं, पर हौसला है.... हिम्मत है.... चाहत है। वह अकेले ही उड़ेंगी !गिध्दों से खुद को बचाते हुए उनसे भिड़कर तो आगे नहीं बढ़ सकती। वे सबल है, समूह में हैं, पूरे आकाश पर उनका कब्ज़ा है। क्षितिज तक पहुंचना आसान नहीं होगा , बिल्कुल आसान नहीं होगा पर चिड़िया हार नहीं मानेगी।

मैं भी हार नहीं मानूँगी, सारी प्रतिकूल स्थितियों का सामना करूँगी। जरूर करूंगी ...करूंगी ही।

मैं स्वप्न में बड़बड़ा रही थी। मैं ही नन्ही चिड़िया थी। गिद्धों से भरे आकाश में अकेले उनसे जूझती हुई। उनसे खुद को बचाते हुए......!

तभी माँ ने मुझे झकझोर कर जगा दिया।


(भाग -एक)

मैं भागी हुई स्त्री हूँ। मुझे आप गलत कह सकते हैं, पर मेरी कहानी तो सुन लीजिए फिर जो फैसला चाहे, कर लीजिएगा।

उसने आगे बढ़कर मेरे सिर को पकड़ लिया और उसे दीवार से टकरा दिया । मैं भी हाथ –पैर, मुंह सब चला रही थी पर प्रकृति -प्रदत्त शारीरिक ताकत के बल पर वह पशुता पर आमदा था। मेरे सिर से खून बह रहा था पर वह इसकी परवाह किए बिना मुझे पीटे जा रहा था। फिर उसने मेरे सिर को अपने घुटनों के बीच में दबा लिया और मेरी पीठ पर मुक्के मारने लगा। हर चोट के साथ मेरे मुंह से 'बाप' निकल जाता। मेरे फेफड़े कमजोर थे !अभी दो साल पहले मुझे खून की उल्टियाँ हुई थीं और पूरे एक साल इलाज चला था। उस समय तो वह मुझे 'टीबी' का मरीज कहकर माँ के घर छोड़ आया था। किसी तरह माँ ने मेरा इलाज कराया । भाई और बहन मुझे झिड़कते कि शादी के बाद भी मायके पर बोझ बनी हुई है , पर माँ तो माँ थी। अपना जेवर बेचकर मेरा इलाज कराती रही थी। बड़ी मुश्किल से मैं ठीक हुई। सूखी ठठरियों पर मांस आया। अब मैं ससुराल नहीं जाना चाहती थी। अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी करना चाहती थी। मैंने बी-एड का फार्म मंगा लिया था। जैसे ही उसे पता चला , वह मुझे लेने आ गया। मैं माँ के सामने गिड़गिड़ाई --माँ मुझे वहाँ मत भेजो । मैं वहाँ मर जाऊँगी। एक महीने में ही क्या हालत हो गयी थी मेरी !

पर उसने माँ को जाने क्या पटरी पढ़ाई थी कि माँ उसी के पक्ष में हो गयी। वैसे भी वह माँ का दुलारा दामाद था। माँ उससे अपने घर का सारा हाल बता देती थी। वह पूरे घर में यूं ही घूमता रहता था। उस रात को वह खा-पीकर सोया और सुबह माँ से बोला-मुझे जरूरी काम है । आप इसे बाद में किसी के साथ भिजवा दीजिएगा।

उसकी भलमनसाहत देखकर माँ पसीज गयी और उसके चले जाने के बाद मुझे ही कोसने लगी कि मैं सहनशील नहीं हूँ। मेरे मन में कुछ शंका हुई । मैं जल्दी से उस कमरे में गयी, जहां रात को वह सोया था। उसी कमरे में एक बक्सा था, जिसमें मेरे शैक्षिक सार्टिफिकेट रखे थे। बक्से में ताला नहीं लगा था। मैंने जाकर बक्सा खोला तो धक से रह गयी। मेरे सार्टिफिकेट वाली फाइल गायब थी। मैं चीख मारकर रोने लगी। माँ दौड़ी हुई आई और सच जानकर जमीन पर धम से बैठ गयी। उस समय मुझे नहीं पता था कि शैक्षिक सर्टिफिकेट दुबारा भी बन जाते हैं। अब क्या हो ?अब तो मैं बी एड नहीं कर पाऊँगी। माँ ने कहा--अब तुम्हें ससुराल जाना ही पड़ेगा। किसी तरह सारा सर्टिफिकेट वापस लाना होगा। माँ ने राय दी कि तुम भाई के साथ चली जाओ और मौका निकालकर भाई को सारे कागज दे देना । बाद में किसी बहाने तुम्हें बुला लूँगी।

वही करना पड़ा। मैं ससुराल पहुंची। संयोग से वह अपने कमरे में नहीं था। मैंने उसका सूटकेस खोला । फाइल ऊपर ही रखी हुई थी। मैंने भाई के झोले में वह फाइल डाली और उसे तुरत ही निकल जाने को कहा। भाई चला गया। थोड़ी देर बाद वह आया तो पहले तो मुझे आया देखकर खुश हुआ। प्यार से पूछने लगा –किसके साथ आई ?मैंने बताया भाई के साथ आई थी , पर उसे काम था , इसलिए पहुँचाकर चला गया।

-अच्छा किया जो अपने –आप आ गयी। मैं तो जाने वाला नहीं था, भले ही तुम्हें छोड़ना पड़ता।

मैं कुछ नहीं बोली और नहाने के लिए चली गयी। नहाकर कमरे में आई तो कमरा अस्त-व्यस्त था और पूरा सूटकेस उलटा पड़ा था।

'क्या हुआ’ –मैंने अनजान बनकर पूछा।

-खिलड़पन कर रही हो। इस सूटकेस में एक फाइल थी , वह कहाँ गई?

'मैं क्या जानूँ। मैं तो थोड़ी देर पहले ही आई हूँ। '

-तुमने अपने भाई को दे दिया न !और वह साला लेकर भाग गया।

'मैं क्यों दूँगी आपकी फाइल!'

-वह तुम्हारी फाइल थी!

'तो उसे आप चुरा लाए थे ?पर क्यों?'

-क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि तुम बी एड करो। मैं सिर्फ बी ए हूँ और तुम बी एड करोगी ...फिर नौकरी ...फिर दूसरी शादी...!

'क्या कह रहे हो तुम?'

- तुमने मुझे तुम कहा !तुम्हारी इतनी हिम्मत!

'माफ करिए । गलती से निकल गया। '

-तुमने बिना मेरी मर्जी के बी -एड का फार्म क्यों भरा ?मैंने बी. ए .के लिए भी मना किया था , पर अपनी छिनाल माँ के शह पर तुमने बी. ए. कर ही लिया। मेरे बराबर हो ही गयी । अब मुझसे आगे बढ़ना चाहती हो?

'तो मैं वहाँ खाली बैठकर क्या करती। आप नौकरी करिए, अपने साथ रखिए तो मैं पढ़ाई-लिखाई छोड़ दूँगी। '

-पर मैं तुम्हें यहाँ कैसे रख सकता हूँ ...पिता के भरोसे शादी की थी पर उन्हें लकवा मार गया। माँ दुकान न करती तो भूखों मर जाता।

'इसीलिए तो मैं चाहती थी कि बी एड कर लूँ । कोई नौकरी मिल जाएगी तो घर की स्थिति ठीक हो जाएगी। अगर इसके पहले आपकी नौकरी लग गयी तो फिर आप जैसा चाहिएगा, करूंगी। '

-यानि मेरी नौकरी नहीं है तो तू छिनरपन करेगी और अपनी माँ की तरह छिनार बनेगी?

'देखिए आप जरूरत से ज्यादा बोल रहे हैं। मैं यह सब नहीं सहूँगी। '

इसी बात पर लड़ाई शुरू हुई थी और उसने मुझे बहुत मारा। मैं पछता रही थी कि यहाँ लौटकर आई ही क्यों ?अब इस नरक से कैसे निकल पाऊँगी ?इसके घर में न खाने को है न पहनने को। घर में बिजली तक नहीं, फिर भी इसका गुरूर देखिए। पति है तो क्या मेरा भाग्य विधाता है?कितनी बेरहमी से मुझे मारा है इसने। बीमारी ठीक होने के बाद डॉक्टर ने कहा था कि मुझे सदमे और कमजोरी दोनों से बचना होगा क्योंकि बीमारी कभी भी वापस आ सकती है।

वह बेरोजगार था , इसलिए मैं चाहती थी कि मैं ही कोई नौकरी कर लूँ। हो सकता है कि पैसा आते ही हमारे रिश्ते मधुर हो जाएँ। मैं नहीं चाहती थी कि उससे अलग हो जाऊँ। मेरे मन में उसके प्रति कोई दुराग्रह नहीं था , पर वह मेरे पढ़ने के फैसले को जाने किस अर्थ में ले रहा था। जब मैंने बी ए में दाखिला लिया , तब भी उसने खूब हो-हल्ला मचाया। सारे रिश्तेदारों को इकट्ठा कर लिया। मुझे अपने घर ले जाने की जिद पर उतर आया। यह ले जाना सिर्फ इसलिए था कि मैं बी ए की परीक्षा न दे पाऊँ। बी ए प्रथम वर्ष बिना उसे बताए मैं पास कर चुकी थी। सबने मुझे समझाया कि किताबें साथ लेकर ससुराल चली जाओ , वही पढ़ती रहना और यहाँ आकर परीक्षा दे देना। मेरी इच्छा नहीं थी, पर मुझ पर इतना दवाब पड़ा कि मैं मान गयी। मान क्या गयी , मानना पड़ा क्योंकि माँ ने 'हाँ 'कर दी थी। मैं माँ के ही संबल पर पढ़ रही थी वरना पिताजी व भाई-बहनों में से कोई नहीं चाहता था कि मैं यहाँ रहूँ और पढूँ।

माँ भी डर गयी कि कहीं दामाद बेटी को छोड़ न दे। अभी माँ के सिर पर चार और बेटियों का बोझ था। उसने भी वादा किया कि वह मुझे परीक्षा दिलाने ले आएगा। मुझे जाने क्यों उसकी बात पर विश्वास नहीं हो रहा था , फिर भी मैं मन को मारकर उसके साथ चल दी थी। बस स्टेशन पर भी मेरे आंसू बहे जा रहे थे । अभी-अभी सभी लोग मुझे छोड़कर गए थे। मुझे रोते देखकर वह बोला--लात खाने के डर से रो रही हो न !घर चलो बताता हूँ। मैंने चौंककर उसे देखा तो वह मुस्कुराने लगा। मैंने इसे मज़ाक समझा । काश, मैंने उसके मुंह से अनायास निकल गए वाक्य की गंभीरता को समझ लिया होता और वहीं से वापस लौट गयी होती। मैंने सोचा कि अभी कुछ देर पहले तो वह मेरे घर वालों के सामने गिड़गिड़ा रहा था और सबको बता रहा था कि वह मुझसे कितना प्यार करता है। मेरे बिना नहीं रह पा रहा है, इसलिए साथ ले जा रहा है। इतना ही प्यार करता था तो फिर उसने चार साल से मुझे मैके क्यों छोड़ रखा था ?हाईस्कूल में शादी हुई थी , तब मैं खुद ही पढ़ना नहीं चाहती थी फिर उसने इंटरमीडिएट करने के लिए क्यों दबाव डाला ?मैके खाली बैठकर मैं क्या करती , इसलिए पढ़ाई में मन लगा लिया। इंटर तक उसे कोई एतराज नहीं था, फिर बी ए कर लेने से क्या परेशानी थी ?तर्क भी कितना मूर्खतापूर्ण था कि मैं बी ए कर रहा हूँ तुम भी कर लोगी, तो मेरे बराबर हो जाओगी। लोग क्या कहेंगे ?तुम पढ़ाई छोड़ दो , जब मैं नौकरी करने लगूँगा तो तुम्हें बी ए करा दूँगा।

मैं जानती थी कि पढ़ाई का सिलसिला एक बार टूटा तो फिर मैं नहीं पढ़ पाऊँगी। जब माँ के ही घर रहना है तो खाली बैठकर क्या करूंगी ?भाई-बहनों के तानों से वैसे ही मन खराब रहता है। मैंने उससे बिना पूछे बी. ए. प्रथम कर लिया तो वह जैसे मेरा दुश्मन हो गया। अपनी मर्जी से पढ़ना भी जैसे पाप हो। मैंने पढ़ने के सिवा और कोई गलत काम तो किया नहीं था। कभी उससे खर्च नहीं मांगा । कभी किसी बात के लिए ताना नहीं दिया। पूर्ण पतिव्रत -धर्म का पालन करती रही। पर पढ़ाई जारी रखकर मैं उसकी दृष्टि में ऐसी अपराधिनी बन गई थी, जिसे क्षमा नहीं किया जा सकता। एक स्त्री की यह मजाल कि पति की बात काटे , उसकी इच्छा का मान न रखे। इस अपराध के लिए उसे कोई भी सजा दी जा सकती है।

और वह मुझे सजा देता रहा। उसने मुझे अपनी माँ के मायके वाले घर रख दिया और खुद हॉस्टल चला गया। एक दिन मैंने उसे अपने माता-पिता से कहते सुना कि --इसे परीक्षा देने नहीं जाने देना है । इसकी माँ इस घर की हालत जानती है। वह इसे पढाकर नौकरी कराएगी और इसकी दूसरी शादी कर देगी।

मैं सातवें आसमान से गिरी। उसके इतनी गिरावट की मुझे उम्मीद नहीं थी। मैं एक सीधी-सादी, पढ़ाकू लड़की इतने वर्षों से सारे अभाव झेलकर भी अपने घर्म का पालन कर रही हूँ और यह मेरे प्रति ऐसे मनोभाव रखता है। आखिर क्यों ?किसी ने इसे भड़काया है या फिर यह सब इसके अपने मन की कुंठा है ?क्या अपनी हीनता को छुपाने के लिए वह यह सब कर रहा है।

मैं लगातार रोती रही। मेरा दिल टूट गया था। विश्वास की दीवार गिरकर मुझे ही घायल कर गयी थी। मैंने माँ को पत्र लिखकर इसकी मंशा बताई तो माँ ने आश्वासन दिया कि छल के बदले छल ही करना पड़ेगा। परीक्षा की तिथि निकट आते ही माँ ने अपनी गंभीर बीमारी का हवाला देते हुए मुझे बुला भेजा। पिता जी मुझे लेने आए और सास ने मुझे विदा कर दिया। ससुराल के दो-तीन महीने में ही मेरी हालत बहुत खराब हो चुकी थी। वहाँ के रहन-सहन, खान-पान और ऊपर से न पढ़ पाने के तनाव ने मुझे बीमार कर दिया था। माँ के घर आते ही मैं स्वस्थ हो गयी और परीक्षा की तैयारी करने लगी। जब उसे पता लगा तो दौड़ा आया और माँ से झगड़ने लगा। मेरी तो जैसे शामत ही आ गयी। किसी तरह समझा-बुझाकर मामला शांत किया गया। वह इस बात को कभी नहीं भूला कि माँ ने अपनी झूठी बीमारी का बहाना कर मुझे परीक्षा देने के लिए बुलाया था। उसके बाद से ही वह मुझ पर हमेशा उल्टा-सीधा इल्जाम लगाने लगा था। परीक्षा के बाद मुझे फिर अपने घर ले गया और इतना मानसिक उत्पीड़न किया कि एक महीने के भीतर ही मुझे खून की उल्टी हो गई। यह देखकर वह कहने लगा कि पढ़ने की वजह से ऐसा हुआ है। अब मैं इसको नहीं रखूँगा। उसने पिता जी को पत्र लिखा कि आकर मुझे ले जाएं।


बीमारी ठीक होने के बाद मैंने बी एड करना चाहा था , तो वह फिर नौटंकी करने आ गया।  आखिरकार मुझे उसके घर जाना ही पड़ा। जहां उसने मुझसे मार-पीट की। अब तो वह खुलेआम मेरी माँ को चरित्र-हीन और पिताजी को नामर्द कहने लगा था । माँ पछता रही थी कि क्यों बेटी की बात न मानकर उसे ससुराल भेज दिया ?बेटी से क्यों कहा कि एक बार और आजमा लो।

मैं तो पहले से ही इसे जानती थी। किसी को परखने के लिए स्त्री को इतना लंबा समय नहीं चाहिए होता है। यह स्वभाव से ही ऐसा है और स्वभाव नहीं बदलता। इसका पुरूष अहंकार इस पर इतना हावी है कि यह स्त्री को अपने पैर की जूती समझता है। ससुराल में पहली ही रात को इसने मुझसे यह कहकर अपना चरणामृत पीने को विवश किया था कि 'मैं तुम्हारा देवता हूँ । ' उसके मोजे उतारते ही बदबू का जो भभूका उठा कि मेरा मन मतला गया , पर क्या करती ?पहली रात थी और अनजान जगह। वह मुझ पर शासन करने लगा। अपना जूठन ही खिलाता-पिलाता। क्या मजाल कि मैं उससे पहले खा लूँ। वह आधी रात को भी लौटता तो मैं भूखी-प्यासी जागी रहती। मैं सोचती- क्या इसी का नाम विवाह है ?मैं प्यार की भूखी थी, पर यहाँ प्यार-व्यार कुछ न था। यह जब चाहता मुझे बाहों में समेटता , जब चाहे धकेलकर बाहर लगे दूसरे बिस्तर पर सो जाता । मैं रात भर जागती। मैं तन-मन दोनों से प्यासी रह जाती। वह रात को अक्सर मुझसे कटा-कटा रहता। इतना ही नहीं मुझे हर बात में जलील करता। यह शादी के शुरूवाती दिनों की बात थी।

इस बार उसने मुझे अपने घर में कैद कर लिया। पिताजी आए तो मिलने नहीं दिया। चिट्ठी-पत्री पर प्रतिबंध लगा दिया। माँ रोते -रोते परेशान थी कि बेटी के न चाहने पर भी दामाद पर विश्वास किया। उसको बेटे की तरह प्यार किया । विवाह के इतने वर्षों बाद तक उसकी पत्नी का भरण- पोषण किया। हारी-बीमारी में देखभाल की। पढ़ाया-लिखाया। उस एहसान का बदला उसने इस तरह लिया। बेटी को ठीक से रखता तो भी मंजूर था पर वह तो उसे खत्म कर देने पर ही तुला है।


मैं भी आखिर कब तक सहती?एक दिन मौका मिलते ही मैं उसका जेलखाना तोड़कर भाग आई। अब यह परम्परा, संस्कार और धर्म के खिलाफ तो है ही। आप मुझे गलत कहना चाहते हैं तो कह सकते हैं।

सच तो यही है कि मैं भागी हुई स्त्री हूँ।

 

[भाग दो ]

पति के घर से भागते समय मैंने यह नहीं सोचा था कि मैं एक बड़े संघर्ष -क्षेत्र में कूद रही हूँ। जहां अंततः अकेलापन ही मेरा साथी होगा, जहां अपयश के सिवा कुछ हाथ न आएगा। जहां किसी भी नजर में मेरे लिए सम्मान और प्यार नहीं होगा। सारे अपने पराए हो जाएंगे और पराए मुझे नोंच खाने की जुगत में रहेंगे और ऐसा न कर पाने पर मुझ पर लांछन लगायेंगे। शराफत का नकाब पहने लोग अपने घर की स्त्रियों को मुझसे दूर रखेंगे और अकेले में मिलने की मिन्नतें करेंगे। मेरे बारे में हजारों कहानियां गढ़ी जाएंगी। मेरे बारे में झूठी -सच्ची लाखों किंवदन्तियाँ होंगी।

इतनी सारी बातों को एक सीधी- सादी , भावुक , किताबी -कीड़ा रही अधमरी-सी सत्रह साल की लड़की कैसे सोचती?मैंने भी नहीं सोचा था। मैं तो इसलिए भागी कि मेरे सामने भागने के सिवा कोई रास्ता न था। मैं जीना चाहती थी और मेरा पति सीधे- सीधे एक बार में मुझे मार भी नहीं रहा था। मैं उसे प्रेम से , त्याग से, सोच -समझ से समझाकर हार गई थी। वह शायद नहीं चाहता था कि मैं उसके साथ रहूँ पर उस कायर में इतना साहस नहीं था कि मुझे छोड़ सके या तलाक दे सके। अगर वह मुझे रखना चाहता तो मुझे इतनी तकलीफें क्यों देता?वह मेरी इस कमजोरी को जानता था कि मैं अपने माँ -बाप के लिए गाली नहीं सुन सकती। वह जानता था कि मैं रूखी -सूखी खाकर जी सकती हूँ , पर अपमान सहकर नहीं जी सकती। वह मेंरे आत्मसम्मान को कुचल रहा था । घर के सामने की एक बदनाम औरत के कमरे में रात -भर सोता था। वह जानता था कि मैं ज्यादा दिन यह सब नहीं सह पाऊँगी और खुद कोई ऐसा कदम उठा लूंगी कि उसके सिर कोई अपयश नहीं आएगा। काश, वह यह बात मुझसे कह देता तो उसे इतना सब कुछ करने की जरूरत ही नहीं पड़ती । मैं उसे खुशी-खुशी मुक्त कर देती। वैसे भी मैं परित्यक्ता कहलाने की अपेक्षा पतित्यक्ता का इल्जाम लेने को तैयार थी और लिया भी। उसने रो- रोकर पूरे समाज से कहा--मेरी पत्नी भाग गई। उसने संसार से कहा कि मेरी पत्नी अपनी महत्वाकांक्षा के कारण मुझे छोड़ गयी। गांव -मुहल्ले, नात -रिश्तेदारों से कहा--अब मैं ऐसी पत्नी के साथ नहीं रहूँगा।

पर किसी ने भी उससे पलटकर नहीं पूछा कि क्या वह अपने किसी प्रेमी के साथ भागी?क्या वह दुश्चरित्र थी?जिसने अभी महानगर तक नहीं देखा , जिसकी जरूरतें जरूरत से ज्यादा कम रही हों । जो एक पढ़ाकू, सरल, सादगी- पसन्द , साधारण- सी घरेलू लड़की रही हो , वह एकाएक कैसे इतनी महत्वाकांक्षिणी हो गयी?क्यों पति के चरणोदक लेने वाली इस कदर बागी हो गयी कि पति का घर छोड़कर भाग गई।

कोई ये भी तो न कह सका कि इसे भागना न कहकर नाराजगी में माँ के घर चले जाना भी कह सकते हैं क्योंकि वह कहीं और या किसी और के साथ नहीं भागी थी।

पर भागने को इस रूप में लेने से भागने की गंभीरता कम हो जाती है, इसलिए उसने इस भागने का इतना दुष्प्रचार किया कि मैं फिर कभी वापसी के बारे में विचार भी न कर सकूँ। आखिर मैं किस मुँह से उसके घर , उसके उस समाज में वापसी कर सकती थी, जिसमें मेरी छवि एक भागी हुई स्त्री के रूप में बना दी गयी थी।

भागते वक्त की दहशत में भी मैं यह सोच रही थी कि मेरे लिए तड़प रही माँ मुझे अपने सीने से लगा लेगी । मेरे भाई- बहन आंखों में आंसू लिए मेरे इर्द -गिर्द होंगे। पड़ोसी और रिश्तेदारों के चेहरों पर इत्मीनान होगा कि सीता अशोक -वाटिका से वापस आ गई । सारे पहरेदारों को चकमा देकर , सारी जंजीरों को तोड़कर एक राक्षस के चंगुल से निकल आई । सभी मेरे साहस की सराहना करेंगे।

जब मैं रिक्शे से माँ के दरवाजे पर पहुंची तो बेसुध होते-होते देखा सब कुछ ठीक वैसे ही हो रहा है, जैसा मैंने सोचा था ।

पर क्या वह सच था? अगर सच था भी तो कितने दिनों का सच! और आगे कैसा भविष्य मेरे सामने आने को था!

आखिरकार मैं एक भागी हुई स्त्री थी ।


(भाग तीन)

आकाश गिद्धों से भरा हुआ था, यही समय था कि एक नन्हीं चिड़िया पिंजरा तोड़कर उड़ी थी। उसे नहीं पता था कि आसमान इतना असुरक्षित होगा। उसने तो सपनें में आसमान की नीलिमा देखी थी। ढेर सारे पक्षियों की चहचहाहटें सुनी थीं। शीतल , मंद पवन की शरारतें देखीं थी। स्वच्छ जल से भरा सरोवर देखा था और फर- फरकर करती हुई अपनी उड़ान देखी थी पर यथार्थ कितना भयावह था! कहां -कहां बचेगी और किस -किससे !वे आसमान से धरती तक फैले हुए हैं । कोई पंजा मारता है कोई चोंच । बचते- बचाते भी उसकी देह पर कुछ निशान बन ही जाते हैं । कैसे प्राण बचाए ?कैसे क्षितिज तक जाए ?कोई साथ नहीं, पर हौसला है.... हिम्मत है.... चाहत है। वह अकेले ही उड़ेंगी ! गिद्धों से खुद को बचाते हुए उनसे भिड़कर तो आगे नहीं बढ़ सकती। वे सबल है, समूह में हैं, पूरे आकाश पर उनका कब्ज़ा है। क्षितिज तक पहुंचना आसान नहीं होगा , बिल्कुल आसान नहीं होगा पर चिड़िया हार नहीं मानेगी।

मैं भी हार नहीं मानूँगी, सारी प्रतिकूल स्थितियों का सामना करूँगी। जरूर करूंगी ...करूंगी ही।

मैं स्वप्न में बड़बड़ा रही थी। मैं ही नन्ही चिड़िया थी। गिद्धों से भरे आकाश में अकेले उनसे जूझती हुई। उनसे खुद को बचाते हुए......!

तभी माँ ने मुझे झकझोर कर जगा दिया।

ससुराल से आने के बाद मेरी बदतर हालत देखकर संबको सहानुभूति हुई थी पर एक माह बीतते ही स्थिति बदलने लगी। छोटी बहनें बात-बेबात ताना देने लगीं। भाई गुस्से से देखते जैसे मैंने उनकी नाक कटा दी हो। एक माँ ही थी जो सब समझती थी पर कभी -कभी वह भी बहुत- कुछ सुना देती जैसे सारा दोष मेरा हो। माँ पर मेरे सिवा आठ बच्चों की जिम्मेदारी थी और आय का स्रोत मात्र एक चाय-मिठाई की दूकान ही थी। मैं बहुत कम में जीवन गुजार रही थी पर परिवार पर मेरा बोझ तो था ही । भाई -बहन सोचते थे कि उनका हक बांट रही हूँ। पिताजी तो कई बार मारने को हाथ उठा देते। कहते---‘क्या ससुराल में सहकर नहीं रह सकती थी?हाँ, छुट्टा घूमने की आजादी नहीं होगी न , इसलिए चली आई। ‘

मैं कैसे कहती कि दसवीं फेल लड़के से रिश्ता तय करते समय यह सब क्यों नहीं सोचा गया? क्यों नहीं सोचा गया कि वह लड़का अपनी पत्नी को अपने पास कैसे रखेगा, जो खुद मुहताज है और अभी दसवीं में पढ़ रहा है। उसे अपने पैरों पर खड़ा होने में वक्त तो लगेगा न!

तब तो झटपट स्वीकार लिया कि जब तक लड़का नहीं कमाएगा , तब तक हम लड़की को अपने पास रख लेंगे । उसकी पढ़ाई की ज़िम्मेदारी भी उठाएंगे। कोई लड़के का घर -परिवार तक देखने नहीं गया। देखा गया तो यह कि कम दहेज देना पड़ेगा। देखा गया कि लड़का देखने में हीरो जैसा है।

फिर अब यह सब मेरा भाग्य- दोष क्यों कहा जा रहा है? मैं तो शादी के लिए राजी भी नहीं थी । मैं पढ़ना चाहती थी पर मुझे इमोशनल ब्लैकमेल किया गया कि कम दहेज में लड़का मिल रहा है और अभी चार बहनें और ब्याहने को हैं। बोझ उतारने के चक्कर में और बोझ बढ़ा लिया गया तो इसमें मेरा क्या दोष!अब तो बेटी के अलावा दामाद भी महीने आकर यहीं पड़ा रहता है।

पर मेरे द्वारा यह सब कहने पर मेरी जुबान खींच ली जाती और धक्के मारकर इस घर से भी बाहर कर दिया जाता फिर अकेली जवान -जहान लड़की मैं कहां जाती ? सहने के सिवा क्या विकल्प था मेरे पास ?

सोचा कि फिर से पढ़ाई में मन लगा लूँ। बी.एड नहीं कर पाई तो एम ए ही कर लूं शायद कहीं प्राध्यापक बन जाऊं, पर मैं नहीं जानती थी कि नियति अभी मेरे साथ कोई और क्रूर खेल खेलना चाहती है।

मैं गर्भ से थी। पता लगते ही घर में जैसे भूचाल आ गया। एक और नया सदस्य..नया खर्च !


(भाग चार)

माँ परेशान थी कि ऐसी कमजोर हालत में मै बच्चे को जन्म कैसे दूँगी?डॉक्टर भी चिंतित थे। स्थिति यह थी कि या तो माँ बचेगी या फिर बच्चा। मैंने कह दिया कि मुझे बच्चा चाहिए। मेरी देह में एक नन्हा अस्तित्व पल रहा है, यह अहसास मुझमें नवजीवन का संचार कर रहा था। पति से दुखी होकर मेरे मन में बार -बार आत्मघात के विचार आते थे, जीना निस्सार लगता था। अब मुझे लगने लगा कि नहीं, मेरा जीवन भी सार्थक है। मै सृजन कर सकती हूँ। जो जीवन दे सकता है उसे मौत क्या डराएगी?मै बहुत खुश थी । मुझे पता था कि मुझे सिंगल मदर बनकर बच्चे को पालना पड़ेगा । तो क्या , मैं कर लूंगी। मुझमें जीजाबाई की आत्मा है । मै सीता की तरह अपने लव -कुश को पालूंगी।

घर वाले बिल्कुल नहीं चाहते थे कि यह बच्चा हो, पर डॉक्टर ने मेरे कमजोर शरीर को देखते हुए एबॉर्शन करने से मना कर दिया था। अब मुझे ज्यादा देखभाल और अच्छी खुराक की जरूरत थी। माँ ने मेरा साथ दिया। मैंने पाठ्य- पुस्तकें संदूक में बंद कर दी और धार्मिक पुस्तकें अपनी मेज पर सजा ली। रोज गीता का पाठ करती। इस बीच रामायण, महाभारत, वेद -पुराण सब पढ़ डाला । पूरे संयम-नियम से रहती। सुबह -शाम खूब भ्रमण करती

और खूब खाती। मुझे इतनी ज्यादा भूख लगती कि क्या बताऊँ। आसी -बासी, साग-पात जो भी मिलता खा लेती। उससे ही क्या तो रूप निखरा था , सेहत भी खूब अच्छी हो गयी थी। डॉक्टर और माँ दोनों खुश थे।

नौ महीने अपने गर्भस्त बच्चे के साथ जो दिन गुजरे, वह मेरे जीवन के सबसे सुंदर दिन थे। पति सूचना मिलने पर भी देखने नहीं आए ।

सचमुच मैंने सीता की तरह लव -कुश को जन्म दिया। इतने सुंदर , स्वस्थ बालक की जो देखे वही प्यार करे। माँ अब उन्हें संभाल रही थी। ससुराल से कोई मदद नहीं मिली, न कोई आया। रो -गाकर मां ही सब कुछ कर रही थी। भाई -बहन चिढ़े रहते। उनका हक जो बंट गया था। माँ का भी धैर्य कभी -कभी टूट जाता तो वह मेरी इज्जत उतार देती। कहती--'बच्चे मेरे भरोसे पैदा की है। भाग जाओ मेरे घर से। तुम्हारा जिंदगी भर का ठेका नहीं ले रखा है। अभागी है। क्यों नहीं पति को बुलाती, उससे खर्चा माँगती?'

मैं रोकर रह जाती । क्या करती !यह कह भी तो नहीं सकती थी कि शादी करते समय यह क्यों नहीं सोचा?मैं इतनी भारी बोझ थी कि लड़के के बारे में कुछ पता तक नहीं किया। बस सस्ता दूल्हा मिला, खरीद लिया। अब इसमें मेरा क्या कुसूर ?मै तो पढ़ना चाहती थी। मेरे सारे सपने तोड़ दिए गए। क्यों आखिर क्यों!

पर मैं चुप रहती थी क्योंकि माँ बहुत ही गुस्से वाली थी। वह कई बार मेरा टीन का छोटा- सा बक्सा सड़क पर फेंक चुकी थी। मेरे लिए एकमात्र आश्रय भी वही थी । गाली देती , कभी मारती भी, दिन -रात कोसती पर दुबारा जीवन भी तो उसी ने दिया था। मेरा तथा मेरे बच्चों परवरिश भी तो वही कर रही थी। दुधारू गाय की लात भी भली होती है।

बच्चों के छह महीने के होने के बाद पति के दर्शन हुए। फिर बीच -बीच में वे आते रहे। कुछ पैसे लेकर आते पर उसे मुझे नहीं देते। भाई -बहनों को मुर्गा -मीट खिलाते , उन्हें सिनेमा दिखाते और फिर मुस्कुराकर चल देते। मैं संकोच में कुछ माँग नहीं पाती थी। इस बात लिए भी माँ मेरी ही मलामत करती कि हराम का खाती हो उससे क्यों नहीं माँगती?

मैं उस बेरोजगार आदमी से कैसे कुछ मांगती, जो अपनी माँ की कमाई पर जी रहा था। जो इधर -उधर से उधार लेकर यहां आता था । जो अपने बच्चों को कपड़े तक दिलाने की हैसियत में नहीं था।

पर उसमें ऐंठ कम न थी.. घमंड भी बहुत था । वह मुझे नीचा दिखाने का एक भी अवसर नहीं छोड़ता था, पर मै जानती थी कि वह भीतर से कितना खोखला आदमी है।

पांच साल और गुजर गए। पति ने एक बार भी मुझे अपने घर ले जाने की बात नहीं की। बच्चों की स्कूल भेजने की उम्र हो रही थी। उनके अभाव मुझसे देखे नहीं जाते थे। एक -दो जोड़ी कपड़े ही उनके पास थे । उन्हें दूध भी नहीं मिल पाता था। मैं तो अभावों की अभ्यस्त थी । बड़ी दीदी आती तो अपनी पुरानी साड़ियाँ छोड़ जाती, वही पहनती। इधर भाई की शादी हो गयी थी और उसकी भी एक बच्ची हो गयी थी। भाई भी अभी पढ़ ही रहा था। मंझले भाई ने पिता की मिठाई की दुकान संभाल ली थी क्योंकि पिताजी बीमार होकर बिस्तर से आ लगे थे। दुकान से भाई की बेटी के लिए दूध आता। मेरे छोटे बेटे को दूध- रोटी पसन्द थी । भाई अपनी बेटी को जबरन दूध पिलाता और मेरे बेटे के लिए कहता---तू $ ले $ले$!जैसे किसी पप्पी को बुलाया जाता है। मेरा बच्चा दौड़ा हुआ जाता , तो दूध नहीं देता। मैं कमरे में छिपकर फूट- फूटकर रोती । मेरी कोख से पैदा होने के कारण मेरे बच्चे भी अभागे हो गए थे।


(भाग पाँच)

मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मैं दो बच्चों के साथ कहाँ जाऊँ ?क्या करूं! तभी ईश्वर की यह कृपा हुई कि कानपुर का एक लड़का मेरे कस्बे के स्टेट बैंक में नियुक्त हुआ। जाति से हरिजन होने के कारण उसे कहीं मकान नहीं मिल रहा था। उस समय जाति -पाति के बंधन और भी ज्यादा सख्त थे। मैंने माँ से कहा कि नीचे का कमरा दे देते हैं। पैसे की किल्लत भी है और कमरा खाली ही रहता है। जाति कोई उड़कर थोड़े सट जाएगा।

वह लड़का कमरे के एक कोने में ही बनाने- खाने को भी तैयार था। दिक्कत एक ही टॉयलेट होने की थी। मेरे घर में सदस्य संख्या अधिक थी। उसने कहा -मैं मैनेज कर लूंगा। कमरा उसे दे दिया गया।

मेरे भाई -बहन उस लड़के से दुर्व्यवहार करते । हर बात में उसे चमरिया कहते पर वह हँसता रहता। लगभग मेरी ही उम्र का था, पर उसके लंबे- चौड़े व्यक्तित्व के कारण मैं उसे भैया कहने लगी और बाकायदा राखी भी बांधने लगी थी। मेरा व्यवहार उनके प्रति भेद-भाव वाला नहीं था । वैसे भी मैं छूआछूत नहीं मानती थी। उनका भी मुझ पर स्नेह था । वे मुझसे सच्ची सहानुभूति रखते थे। एक दिन उन्होंने मुझसे कहा-तुम फिर से अपनी पढ़ाई शुरू क्यों नहीं करती ?अब तो बच्चे भी बड़े हो गए हैं।

'पर भैया पांच साल से मैंने कलम छुई भी नहीं है। अब कैसे पढ़ पाऊंगी?मेरे हाथ चलेंगे?'

-कोशिश करो, सब हो जाएगा।

'माँ अब पढ़ाएगी मुझे... खर्च कहां से आएगा?'

-मैं आंटी को समझाऊंगा...। कुछ मदद मैं भी कर दूँगा।

और सच ही माँ को उन्होंने मना लिया। माँ यह तो मान गयी कि कॉलेज के समय तक वह बच्चों को सम्भाल लेगी, पर यह भी कह दिया कि पढ़ाई के लिए पैसे उसके पास नहीं है। एडमिशन के लिए एक हजार रूपए की जरूरत थी, पर पैसा कहां से आये?हीरा भैया को भी वेतन का बड़ा हिस्सा अपने घर भेजना पड़ता था। मेरी छोटी बहन की शादी तय हो गयी थी, तो माँ उसके लिए दहेज जुटा रही थी। जेवर के नाम पर मेरे गले में डेढ़ तोले की सोने की जंजीर और कान में थोड़ी भारी बाली ही थी। मैंने माँ से कहा--जंजीर को बंधक रख देती हूँ।

माँ बोली --छुड़ा पाओगी?पता लगा ब्याज में ही निकल गया।

ऐसा करो कि उसे बेच दो।

मैंने मायूसी से कहा-चलो सुनार के पास चलते हैं ।

तो माँ बोली—मुझसे ही बेच दो। छोटी बहन को दहेज में जंजीर देनी है । इसे ही दे दूँगी।

मरता क्या न करता। माँ ने मेरे डेढ़ तोले की जंजीर मात्र एक हजार में ले ली। मैंने एम. ए. में दाखिला ले लिया। जब मैं कॉलेज पहुँची तो मेरे प्राध्यापक चकित रह गए। बी. ए. करने के पांच साल बाद मैं कॉलेज आई थी।

हिंदी के प्राध्यापक केशव बिहारी सर ने कहा--यहां तो यह खबर उड़ी थी कि तुमने आत्महत्या कर ली है। बहुत खुशी हो रही है तुम्हें फिर से कॉलेज में देखकर । मैंने मन में कहा-- 'और कोई लड़की मेरी जगह होती तो आत्महत्या कर ही लेती पर मैं तो बेहया हूँ । '

सर ने मुझे अपने घर आने को कहा। वे मेरे बारे में सब कुछ जानना चाहते थे। मैं शुरू से ही मेधावी छात्रा रही थी। साहित्यिक /सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी मेरी भागीदारिता खूब रहती थी, इसलिए कॉलेज में मेरी एक अलग पहचान थी।

मैं अपने दोनों बच्चों के साथ सर के घर गयी। पूरी कहानी सुनाई तो उनकी पत्नी रोने लगीं। उन लोगों ने हर तरह से मेरी मदद का वादा किया। मेरी फीस माफ हो गयी। किताब- कापियाँ सब फ्री ही मिली। अब मुझे सिर्फ पढ़ना था, पर वह इतना आसान भी नहीं था। पाँच साल तक कलम न छूने का परिणाम था कि मेरे हाथ ही नहीं चलते थे। उधर कक्षा के सारे विद्यार्थियों को भी मुझसे एडजस्ट करने में प्रॉब्लम होती थी। उनसे पाँच साल बड़ी थी और सर लोग कुछ ज्यादा ही मेरा गुणगान करते थे, इसलिए भी वे मुझे पसंद नहीं करते थे । खैर कालेज में धीरे -धीरे सब नार्मल होता गया, पर घर पर सब -कुछ गड़बड़ था। पिताजी, भाई- बहन सब मेरी पढ़ाई के खिलाफ़ थे। माँ के साथ देने से वे कुछ कर नहीं पाते थे, पर माँ भी कभी -कभी अपने पर आ जाती। ज्यों ही मैं कालेज से लौटती । मुझे खाना -पानी की जगह गालियां मिलती।

‘इन नमकहरामों को मेरे भरोसे पैदा की हो क्या?’

 माँ चिल्लाती तो बच्चे सहमकर मुझसे चिपक जाते। मैं उन्हें झूठ -मूठ का डाँटती--नानी को बहुत परेशान किया न, जाओ किस्सी देकर माफी माँगो। बच्चे माँ का पल्लू पकड़कर नानी- नानी करते तो माँ पिघल जाती। माँ भी क्या करती !पहले अपने नौ बच्चों को पाला । अब तीन और बच्चों को पाल रही थी दो मेरे बेटे एक भाई की लड़की ।

घर में मेरे लिए कोई कमरा नहीं था । बरामदे में एक खाट पर मैं दोनों बच्चों के साथ सोती थी। दोनों बच्चे मेरी दोनों बाहों पर ही सो पाते थे। उनको सुलाने के बाद लालटेन जलाकर मैं देर रात तक पढ़ती। बच्चों के जागते भर पढ़ना मुश्किल था।

इधर जब मेरे पति को पता चला कि मैंने कॉलेज में एडमिशन ले लिया है तो बौखला कर आए ।

मुझसे बोले--किससे पूछकर पढ़ रही हो?मैं बीए हूँ ..तुम एम. ए. करोगी ?मुझे नीचा दिखाना चाहती हो?एक बार मेरे घर से भागकर नीचा दिखाया, अब पढ़कर नीचा दिखाना चाहती हो । मैं बी एड कर रहा हूँ! सोर्स लगाया हूँ । नौकरी मिल जाएगी। फिर घर ले चलूँगा। कल से कॉलेज नहीं जाना है।

मैंने कहा--ये संभव नहीं । बहुत मेहनत की है। परीक्षा दे लेने दीजिए।

'नहीं मानोगी तो पछताओगी जिंदगी भर , कहे देता हूँ। '

इतना कहकर वे गुस्से से चले गए। माँ से कहने की हिम्मत नहीं हुई तो पास -पड़ोस और नात-रिश्तेदारों से दबाव दिलवाने लगे कि मैं पढ़ाई छोड़ दूं, पर मैं फैसला कर चुकी थी।


(भाग छह)

मेरी पढ़ाई छुड़ाने के लिए पतिदेव ने सारे जतन कर डाले। पड़ोसियों, रिश्तेदारों सबसे दबाव डलवाया। मेरे घर आना- जाना बंद कर दिया1 । कुछ दूरी पर किराए का कमरा ले लिया। उसी में मीट की दावत देते। मेरे चटोरे भाई- बहन जाकर खा आते पर माँ और मैं कभी नहीं गए। पति बच्चों से मिलने घर के बाहर आते तो मैं उन्हें नहीं रोकती। वे घर के बाहर ही उन्हें लेकर बैठते या आस -आस घुमाते , बतियाते, फिर चले जाते। मैं बच्चों के मन में उनके पिता के लिए कोई गलत भावना नहीं भरना चाहती थी। उनके बीच कोई दूरी नहीं लाना चाहती थी। जाने क्यों मुझे अब भी विश्वास था कि मेरी पढ़ाई खत्म होते ही सब कुछ ठीक हो जाएगा पर मैं गलत थी। वे बच्चों के मन में मेरे खिलाफ़ जहर भर रहे थे। बड़ा बेटा बिल्कुल उन्हीं पर गया था। छोटा स्वभाव से मेरे जैसा था। एक दिन जब बच्चों को सुलाकर मैं पढ़ने बैठी तो बड़ा बेटा आदेश उठकर बैठ गया। अपनी नन्हीं बाहों को अपने सीने पर बाँधकर गुस्से से बोला--क्यों पढ़ रही हो , जब पापा मना करते हैं?

मैं उसका चेहरा देखती रह गयी। माँ ने तो उसी दिन भविष्यवाणी कर दी कि ये लड़का तुम्हारा नहीं होगा। पिता साँप है तो यह संपोला।

मैं सोचने लगी कि क्या बच्चों को पिता से मिलने देकर मैं कोई गलती कर रही हूँ ?यह कैसा आदमी है जो नन्हे बच्चों के दिमाग में भी ज़हर बो रहा है।

पति ने एक पड़ोसी से कहा भी था कि समय का इंतजार कर रहा हूँ। बस बच्चे पांच साल के हो जाएं।

इसके बाद वे क्या करेंगे, इसके बारे में मैंने कुछ सोचा ही नहीं । मैं अपनी पढ़ाई में लगी हुई थी।

और उस दिन मेरा आखिरी पेपर था। मैं परीक्षा देकर थोड़ी देर से लौटी। सभी सहपाठियों ने चाय -पार्टी अरेंज की थी। मैं बहुत खुश थी कि अब नई जिंदगी होगी। प्रथम श्रेणी आ ही जाएगी और कहीं लेक्चरर हो जाऊँगी। फिर पति बच्चों के साथ आनंद पूर्वक जीवन बिताऊँगी, पर मेरा दुर्भाग्य मेरे इंतजार में था ।

घर लौटी तो बच्चे नहीं दिखे । मैंने माँ से पूछा तो वह बोली कि उनका पिता घूमाने ले गया है। घर आया था बहुत रोया , मांफी मांगी। खाना खाकर थोड़ी देर आराम किया फिर बच्चों को बाज़ार ले गया है।

मेरे मुँह से अकस्मात निकला--अब बच्चे नहीं आएंगे। वह उन्हें लेकर भाग गया होगा माँ।

माँ ने मुझे गाली देते हुए कहा--बहुत घमंडी हो तुम। वह मर्द होकर झुक गया और तुम्हें उस पर विश्वास तक नहीं है। अभी आता होगा।

मैं धम से वहीं ज़मीन पर बैठ गयी। ऐसा लग रहा था कि किसी ने मेरे कलेजे को मुट्ठियों में लेकर भींच लिया है। मन से बार- बार यही आवाज आ रही थी कि अब बच्चे नहीं आएंगे।

मैं उस आदमी को जानती थी। उसने मुझे तकलीफ देने का कोई अवसर नहीं छोड़ा था। बच्चे पांच साल पूरा कर चुके थे।

बच्चे नहीं लौटे। मेरी आशंका निर्मूल नहीं थी। वह उन्हें लेकर अपने घर बिहार भाग गया था। मेरी बांहों से मेरे बच्चों को वह छीन ले गया था। अब मैं कैसे जीऊँगी?

अगर मैं वहाँ गयी तो भी वह मुझे मार डालेगा। गिन -गिनकर बदला लेगा। वह मेरा चेहरा जला सकता है, अपाहिज कर सकता है।

उसके लिए मैं सिर्फ एक भागी हुई स्त्री हूँ।


(भाग--सात)

माँ ने तत्काल बिहार जाना मुनासिब नहीं समझा। उसने मुझे समझाया कि चिंता की कोई बात नहीं है। आखिर बच्चे अपने पिता के घर ही गए हैं । वहाँ उनके ताई- ताया हैं , दादी है। एक पूरा समाज है उनको किसी प्रकार का कष्ट नहीं होगा। एक हफ्ते बाद जाकर मिलने से बात बनेगी। तत्काल जाने पर वे लोग सतर्क हो जाएंगे।

उस एक सप्ताह मैं हर पल मरती रही।

उस समय यूपी से बिहार जाना आसान भी नहीं था । दोनों के बीच में एक बड़ी नदी थी, जिसे नाव से पार करना होता था, फिर बस का सफ़र। माँ अकेली ही यात्रा की कठिनाइयों से जूझती बच्चों तक पहुंची थी। जब वह किसी से घर का पता पूछ रही थी। पति को उसके आने का पता चल गया । वह अपनी माँ को हिदायत देकर गायब हो गया। बुढ़िया सास ने बच्चों को बड़े जँगले वाले एकमात्र कमरे में बंद कर बाहर से ताला लगा दिया और खुद भी कहीं चली गयी। भूखी -प्यासी , यात्रा से हलकान माँ वहां पहुँचकर जँगले के बाहर से ही बच्चों से मिल सकी। उधर बच्चे रो रहे थे इधर माँ। छोटा आयुष माँ से ज्यादा हिला था, वह उसकी गोद में आने के लिए रो रहा था।

माँ ने पूछा-क्या खाओगे?तो वह बोला--रोटी है?

उसे रोटी पसन्द थी और लगभग अंधी सास सिर्फ भात पका पाती थी।

माँ खूब रोई । बच्चों को बिस्कुट, मिठाई दी और देर शाम तक सास के आने का इंतजार किया। सास आई तो भीतर जाकर सिटकनी चढ़ा ली। फिर जंगले से ही बोली--बबुआ मना किया है बच्चों से मिलने देने के लिए। कहीं लेकर भाग गयीं तो!अपनी बेटी को संस्कार नहीं दे पाईं तो भुगतिए।

और शेरनी- सी मेरी मां मुँह पिटाकर वापस आ गयी। उसे सदमा लगा था कि जिस दामाद को बेटा समझती रही, उसी ने उन्हें इतना बड़ा धोखा दिया।

माँ ने घर आकर जब यह सब बताया, तो मैंने लम्बी साँस लेकर कहा -मुझे इसका पूर्वानुमान था। फिर मैं छत पर चली गयी। मुझे खूब रोना आ रहा था। मेरा बच्चा रोटी मांग रहा था, यह बात मैं कभी भूल नहीं पाई। मेरे बच्चों को झूठे अहंकार में मोहरा बना लिया गया। उनके नन्हे कंधों पर बंदूक रखकर मुझे हताहत किया जा रहा है। मेरे दिल से आह निकली-‘धिक्कार है पुरूष कहलाने वाले जीव तुमको। एक माँ से बच्चों को अलग किया तुमने! तुम्हें ईश्वर कभी माफ नहीं करेगा। यदि वह माफ़ कर भी दे तो मैं कभी नहीं करूंगी ...कभी नहीं । तुम बच्चों को इसलिए नहीं ले गए कि तुम्हें उनसे प्यार था, तुमने मुझे तोड़ने के लिए ऐसा किया। मुझे वापस लाकर मार देने के लिए ऐसा किया। धिक्कार है तुमको कि तुमने यह नीच हथकंडा अपनाया। ‘

अभी मेरे लघुशोध का बाइबा होना था, पर मेरा पढ़ने में ध्यान ही नहीं था। छत के एक कोने को मैंने अपना साथी बना लिया था। वहीं किताबें लेकर बैठी रहती और रोती रहती। घर में माँ के अलावा कोई मेरा दुःख नहीं समझता था। पड़ोसी और रिश्तेदार मुझे बच्चों के पास चले जाने का सुझाव दे रहे थे, पर इसके लिए मैं हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी। वहां कौन मेरे पक्ष या सुरक्षा में खड़ा होगा। बच्चे भी अभी छोटे हैं। पति ने वहाँ चारों तरफ़ मेरे खिलाफ़ वातावरण तैयार कर लिया होगा। लंका में सीता की तरह मुझे जीना होगा पर कोई राम मेरे उद्धार के लिए नहीं आएगा। यहाँ भाई -बहन नासमझ हैं, हालात नहीं समझ सकते पर यहाँ मैं सुरक्षित तो हूँ ही । फिर यहाँ माँ भी तो साथ है।

हीरा भैया का तबादला दूसरे शहर हो गया था । जाते समय वे मेरे लिए कई जरूरी सामान (मेरे अभावों को देखते हुए) छोड़ गए थे, पर उस पर भाई ने कब्ज़ा कर लिया। मैंने दबी जुबान में माँ से शिकायत की , तो माँ का एक नया ही रूप दिखाई पड़ा। उसने कहा--लोगों से बताऊँ कि वह तुम्हारे लिए सामान छोड़ गया है । लोग तुम पर थूकेंगे कि एक जवान लड़की की वह क्यों मदद कर रहा था?

मैं छत जाकर भोंकार पार कर रोई कि मेरी मां ही मुझे ब्लैकमेल कर रही है। वह अच्छी तरह जानती है कि हम दोनों में भाई-बहन जैसा रिश्ता है फिर भी। पहली बार मेरी माँ ने मेरे चरित्र पर प्रश्न उठाया, वह भी सिर्फ मुझे दबाने के लिए। ये काम तो पति ने भी नहीं किया था। उसने कभी मेरे चरित्र पर अंगुली नहीं उठाई थी। भैया काफी समय तक मेरे लिए पैसे भेजते रहे पर माँ ने सब अपने कब्जे में कर लिया।

इधर कालेज में मेरे गाइड और विभागाध्यक्ष में खुन्नस चल रही थी जिसके कारण वाइबा में मुझे दो नम्बर कम मिला और मात्र दो नम्बर से मेरा प्रथम श्रेणी रूक गया और साथ ही मेरे लेक्चरर बनाने की उम्मीद भी टूट गयी। अब लेक्चरर बनने के लिए पी एच डी करना अनिवार्य था और इसके लिए शहर के विश्वविद्यालय जाना पड़ता। मैं कभी शहर नहीं गयी थी। कोई साथ देने वाला नहीं था और सबसे बड़ी रूकावट तो आर्थिक थी।

उसी बीच खबर मिली कि बच्चों की परवरिश के बहाने पति ने एक निस्संतान विधवा से विवाह कर लिया है।

वह मुझे जलाने के उद्देश्य से इस बात का प्रचार कर रहा था कि वह स्त्री उम्र में मुझसे छोटी है साथ ही बीए पास भी है। मैं सोच रही थी कि उस लड़की के माँ-बाप कितने गरीब और मजबूर हैं कि दो बच्चों के पिता से उसका विवाह कर दिया है । अभी हमारा तलाक नहीं हुआ था और पति ने यह हिम्मत दिखा दी। वह जानता था कि मेरे साथ कोई नहीं । मैं उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाऊँगी। बच्चों के मामले में ही मैं क्या कर पाई थी?मुझे उसकी शादी का उतना दुख नहीं था , जितना इस बात की चिंता थी कि अब वह बच्चों पर पूरा ध्यान नहीं दे पाएगा। इधर- उधर से खबर मिलती रहती थी कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं, अच्छी तरह से हैं। कोई उनसे उनकी माँ के बारे में पूछता है तो कहते हैं --मेरी माँ मर गयी है।

शुरू में यह बात सुनकर मैं खूब रोती थी कि बच्चे मुझे मरा हुआ समझते हैं । फिर खुद को समझा लिया कि इस तरह उन्हें मुझे भूलने में आसानी होगी और वे सौतेली माँ को अपना लेंगे। पता चला कि वह औरत अच्छी है और बच्चों का ध्यान रखती है। बच्चे उसी को अपनी माँ समझने लगे हैं। कुछ लोगों ने कहा कि मुझे मुकदमा करके पति को जेल भिजवाना चाहिए पर बच्चों का ध्यान रखकर मैंने ऐसा कुछ नहीं किया। मेरे पास रहकर बच्चों को क्या मिलेगा?अभी तो मैं आत्मनिर्भर भी नहीं हुई हूँ। इस घर में उनकी कितनी उपेक्षा होती थी। छोटी से छोटी चीज के लिए भी तरसा करते थे। पिता के घर पर तो उनका अधिकार है। दिखावा-पसन्द उनका पिता समाज को दिखाने के लिए ही सही, उनका ध्यान रखेगा । वरना समाज कहेगा कि माँ से अलग किया तो बेहतर तरीके से क्यों नहीं रखते!

कुछ दिन बाद पता चला कि उसने जुगाड़ लगाकर सरकारी नौकरी पा ली है। सरकारी स्कूल का टीचर बन गया है। आत्मनिर्भर होने से पहले ही विवाह करके उसने मेरे वापस लौटने के सारे रास्ते बंद कर दिए थे। वैसे भी वह मेरी वापसी नहीं चाहता था। यदि चाहता तो बच्चों को लेकर नहीं भागता। वह सिर्फ मुझे मेरे भागने की सजा देना चाहता था। अपनी बात न मानने का परिणाम दिखाना चाहता था। उसने वही किया जो उसके जैसे कमजोर पुरुष करते हैं--दूसरा विवाह! एक स्त्री को इससे बड़ा दंड और क्या दिया जा सकता है!

मैंने अपने दिल को समझा लिया कि जब बच्चे बड़े होंगे , तब कोई भी उन्हें कैद करके नहीं रख पाएगा। वे अपनी माँ को ढूंढ ही लेंगे। मैंने ईश्वर और भाग्य के भरोसे अपने हृदय पर पत्थर रख लिया।

अब अगला कदम अपनी आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ना था। एक नए संघर्ष में उतरना था।


(भाग आठ)

संघर्ष ही जीवन है-यह मानते हुए मैं आगे बढ़ती गई। छोटे-बड़े स्कूलों में नौकरी की, ट्यूशनें की। घर छोड़कर शहर आ गयी। किराए के मकानों में रही। बहुत -कुछ झेला, गिरी- उठी , हारी- जीती पर आखिरकार पी- एच॰ डी कर ही लिया। यह अलग बात है कि शिक्षा -क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के चलते विश्वविद्यालय में लेक्चरर न बन सकी। एक मिशनरी कॉलेज में नौकरी मिली और उसी में नौकरी करते ही रिटायरमेंट की उम्र तक पहुंच गई । वहाँ जो -जो सहा, वह ‘मार खा रोई नहीं’शीर्षक से दूसरे खंड में लिखूंगी।  

अभी सिर्फ अपने बच्चों की बात करूंगी।

बीस वर्ष गुजर गए थे । बच्चों की शक्ल भी न देख पाई थी। कभी- कभार उड़ती हुई उनकी कोई खबर मुझ तक आ जाती। पता चला छोटे आयुष ने इंटरमीडिएट करते ही वायु सेना में नौकरी पा ली है और बड़ा आदेश दिल्ली में आई. ए. एस की तैयारी कर रहा है। संतोष हुआ कि बच्चे सही दिशा में आगे बढ़ निकले।

एक दिन अचानक दिल्ली से एक फोन आया। उधर से पंजाबी टोन में किसी लड़के की आवाज़ थी। मैंने तुरत पहचान लिया कि वह मेरा बेटा ही है। उसने बताया कि वह मुझसे मिलने आएगा। उसकी टीचर मेरी ही हमनाम थीं। उन्होंने ही उसे परामर्श दिया कि उसे खुद जाकर अपनी माँ से मिलकर सारी हकीकत जाननी चाहिए । मेरा पता उसे मेरी एक बहन से मिल गया था, जो लखनऊ में रहती थी।

मेरे शांत जीवन में जैसे किसी ने कंकड़ फेंक दिया हो। शहर में लोगों के अनावश्यक प्रश्नों से बचने के लिए मैंने किसी को अपना अतीत नहीं बताया था। लोग अटकलें लगाते थे पर मुझसे सीधे पूछने से डरते थे। अब मैं व्यवस्थित हो चली थी। एक छोटा- सा अपना घर था। प्राइवेट ही सही अच्छी नौकरी थी। मान- सम्मान था, एक प्रतिष्ठा थी। मैं सोचने लगी कि अगर कॉलोनी वालों से आदेश का परिचय अपने बेटे के रूप में दूँगी तो भूचाल आ जाएगा। इस बार नहीं बताती हूँ। जब वह बराबर आने -जाने लगेगा तब सबको बता दूँगी। कोई कर ही क्या लेगा?आखिरकार जायज़ बेटा है। आज मुझे अपने उन मित्रों पर कोफ़्त हो रही थी , जिन्होंने मुझे अतीत छिपाकर शहर में रहने की सलाह दी थी । वैसे उनकी भी मंशा गलत नहीं थी। सभ्य समाज में परित्यक्ता या भागी हुई स्त्री की छवि के साथ जीना आसान नहीं है ।

बेटे को लेने स्टेशन पर पहुँची तो समझ नहीं आ रहा था कि उसे पहचानूंगी कैसे ?पाँच साल की उम्र का खूब तंदरूस्त बेटा अब जाने कैसा दिखता होगा?ट्रेन प्लेटफार्म पर आ चुकी थी। मैं इधर -उधर देख रही थी कि अचानक एक दुबले -पतले , लंबे लड़के ने आकर मुझे गले लगा लिया। मैं भीतर तक भींग गयी। बेटा इतना बड़ा हो गया!उसका चेहरा पिता पर ही पड़ा था पर बाल और ठुड्डी मेरे जैसे थे । वह दिल्ली में रहने के कारण बहुत बिंदास था। जबकि मैं शहर में रहने के बाद भी काफी संकोची थी। उसका हाथ पकड़कर चलना, बात- बात पर गले लगाना मुझे थोड़ा अटपटा लग रहा था। वह बातूनी भी बहुत था।

घर आकर भी वह लगातार बोलता रहा। अपनी पढ़ाई, गर्लफ्रेंड, दिल्ली शहर के बारे में तमाम बातें बताता रहा। रात को मेरे गले में बाहें डालकर सो गया पर मैं जागती रही। मेरा दिमाग जैसे शून्य हो गया था। आगे की दिशा मैं तय नहीं कर पा रही थी ।

पर दूसरे दिन से ही उसका रंग बदलने लगा । वह मेरी हर चीज में कमी निकालने लगा। मेरे सोने -जागने, पढ़ने- लिखने और सारी दिनचर्या की तुलना अपनी सौतेली माँ से करने लगा। प्रकारांतर से उसे श्रेष्ठ साबित करने की कोशिश भी कर रहा था ।

मैं चुपचाप सब सुन रही थी । मेरा बेटा बीस साल के बनवास के बाद लौटा है । मैं उसे दुबारा खोना नहीं चाहती थी। लेकिन जब उसने मुझसे कहा कि आप हमें जन्म देने के कुछ दिन बाद ही अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए पति के घर से क्यों भाग गईं? बताइए मिला क्या आपको? यही प्राइवेट नौकरी, साधारण, असामाजिक जीवन और अकेलापन!

तब मुझे लगा कि कि ये डायलाग तो इसके पिता के हैं !तो क्या उसने ही प्लान करके बेटे को मेरे पास भेजा है? मेरी माँ ने तो बेटे के आने की खबर सुनते ही कहा था कि वही भेज रहा होगा ताकि तुम्हारा चैन -सुकून , इज्जत -प्रतिष्ठा सबको खाक में मिला सके। साथ ही तुम्हारी कमाई हुई संपत्ति पर भी कब्ज़ा जमा सके। देख लेना , पहले बेटा आएगा फिर पिता और पूरे शहर में घूम- घूमकर तुम्हारी बुराई करेगा। ‘भागी हुई स्त्री’ के रूप में बदनाम करेगा। सावधान हो जाओ !बेटे को घर पर मत बुलाओ। बाहर जाकर मिल लो और वहीं से विदा कर दो। जब बच्चों को तुम्हारी जरूरत थी , तब उन्होंने पिता से क्यों नहीं जिद की कि माँ के पास जाएंगे। वे अड़ जाते तो उसे पहुंचाना ही पड़ता। अब बीस साल बाद एकाएक उन्हें माँ की याद क्यों आ गयी? साजिश है साजिश!

माँ की बात गलत नहीं थी। उन्हें जीवन का अनुभव था पर मैं बेटे से मिलने के लिए कोई भी रिस्क उठाने को तैयार थी।

मैंने बेटे को शुरू से अंत तक सारी बातें बताई । वह ध्यान से सुनता रहा फिर अपने पिता की ही तरह व्यंग्य से मुस्कुराता हुआ बोला--पापा ठीक कहते हैं आप अच्छी कहानी गढ़ लेती हैं।

मैं बेटे का मुंह देखती रह गयी। मेरी सारी व्यथा को उसने मात्र कहानी समझ लिया।

वह चार दिन मेरे पास रहा और फिर वापस जाने को तैयार हो गया कि पहले पिता के घर जाएगा फिर वहीं से दिल्ली। चार दिनों में ही ज़ब्त करते -करते मेरा चेहरा सूख गया था । मैं बरसों की बीमार लगने लगी थी ।

एक दिन किसी काम से बाहर निकली तो पड़ोसन ने पूछ लिया --कौन लड़का आपके यहाँ आया है?आपसे चेहरा मिलता है। मैंने कह दिया -बहन का बेटा है। मैंने गोद लिया है। दिल्ली में पढ़ता है।

हमारे बीच की बातें बेटे ने सुन ली थीं । वह अनमना दिखा। मैंने उसे समझा दिया कि इतना बड़ा सच लोग एकाएक हजम नहीं कर पाएंगे।

वह कुछ नहीं बोला।  

उसने मुझे बताया था कि वह पिता को बिना बताए मुझसे मिलने आया है। वे उसे कभी यहाँ नहीं आने देते। मम्मी(सौतेली माँ) भी बुरा मान जातीं। आखिर उन्हीं ने तो पाला है। गीले में रहकर सूखे में सुलाया। टट्टी- पेशाब साफ किया।  

अब मैं कैसे बताती कि यह सब तो मैंने किया। उस उम्र को पार करने के बाद ही उन्हें उसका पिता ले गया था। मुझसे बच्चे पैदा करवा लिया , समझदार होने तक पलवा लिया फिर मालिक बन बैठा।

मैं देख रही थी कि बेटे को मुझसे कोई सहानुभूति नहीं है। वह बार- बार अहसान जता रहा है कि इतना सब कुछ होने के बाद भी वह मुझसे मिलने आया है । वह प्रकारांतर से मुझे गैर सामाजिक और महत्वाकांक्षी भी कह रहा था और मैं कोशिश कर रही थी कि किसी तरह इस रिश्ते को बचा लूँ। मैंने उससे छोटे बेटे के बारे में पूछा और गिड़गिड़ाई कि उसकी कोई तस्वीर जरूर भेज देना ताकि मैं उसे देख सकूं कि कैसा दिखता है?

इस पर वह मुंह टेढा करके बोला--वह मेरी तरह नहीं है कि आपको माफ़ कर दे । वह आपसे बहुत नफरत करता है और आपको कभी क्षमा नहीं करेगा।

बेटा मेरे दिल पर धमाधम घूसे बरसाता जा रहा था और मेरी ममता पछाड़े खा रही थी। उसने मुझसे लखनऊ वाली मेरी छोटी बहन का पता लिया और उससे मिलने की इच्छा जाहिर की । मैंने सोचा बहनों से मिलेगा तो सच से अवगत हो जाएगा। मैंने कहा--नानी से भी मिल लो उसी ने तो पाला था। मेरे साथ रात -रात भर जागी थी । मेरी बात सुनकर वह उपेक्षा से बोला--देखेंगे ।

अपने पिता की तरह वह भी मेरी माँ से चिढ़ रहा था।

वह चला गया। उसके जाने के दूसरे दिन ही उसके पिता का फोन आया और वह मुझ पर लानतें भेजने लगा--कैसी माँ हो ?अपने बेटे को बहन का बेटा बताया । अपने को सिंगल बताकर रहती हो। तुम्हारा रहन-सहन देखकर बेटा दुबारा कभी न जाने का फैसला कर चुका है। कितनी मुश्किल से मनाकर उसे भेजा था। तुम्हारे जैसी औरत अपने बेटों की भी नहीं हो सकती। अपने दरबे जैसे घर पर तुम्हें घमंड है। तुम्हें लगता है उसी पर कब्जा लेने बेटा गया था ।

वह और भी जहर उगलता पर मैंने फोन काट दिया। बेटे ने न केवल उसे मेरा फोन नम्बर दे दिया था बल्कि मेरे घर और जीवन के बारे में एक -एक सूचना उसे पहुंचा दी थी।

माँ ने सुना तो कहा --मैं तो बचपन से ही जानती हूँ तुम्हारे इस बेटे को। वह साँप का संपोला है।


मैं दिन-भर स्कूल में रहती हूँ शेष समय लिखना -पढ़ना! घर का सारा काम खुद करती हूँ। क्या बुराई है मेरे रहन- सहन में?

किस तरह का जीवन जीते देखना चाहते हैं पिता- पुत्र?

क्या मेरा अपराध ये है कि मैं हल्दी -तेल से सनी मां नहीं हूँ कि पति -बच्चों से अलग होकर भी दुःख से जर्जर, बूढ़ी , दीन-हीन , बदहाल औरत- सी नहीं दिखती हूँ कि मैं एक स्वस्थ, सुन्दर, आत्मनिर्भर और स्वाभिमानी औरत हूँ कि एक भागी हुई स्त्री होने के बावजूद अभी तक जीवित हूँ !


(भाग नौ)

बेटे के आने के बाद जैसे गड़े मुर्दे फिर से जिंदा होकर सताने लगे थे। कितनी मुश्किल से खुद को संभाला था, जिंदगी में आगे बढ़ी थी। अब जैसे फिर उसी मोड़ पर आ खड़ी हुई थी, जहां से कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था।

बेटा उसके बाद भी कई बार आया और हर बार दुःखी करके गया। मैं ममता में उसके साथ कठोर नहीं हो पा रही थी और वह उसका बेजा फायदा उठा रहा था।

मेरी लाख मिन्नतों के बाद भी उसने छोटे बेटे की तस्वीर नहीं दिखाई।

मेरी छोटी बहन ने कोशिश करके छोटे बेटे से संपर्क किया और उसके घर उसका आना-जाना शुरु हो गया। बहन ने उसकी तस्वीर भेजी और फिर उसी से उसका समाचार भी मिलने लगा। बहुत खुशी हुई । छोटा बेटा हूबहू मेरे जैसा था। उसने बहन को बताया कि इसी समानता के कारण बचपन से ही वह सबके तानें सुनता था। उसे मुझ पर बहुत गुस्सा था। वह भी यही मानता था कि मैं उसे अबोधवस्था में ही छोड़कर भाग गई थी। मैंने बहन से कहा कि उसको सारी सच्चाई बताकर उसके मन की मैल साफ कर दो , तो वह बोली---'फिर उसका रिश्ता मुझसे भी खराब हो जाएगा। वह तुम्हारे पक्ष में कोई बात नहीं सुनना चाहता। वह तुम्हें एक महत्वाकांक्षी स्त्री समझता है , जो न अपने पति की हुई न बच्चों की। वह मेरी बहुत प्रशंसा करता है क्योंकि मैं इतनी परेशानी झेलकर भी अपनी गृहस्थी संभाल रही हूँ। ' 

बहन अपनी प्रशंसा से ही खुश थी। उसे अपनी बड़ी बहन के दुःख की कोई परवाह नहीं थी।

संयोग से छोटे बेटे का तबादला मेरे ही शहर के एयरफ़ोर्स में हो गया , पर सालों बाद बहन द्वारा ही इस बात का पता चला। वह उसे बहुत मानता था। नौकरी में होने के कारण छोटे की शादी पहले ही हो गयी थी । उसका एक छोटा बच्चा भी था। मेरा मन उनसे मिलने को छटपटाने लगा। एक दिन बहू- पोते के लिए उपहार लेकर मैं उसके आवास पर पहुंच गई। उसने अतिथि की तरह व्यवहार किया। वह न खुश दिखा, न दुःखी, पर मैं बहुत खुश थी। उसे अपने घर आने को कहा तो उसने साफ मना कर दिया कि पापा ने मना किया है। वह भी परम पितृ -भक्त था। पोता पहली बार में ही मुझसे हिल गया। मैं उसके मोह में कई बार उसके आवास पर गयी। जब उसका तबादला आया तो मैंने कहा कि मुझसे मिलकर जाना या फिर जब जाना होगा तो बता देना, मैं ही आ जाऊँगी।

पर वह चुपचाप चला गया। उसे भी मुझसे कोई लगाव नहीं था। पिता के घर महीनों रहकर वह नौकरी पर गया , पर मुझसे एक बार भी नहीं मिला। उसका पिता उसे मुझसे दूर ही रखना चाहता था। शायद इसलिए कि वह उसके लिए सोने का अंडा देने वाली मुर्गी की तरह था । छोटा बेटा बहन से दिल की बात बता देता था, पर कई मुलाकातों के बाद भी मुझसे नहीं खुला और ना ही अपनापन दिखाया। हाँ, अवसर मिलते ही वह ताना जरूर मार देता था।  फिर भी उसका व्यवहार बड़े बेटे से ज्यादा सम्मानजनक था। कुल मिलाकर उसके पास भी मेरा गुजारा न होना था।

बड़ा बेटा एक दूसरी बहन के यहां जाने लगा। अब वह आई. ए. एस का सपना भूलकर सरकारी टीचर बन गया था क्योंकि कई साल से वह सफल नहीं हो रहा था । टीचर बनकर वह भी मेरे शहर में आ गया। मैंने उसे अपने साथ रहने को कहा तो उसने साफ मना कर दिया। उसकी शादी तय हो गयी थी। उसने मेरी दो बहनों को शादी में आमंत्रित किया और औपचारिकता-वश मुझे भी उनके साथ आने को कहा। अपना परिचय छुपाकर तथा उसके एक मित्र का परिवार बनकर हम उसकी शादी में शरीक हुए ।

उसका पिता हमें देखकर बौखला उठा। बात तेजी से फैल गयी कि लड़के की असली माँ आई है। समधिन बहुत खुश हुई, आकर गले मिली। मैं धर्म- संकट में थी। दो बहनों के साथ होने से थोड़ी हिम्मत थी। शादी के समय मैंने देखा कि मेरा पति लड़की की दादी से सिर जोड़े मेरी तरफ देखते हुए कुछ बतिया रहा है। मैं समझ गयी कि वह बेटे के ससुराल में भी मुझे ‘भागी हुई स्त्री’ के रूप में बदनाम करना चाहता है। दूसरे दिन सुबह लड़की के विदा होते ही लड़की की दादी औरतों के बीच ही मुझसे बोल पड़ी--कैसी औरत हो, सोना जैसे बच्चों को छोड़कर भाग गई थी । अब किस मुँह से शादी में आई हो?आज ससुराल में रहती तो कितना रूतबा रहता!

सभी औरतें मेरा चेहरा देख रही थीं। मैंने बस इतना ही कहा कि ‘क्या कोई मां अपने बच्चों को यूं ही छोड़कर भागती है ?उसने सब बताया और ये नहीं बताया कि बच्चों को लेकर वही भाग गया था और उन्हें क़ैद करके रख लिया था। ‘

एक औरत ने भी जब मेरा पक्ष लिया, तब कुछ बात बनी। वापस आकर मैँ कई दिन तक सोचती रही कि वह आदमी इतने वर्षों बाद भी जरा -सा नहीं बदला। मुझे लोगों की नजरों से गिराने का एक भी अवसर नहीं छोड़ता। माँ सच कहती है वह जहरीला नाग है।

बच्चों को रोज थोड़ा- थोड़ा जहर पिलाकर उसने बड़ा किया है, इसलिए वे भी जहरीले हो गए हैं । उनसे कोई उम्मीद रखना खुद को दुःखी करना है। शायद वे लड़की होते तो कुछ समझते पर वे भी इस पुरुष- व्यवस्था की ही उपज हैं ।

मैंने तो सोचा था कि मैं जो प्यार उन्हें नहीं दे पाई, उसे अब दूँगी। उन्हें अपना बना लूंगी, आखिर वे मेरे ही रक्त- मांस से बने हैं !मेरे ही दूध से पले हैं । हमारा गर्भ- नाल का रिश्ता है । वे मुझे कैसे नहीं समझेंगे?

पर मैं गलत साबित हुई। मैं उनके लिए भी सिर्फ एक ‘भागी हुई स्त्री’ ही थी।   


(भाग दस)

मैंने अपने पति के आकर्षक व्यक्तित्व में छिपे कुरूप आदमी को देखा था , इसीलिए मेरा मन उससे विरक्त हो गया था। मैं देह की कुरूपता को बर्दास्त कर सकती थी पर मन की कुरूपता मुझे असह्य थी। मैं उसे देवता समझती थी पर एक दिन अचानक ही उसका मुखौटा उतर गया।  मैं विश्वास ही नहीं कर सकी थी कि यह वही आदमी है , जिसे मैं प्यार करती थी कि मेरा पति इतना दंभी और घिनौना कैसे हो सकता है ?मैं फूट-फूट कर रोई , कई दिन तक रोती ही रही। वह मेरे रोने का कारण नहीं समझ पाया। उसे पता ही नहीं चला था कि आवरण में छिपे उसके असली रूप को मैं देख चुकी हूँ। फिर वह मुझे मनाने के लिए आवरण पर आवरण चढ़ाता गया पर मेरा मन उससे उचट गया था। मैं उसके साथ नहीं रहना चाहती थी। उसका स्पर्श मुझे सर्प- दंश की तरह लगता था, पर मुझे सब कुछ सहना पड़ा था। मैं जानती थी कि एक ऐसे समाज में रहती हूँ , जिसमें एक बार बंधने के बाद बंधन से छुटकारा आसान नहीं होता। चारों ओर से इतने दबाव पड़ने लगते हैं कि स्त्री उन दबावों के नीचे दब जाती है। फिर सारी जिंदगी उसे उस अनचाहे के साथ गुजारना पड़ता है , जिससे मन ही मन नफरत करती है। यह अलग बात है कि वह अपने हिसाब से उससे बदला भी लेती रहती है। कुछ स्त्रियाँ तो अवसर मिलते ही अवैध संबंध बना लेती हैं और कुछ प्रेमी के साथ मिलकर पति की हत्या तक का साजिश रच डालती हैं।

पर मैं उस तरह की स्त्री नहीं थी और ना ही पीठ पीछे वार करने में मेरा विश्वास था। रिश्तों में मैं खुलापन चाहती थी । बिना प्यार के साथ रहने की कल्पना मुझे असह्य थी। मैं बोझ की तरह रिश्ते नहीं निभा सकती थी। उसने जब जान लिया कि मैं उसको जान गयी हूँ तो अपने असली रूप में आ गया था और बात-बात पर मुझे नीचा दिखाने लगा था। अपना आवरण तब भी उसने नष्ट नहीं किया था। बाहरी लोगों के लिए उसे सुरक्षित रख लिया था। लोगों के सामने उसे चढ़ा लेता। सभी उसके आवरण को ही सच समझते और उससे प्रभावित हो जाते थे। उसके पास गिरगिट के रंग थे, बहुरूपिये की कला थी , लच्छे की भाषा थी और सबसे बड़ी बात उसके पास पर्याप्त समय था। समाज में लोकप्रिय होने के लिए इससे अधिक क्या चाहिए ?वैसे भी समाज में उसकी तरह ही के लोग ज्यादा हैं। जो ‘खग जाने खग ही भाषा’ के अनुसार एक-दूसरे को समझते हैं और साथ भी देते हैं। अक्सर ऐसे लोगों की टीम बन जाती है , पर मेरे जैसे लोग ज़्यादातर अकेले पड़ जाते हैं।

मैं जैसी अंदर थी , वैसी ही बाहर। मेरा व्यक्तित्व विभाजित नहीं था इसीलिए दोहरे व्यक्तित्व के लोग मुझे पसंद नहीं थे , उनसे प्रेम करना तो दूर की बात थी। पर दिक्कत ये थी कि अन्य लोगों को मैं खारिज कर सकती थी , पर उसको कैसे खारिज करती ?वह मेरा पति था। पूरे विधि-विधान से हमारा विवाह हुआ था । इस विवाह में मेरी अपनी सहमति भी थी।

मैंने सोचा–शायद , वह बदल जाए , पर किसी की प्रकृति कहाँ बदलती है ?वह भी नहीं बदला। कभी-कभी बदला-सा दिखा , पर फिर वही का वही हो गया। मैं हर बार तड़प कर रह गयी। वह खुद चाह लेता तो शायद परिवर्तित हो सकता था पर ऐसे लोग खुद को परफेक्ट मानते हैं । उनका अहंकार बड़ा होता है।

फिर मैंने सोचा कि खुद को ही बदल लूँ ?उसी की तरह दुहरा व्यक्तित्व निर्मित कर लूँ। झूठ , दिखावा , अवसरवादिता और स्वार्थ से भर जाऊं पर मैं ऐसा नहीं कर पायी ?मैं उसकी तरह नहीं बन पायी। मैं जान गयी कि उसकी तरह बनते ही मेरी आत्मा मर जाएगी , मुझे अपराध-बोध सताने लगेगा। मेरी अपनी प्रकृति है , जिसे मैं नहीं बदल सकती। फिर मैं कैसे सोच रही थी कि उसकी प्रकृति बदल जाएगी। दोनों का व्यक्तित्व नदी के दो द्वीपों की तरह था , जिनका मिलना मुश्किल था।  

बेटे भी दोनों द्वीपों को जोड़ने वाली अंतर्धारा नहीं बन सके।  

वह बहुत इगोइस्ट था और बहुत पजेसिव भी। अपने- आप को पूरी तरह समाप्त करके ही मैं उसे पा सकती थी। अपने को बचाए रखकर तो उसे खोना ही था। दोनों अलग हो गए।  

उसने अपनी जिंदगी की स्लेट से मेरा नाम , मेरा अस्तित्व धो-पोंछकर एक नई जिंदगी शुरू कर दी। शायद बहुत सुखी , बहुत भरी-पूरी जिंदगी !पर मेरी पुरानी स्लेट से इतनी जल्दी इतनी आसानी से कुछ भी साफ न हो सका। उसने साफ होने ही नहीं दिया क्योंकि अलग होने के बाद भी उसने मुझे अकेला नहीं छोड़ा। सारी जिंदगी मुझे, मेरे हर काम और बात को , मेरे सोचने और मेरे हर रवैये को गलत सिद्ध करता रहा । मैं फ्री बर्ड हूँ। स्वतंत्र रहना चाहती हूँ। बहुत डामिनेटिंग हूँ , ये हूँ ...वो हूँ --यह कहकर वह बेटों को मेरे खिलाफ करता रहा। उनके मन में मेरे खिलाफ जहर भरता रहा।

पता नहीं गलत कौन था ? मैं या वह। जो भी हो , जीवन भर गलत होने के अपराध -बोध को मैंने किसी न किसी स्तर पर हर दिन ही झेला। जबकि वह निश्चिंत अपनी नयी दुनिया में मगन रहा। इस पुरूष-प्रधान समाज में बच्चे और स्त्री ही कमजोर हैं पुरूष नहीं।  

पति ने बेटों को माध्यम बनाकर मुझसे प्रतिशोध लिया। मैं उसकी जगह होती तो बेटों में तन्मय होकर अपनी सार्थकता तलाश करती। वे मेरे जीवन के आधार होते पर उसने बेटों को हथियार के रूप मे इस्तेमाल किया।

पर मैं क्या करती ?पहले मैं बेटों को साथ रखने में सक्षम नहीं थी। मैं खुद अपने पिता के घर थी और वहां मेरे बेटे बाहरी और अनावश्यक थे , फालतू थे । पर पति का घर तो बेटों का अपना घर था। पति से चाहे मेरा संबंध ठीक न चला , पर बेटों से उसका आत्मीयता का , अपनत्व का , रक्त का सम्बन्ध था। इसलिए मैंने उन्हें लौटा लाने का हठ नहीं किया। इस समाज में बच्चे के लिए माँ के साथ से ज्यादा पिता का नाम व संरक्षण ज्यादा महत्वपूर्ण होता है , इस सत्य को मैं जानती थी।

जिंदगी को चलाने और निर्धारित करने वाली कोई भी स्थिति कभी इकहरी नहीं होती , उसके पीछे एक साथ अनेक और कभी-कभी विरोधी प्रेरणाएँ निरंतर सक्रिय रहती हैं। मेरे और बेटों के चरित्रों की वास्तविकता इन्हीं अंतर्विरोधों की वास्तविकता है। परोक्ष रूप से पति के जीवन की वास्तविकता भी यही है। अब बेटे मुझसे बदला लेने के चक्कर में कितना बड़ा बदला अपने आप से ले रहे हैं , उन्हें खुद नहीं मालूम ।

अतीत जैसा भी था ..अच्छा या बुरा ..मेरा अपना निजी था ...इतना निजी कि मैं उसे किसी के साथ बांटना नहीं चाहती थी। वह एक अध्याय था , जो बंद हो गया था और मैं उसे किसी के सामने खोलना नहीं चाहती थी। चाहे भी तो नहीं खोल सकती थी। शायद अब तो अपने सामने भी नहीं। कभी-कभी मैं सोचती हूँ -कितना अजीब है कि सब लोग मुझसे ही चाहते हैं और मैं सबकी चाहत को पूरी करती रहती हूँ । क्या यही एक रास्ता है मेरे लिए कि मैं अपने लिए कुछ न चाहूँ ?जहां चाहती हूँ , वहीं गलत क्यों हो जाता है ?ऐसा कुछ अनुचित , असंभव भी तो नहीं चाहा मैंने। जिंदा रहने को महसूसने के लिए जो किया सो किया। फिर भी सब मुझे गलत कहते हैं। गलत इसलिए कि यह मैंने किया ...एक स्त्री ने। आखिर मेरी जायज महत्वाकांक्षाएँ और आत्मनिर्भरता पति के लिए चुनौती क्यों बन गईं ?क्यों वह समाज में मेरे बढ़ते कद को नहीं बर्दास्त कर सका ? 

बीस वर्षों बाद मेरे बेटे लौटकर आए थे पर उन्हें देखकर लगा जैसे मैं बेटों को नहीं पति के जुड़वे रूप को देख रही हूँ। कितना मिलता है उनका चेहरा , उनकी आदतें , उनकी सोच। मैं सोचने लगी -कैसे इंसान एक छोटे से अणु से अपना चेहरा-मोहरा , आदत-स्वभाव , विचार -संस्कार सब कुछ अपनी संतान में सरका देता है। उसकी तरह वे भी मुझे ही गलत और अपराधी सिद्ध करने पर तुले हुए हैं और शायद सारी जिंदगी मुझे गलत ही सिद्ध करते रहेंगे। क्या यह स्त्री होने की सजा है कि सच ही मेरे मन में कोई गिल्ट है ?मैंने कहीं पढ़ा था –आदमी के भीतर जब कोई अपराध- बोध होता है तो वह तर्क से अपने आप को जस्टिफाई करता रहता है , वरना उसका जीना मुश्किल हो जाता है ।

पर मुझे किस बात का अपराध-बोध है ?आखिर क्यों मैं हमेशा तर्क दे- देकर अपने मन को समझाती रहती हूँ। बेटों का भला पिता के साथ रहने में था , मैंने रहने दिया था।

फिर सोचती हूँ -बेटों के भविष्य की दुहाई देकर कहीं मैंने अपने गलत कदम को सही सिद्ध करने की कोशिश तो नहीं की ?मन न इस बात को मानता है, न उस बात को। सही –गलत की बात मैं नहीं जानती थी , जानना भी नहीं चाहती थी। जो सही लगा वही करती गयी थी।

नहीं , मुझे कुछ कनफेस नहीं करना। आदमी शायद कनफेस इसलिए नहीं करता कि दूसरों की नजरों में गुनहगार बनकर अपनी नजरों में बेगुनाह हो जाए। वह अपने गुनाहों को स्वीकार नहीं करता , बड़ी निरीहता के साथ उन्हें दूसरे के कंधे पर डालकर स्वयं उनसे मुक्त हो जाता है। बेटे मेरे अपने अंश थे मेरे जीवन के अभिन्न अंग। उनके जाने का दुख मेरा अपना था और उन्हें वापस न लाकर यदि मैंने कुछ गलत किया तो यह गलती भी मेरी उतनी ही अपनी थी। इस दुख को ना तो मैं किसी के साथ बाँट सकी , ना किसी के कंधे पर डालकर उस दुख से मुक्त हो सकी हूँ।

पति ने न जाने क्या चाहा था मुझसे , जो मैं नहीं दे पाई। वह मेरे जीवन से चला गया। अब बेटे भी मुझसे जाने क्या चाहते हैं ?कभी-कभी मुझे लगता है कि बेटों का रूप धर वही मुझसे कुछ चाहता है। वही कुछ , जो तब मैं उसे नहीं दे पाई थी। नहीं, यह मेरा भरम है। वह मुझसे कुछ नहीं चाहता। वह अपनी नयी पत्नी और उससे उत्पन्न दो अन्य बेटों के साथ भरी-पूरी जिंदगी जी रहा है। उसने मुझे अपनी जिंदगी से कभी का काट दिया था , उसे कोई कसक नहीं है। उसका अध्याय पूर्णता के साथ समाप्त हो गया था पर मेरा अध्याय ..कहीं भी कुछ समाप्त नहीं हुआ। अपनी अगली कड़ी के साथ ज्यों का त्यों मेरे साथ चिपका रहा। शायद वह कभी समाप्त होगा भी नहीं। बहुत मनन के बाद ज्यों ही मैंने अपनी जिंदगी शुरू करनी चाही तो बेटे आ गए। मैंने देखा कि उन्होंने अपने पिता को ज्यों का त्यों इन्हेरिट किया है। अब बेटे मुझ जैसी स्वतंत्र व्यक्तित्व वाली आत्मनिर्भर माँ को नहीं सह पा रहे हैं। मैं स्त्री और माँ के आपसी द्वंद्व में उलझ गयी हूँ । बेटे आते हैं फिर लौट जाते हैं , पर बीच-बीच में आते रहते हैं।

बेटों का भी क्या दोष है?वे समान रूप से माता-पिता से जुड़े हैं यानी खंडित निष्ठा उनकी नियति है। हमने भी उन्हें क्या दिया ?शायद बेटों को हम दोनों एक साधन ही समझते रहे। अपने-अपने अहम , अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाओं और अपनी-अपनी कुंठाओं के संदर्भ में ही सोचते रहे। बेटों के संदर्भ में कभी सोचा ही नहीं , तो क्यों बेटे ही हमारे संबंध में सोचे ?आज वे स्वतंत्र जीवन जी रहे हैं। उनका अपना घर-संसार है। नयी दुनिया है। मैं उनकी दुनिया में दखल नहीं देना चाहती, पर उनका पिता उनके जीवन में बराबर अपना दखल बनाए हुए है। वह उनका भरपूर शोषण करता है। उसका अपना संसार है पत्नी है बेटे हैं, पर वह मेरे बेटों से पितृ -ऋण चुकाते रहने को विवश करता है। वह उन्हें उनका अतीत भूलने नहीं देना चाहता।

आज भी वह मेरे बेटों पर यह मानसिक दबाव दवाब बनाए हुए है कि वे एक भागी हुई स्त्री के बेटे हैं, जिनकी परवरिश करके उसने उन पर अहसान किया है । बेटे इसी बात से मुझसे नफ़रत करते हैं कि मैंने उनकी जिंदगी को बरबाद किया था। वे मेरे प्रति कोई लगाव महसूस नहीं करते। वे मुझसे कोई रिश्ता नहीं रखना चाहते।

मैंने भी उन्हें स्वतन्त्र कर देने का निर्णय कर लिया है।

बार -बार इस झूठ को सुनकर पक चुकी मैं अब सारे संसार के सामने कहने को तैयार हूँ कि मैं एक भागी हुई स्त्री हूँ ।


(भाग ग्यारह)

छोटा बेटा मेरे व्हाट्सऐप और फेसबुक से जुड़ा है पर तीज- त्योहार पर भी मेरा अभिवादन नहीं करता। मैं पचासों मैसेज करती रहूँ पर वह कोई जवाब नहीं देता।

ऊपर से दोनों बेटे कहते हैं कि मैं ही उनसे मतलब नहीं रखती। मदर्स डे पर दोनों अपनी सौतेली माँ के साथ फोटो पोस्ट करते हैं या उसके लिए कुछ विशेष लिखते हैं ।

उस स्त्री का भाग्य देखिए कि उसके अपने दो बेटे तो उस पर जान देते ही हैं , मेरे बेटे भी उसी के पक्ष में खड़े रहते हैं । कानूनी दृष्टि से वह एक नाजायज़ पत्नी है, फिर भी सारा अधिकार उसका है। वह महंगे जेवर -कपड़ों, सिंदूर और सुहाग चिह्नों से सजी अपना पेयर फोटो फेसबुक पर पोस्ट करती है। मुझे उस स्त्री से कोई ईर्ष्या नहीं है। मुझे यही आश्चर्य होता है कि उसने किस तरह उस आदमी के साथ इतना लंबा समय निकाल लिया। भाग्य तो उसका अच्छा है ही। वह तब आई , जब उसका पति सरकारी मास्टर हो गया । पक्का और अच्छा घर बन गया । सौतेले बेटे भी स्कूल जाने की उम्र में थे। अपना काम खुद कर लेते थे। फिर ससुराल और मायके के साथ ही पास -पड़ोस, रिश्तेदारों का सपोर्ट था। पति को भी अपने- आप को सर्वोत्तम पति साबित करना था, इसलिए वह राजरानी बनी। और मेरा भाग्य देखिए , जब तक पति साथ था, वह बेरोजगार रहा और ससुराल अभावों का घर। मुझे गन्ने के सूखे छिलकों को मिट्टी के चूल्हे में झोंककर खाना बनाना पड़ा। मेरे रहते न बिजली लगी, न पानी का नल। टॉयलेट भी संडास और आंगन में बार- बार खराब हो जाने वाला हैंडपम्प!न बाथरूम, न अपना कमरा । ऊपर से पति का मनमाना अत्याचार--इसे भाग्य नहीं तो और क्या कहते हैं?शादी के दस साल बाद तक अभाव, तनाव, इल्ज़ाम ही तो मिला। बेहतरी के लिए पढ़ना चाहा तो वह भी अपराध हो गया। मुझसे बच्चे पैदा करवाकर पलवा लिया गया और फिर...भागी हुई स्त्री की उपाधि से नवाज दिया गया।

सोचा था कि बड़े होकर बेटे मुझे समझेंगे। पर दुर्भाग्य देखिए कि वे सारी दुनिया को समझने के लिए तो तैयार हैं लेकिन मुझे नहीं । वे अपने पिता की ही तरह मुझे जलाते -कुढाते हैं। कई बार उनसे कहा कि किसी त्योहार पर तो मेरे साथ रहो। पिता के घर तो बहुत लोग हैं। इस पर जवाब हाज़िर मिलता है-‘जैसी करनी वैसी भरनी। वहां न जाने पर समाज क्या कहेगा?परिवार क्या कहेगा?जिन्होंने पाला-पोसा, पढ़ाया-लिखाया , उनके पास न जाना बेइंसाफ़ी है। ’

वे हर त्योहार अपनी सौतेली माँ के लिए साड़ियां , सौतेले भाइयों के लिए कपड़े ले जाते हैं। ऐसा न करें तो उनका पिता उन्हें कोस-कोसकर मार डाले। वह उन्हें साफ कहता है ---तुम लोग नहीं करोगे तो वह सोचेगी कि जिन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया, वे नमकहराम निकल गए।

ये बातें बड़े बेटे ने ही बताई है।

बेटे भावनात्मक और आर्थिक रूप से दुहे जा रहे हैं । मैं जानती हूँ कि उनका पिता किस तरह का नौटंकीबाज है। वह बीमारी का नाटक करता होगा, आत्महत्या की धमकी देता होगा और बेटे मजबूर हो जाते होंगे। मैं बेटों को समझ रही हूँ पर वे मुझे समझना नहीं चाहते?। वे मेरे दिल से खेलते हैं। शायद मुझसे अलग होने के बाद जो -जो उन्हें सुनना -सहना पड़ा, उसका सारा दोष वे मेरे सिर मढ़ना चाहते हैं । ठीक है सारा दोष मेरा है, पर वह सब जो बीत चुका , उसे वापस लाकर ठीक तो किया नहीं जा सकता। क्या सब कुछ भुलाकर हम एक सामान्य जीवन नहीं जी सकते?कहने को तो बेटे भी यही बात कहते हैं, पर मुझे अपमानित करने का एक भी अवसर नहीं छोड़ते।

एक दिन बड़े बेटे ने अपने जन्मदिन की पार्टी में बुलाया पर वहाँ किसी भी मेहमान से मेरा परिचय नहीं कराया। उसके ससुराल वाले भी आये थे।

जब वह रिश्तेदारों के साथ शराब पीने का कार्यक्रम बना रहा था तो मैंने उसे टोका कि यह अच्छी बात नहीं तो उसने सबके सामने ही मगर धीरे से कहा-- मैं सबको आपकी असलियत बताऊँ।

मैं उसका मुँह देखती रह गयी।

जब भी वह मेरी बहनों के साथ होता है, मुझे अपमानित करने का बहाना ढूँढता रहता है। एक बार मैं उसके साथ अपनी एक बहन के यहाँ गयी। रास्ते में मोतीचूर के ताजे लड्डू ले लिए। जब बहन को लड्डू दिए तो वह बोल पड़ा-ये लड्डू सस्ता मिलता है न! खोए की मिठाई लाती , तो महंगा पड़ता।

क्या ये बात बहन के सामने बोलना जरूरी था?

एक बार एक बहन के घर शादी में शामिल होने के लिए एक दूसरी बहन, उसकी विवाहिता बेटी के साथ हम दोनों भी साथ जा रहे थे। सबके लिए ट्रेन का टिकट मैंने ही लिया था। बहुत गर्मी थी और ट्रेन थोड़ी लेट भी । हम स्टेशन पर इंतजार कर रहे थे। बेटे ने ठंडे पानी की बोतल खरीदी । पहले उसने मौसी को बोतल दी, फिर बहन को और खुद पीने लगा। एक बार भी उसने मुझसे नहीं पूछा। बहन ने इशारा किया तो बोतल मुझे थमा दी। मैं पानी पीने लगी तो होंठ बोतल से जरा-से सट गए , तो वह तेज स्वर में चिल्लाया-जूठा कर दिया!फिर उसने बोतल फेंक दी ।

इन्हीं होठों से उसे बचपन में चूमती रही थी और इसी से छू जाने पर......। ट्रेन में भी वह मुझे सबसे ऊपरी बर्थ पर जाने के लिए कहने लगा , जबकि वह जानता है कि मेरे घुटनों में थोड़ी प्रॉब्लम है। पांच धंटे के सफ़र में उसने मुझे कई बार जलील किया । स्टेशन से बहन के घर तक जाने के लिए हमने रिक्शा किया । एक रिक्शे पर बहन अपनी बेटी के साथ बैठ गई तो मजबूरन उसे मेरे रिक्शे पर बैठना पड़ा। पर वह कुछ इस तरह सिकुड़कर बैठा जैसे मैं छूत की रोगी होऊं और साथ बैठने से उसे छूत लग जाएगी। बहन के घर के बाहर पहुँचने पर रिक्शे वाला निर्धारित रेट से ज्यादा पैसा मांगने लगा, तो मैंने नहीं दिया । इस पर वह अपने पास से उसे दुगुना पैसा देकर मुझ पर चिल्लाया कि ‘गरीब का पेट काटती हैं । ‘

बहन के घर पहुँचकर तो जैसे वह मेरा अपमान करने का लाइसेंस ही पा गया। छोटी बहन के गले लगा और बोला--आप कितनी सुंदर है और एक इन्हें देखिए।

वह मेरी तरफ देखकर व्यंग्य से मुस्कुराया। बहन भी खुलकर हँस पड़ी। मेरी बहनों को भी मेरा अपमान बुरा नहीं लगता।

क्या तुक थी उस बात की!

क्या मैं गलत समझ रही थी कि वह मुझे ज़लील करना चाहता है।

वह सच ही अपने पिता की कॉर्बन कॉपी है। माँ सच कहती थी कि वह कभी मेरा नहीं हो सकता। सांप का संपोला है। जैसे उसका पिता मुझे डंसता रहा, वह भी डंस रहा है। कब तक अपनी ममता का हवाला देकर मैं यह सब सहती रहूंगी?यह तो तब की बात है, जब मैं उस पर आश्रित नहीं हूँ । जब मैं उस पर निर्भर हो जाऊँगी तो मेरा क्या हश्र होगा?वह तो मुझे ताने मार- मारकर असमय ही मार डालेगा।

एक दिन उसने कह भी दिया कि रिटायरमेंट के बाद तो आप चाहेंगी कि मेरे साथ रहें क्योंकि प्राइवेट नौकरी है पेंशन तो मिलेगा नहीं । बैंक- बैलेंस कुछ दिन में खत्म हो जाएगा। छोटा- सा घर है, किराए पर उठाएंगी भी तो कितना मिलेगा?

मेरे घर आ जाइएगा पर याद रखिएगा मेरी पत्नी के हिसाब से रहना पड़ेगा। वहां आपकी मर्जी नहीं चलेगी।

इसके पहले जब मैंने उससे कहा था कि छोटा ही सही , जब मेरा अपना घर है तो क्यों तुम किराए के घर में रह रहे हो? तो उसने कहा-आपके घर रहूँगा तो अपना खर्चा देंगी न।

मैंने कहा--मैं तो अपना पूरा घर ही दे रही हूँ।

तो कहने लगा--देखा, घर की बात कह दीं न, आपको लगता है आपके इस दरबे जैसे घर को हासिल करने के लिए मैं यहाँ आता हूँ।

मैं हतप्रभ थी कि मैंने तो ऐसा कुछ कहा ही नहीं। अभी नौकरी में हूँ। कमाकर लाऊँगी तो क्या घर में खर्च नहीं करूंगी ?पर उसे लगता है कि उसे मुझे खिलाना पड़ेगा। उसके घर में ससुराल पक्ष का कोई न कोई पड़ा ही रहता है, पिता -पक्ष से भी निचोड़ा जाता है, पर यह सब उसे सह्य है पर माँ की रोटी उसे भारी लगती है।

मेरी आँखों में मोतियाबिंद की शिकायत हो गयी । शाम के बाद रोशनी आँखों में लगती । डॉक्टर ने कहा कि शुरूवात में ही ऑपरेशन करा लेना ज्यादा अच्छा है। मैं छुट्टियों में ही ऐसा कर सकती थी ताकि ऑपरेशन के बाद आराम मिल सके । देखभाल के लिए किसी का साथ में होना भी जरूरी था। कई बार बेटे से कह चुकी थी पर वह हर छुट्टी में पत्नी के साथ घूमने का कार्यक्रम बना लेता , मैं मन मसोसकर रह जाती । मैं उस पर अधिकार जता नहीं सकती थी । अधिकार जताने पर सीधे कह देता कि आपने मेरे लिए किया ही क्या है , जो अधिकार जता रही हैं। छोटा बेटा काफी दूर है। बड़ा मेरे घर से थोड़ी ही दूर पर रहता है, पर इसे मेरी कोई परवाह नहीं है। इसकी पत्नी भी इतनी ज्यादा फैशनेबुल है कि सेवा करना हेठी समझती है। कई बार स्कूल से सीधे उसके घर गयी हूँ, पर बेटे की गैर मौजूदगी में उसने लंच भी नहीं पूछा। मैं भूखी-प्यासी अपने घर लौट आई। मेहमान की तरह चाय- बिस्कुट सामने रखकर अपने कमरे में जाकर आलमारी वगैरह ठीक करने लगती है। उसे मेरा आना नहीं भाता। उसे घूमने -फिरने और होटलबाजी का इतना शौक है कि बेटे की कमाई का बड़ा हिस्सा उसी में चला जाता है। जाने बेटे की कौन -सी कमजोर नस उसके हाथ में है कि वह उसकी अंगुलियों पर नाचता है। हालांकि वह बहुत मीठा बोलती है, सुंदर भी बहुत है पर मूडी है। उपहार देते रहने से ही खुश होती है।

अब भला वह क्यों मेरे पास रहकर या मुझे अपने घर रखकर अपनी आज़ादी खोए? मैं भी आधुनिक हूँ। मेरी तरफ से उस पर कभी कोई प्रतिबंध नहीं लग सकता था । उसके साथ न रहने का एक बड़ा कारण ये भी है कि उसके मायके वालों का उसके पास आना -जाना ज्यादा है। उसे लगता है कि शायद मैं उसके मायके वालों की उपस्थिति पसन्द न करूं।

बेटा मुझसे कहता है ---‘अपने भाइयों से क्यों नहीं कहतीं ऑपरेशन करा देने को?’

मैं उसे कैसे बताऊँ कि भाइयों ने मुझसे कभी उतना मतलब नहीं रखा। कभी मेरी कोई मदद नहीं की। माँ थी तो उनके घर आना-जाना लगा रहता था पर अब तो वह भी नहीं है।

ऑपरेशन का सारा खर्च मैं ही करूंगी, फिर भी कोई मेरे घर रहने को तैयार नहीं और न अपने घर ही रखने को तैयार है। बहनों ने भी पल्ला झाड़ लिया है । कोई मित्र भी इस तरह का नहीं कि मेरी मदद कर सके। हफ्ते-पन्द्रह दिन की बात है पर इतने दिन भी कोई देखभाल करने वाला नहीं मिल रहा।

संयोग से बेटे की यात्रा टल गई तो उसने कहा -ऑपरेशन के बाद देखभाल कर दूँगा पर मेरे घर आकर रहना होगा।

ऑपरेशन के पहले तमाम चेकअप होते हैं । मैंने साथ चलने के लिए उसे फोन किया तो बोला-आप ये सब खुद करा लीजिए।

ऑपरेशन के दिन बहू से पूछा कि आ रहे हो न तुम लोग, तो वह बोली--हम लोग पटना जा रहे हैं। मम्मी(सौतेली सास) बीमार हैं। मैंने कहा-वहां तो इतने सारे लोग हैं , मेरे पास कोई नहीं। ’ उसने फोन काट दिया। मुझे लग गया कि ये सब नहीं आएंगे। मैंने किसी तरह पास के कस्बे वाली बहन से मिन्नतें की कि बस एक हफ्ते के लिए आ जाओ।

वह आ तो गई पर जब तक रही अहसान ही जताती रही। जब मैं घर से अस्पताल के लिए निकल रही थी तो बेटे का फोन आया कि कब ऑपरेशन है?मैंने कहा-तुम लोग तो पटना जा रहे हो न, मेरी चिंता न करो तो तपाक से बोला-मुझे आपकी चिंता करने की जरूरत भी नहीं।

कहकर उसने फोन काट दिया। उसकी बात से मेरा ब्लडप्रेशर इतना बढ़ गया कि डॉक्टर ने उस दिन ऑपरेशन नहीं किया। बार- बार मेरे दिल को उसकी यह बात मथ रही थी कि --'मुझे आपकी चिंता की जरूरत नहीं । '

। मेरे किशोर विद्यार्थी मुझे अस्पताल ले गए और ऑपरेशन होने तक वहीं रहे।

जिस समय मेरा ऑपरेशन हो रहा था, उस समय बेटे- बहू पटना के बड़े मॉल में घूम रहे थे। यह उनके फेसबुक से पता चला।

ऑपरेशन के एक हफ्ते बाद ही बहन चली गयी ! उसके घर से उसकी वापसी के लिए दिन में दसियों बार फोन आते थे और वह बीसियों बार यह अहसान जताती थी कि जरूरत पर वही काम आई।

मुझे जल्द ही घर का सारा काम शुरू करना पड़ा, जिसके कारण मेरी आपरेट की गई आंख को ठीक होने में वर्ष भर का समय लग गया। अभी तक ऑपरेट हुई आँख ठीक नहीं है। शायद तनाव , आराम का अभाव, और जल्दी घर का काम शुरू कर देने के कारण ये परेशानी आई ।

न तो किसी भाई-बहन ने, न बेटों ने मेरी खोज-खबर ली।  

यह तो तय है कि बेटों से मुझे न तो अपनापन मिलेगा न सम्मान। वे मुझे देखकर खुद भी कुढेंगे और मुझे भी कुढाते रहेंगे। वे न अतीत से मुक्त हो पाएंगे न मुझे मुक्त होने देंगे, तो मैंने फैसला कर लिया कि मैं उनसे आरे सम्बन्ध तोड़ लूंगी। उनकी खुशी के लिए उनके बेहतर जीवन के लिए। उनके अनुसार मैंने उनका बचपन में साथ नहीं दिया तो वे मुझे बुढापे में सहारा नहीं देंगे। जाओ मेरे बेटों , मैंने तुम्हें आज़ाद किया। अपना दूध भी बख़्श दिया। तुम लोगों से कभी कोई सहारा नहीं माँगूँगी। मैं तो यही कोशिश करूँगी कि मेरी चिता में तुम लोग आग भी न दे सको। मान लूँगी कि हमारा तुम्हारा रिश्ता पूर्व जन्म का था। इस नए जन्म में हम अजनबी होंगे। इस जन्म में तुम्हारे माता पिता, भाई -बंधु, नात -रिश्तेदार सब हैं। मैं ही बस पूर्णतया अकेली हूँ।

पर मैं स्वतन्त्र, सक्षम व शक्तिशाली स्त्री भी हूँ। मैं हार नहीं मानूंगी। अकेले ही आगे बढूँगी ...बढ़ती ही जाऊँगी और एक दिन अपने सच्चे पति (ईश्वर) की बाहों में समा जाऊंगी। हाँ , मरने से पहले अपनी कहानी जरूर लिख जाऊंगी , ताकि दुनिया जान सके कि भागी हुई स्त्री भी हाड़- मांस की इंसान होती है और वह तभी भागती है जब उसके पास भागने के सिवा कोई विकल्प न होता ।

मैं हर जन्म में भागी हुई स्त्री ही बनना चाहूंगी।

(भाग बारह)

कोविड 19 की वजह से समय से पूर्व रिटायर होने वाली हूं। पेंशन नहीं मिलेगा । आय का अन्य कोई साधन नहीं। नए सिरे से नई नौकरी करने की हिम्मत नहीं । परेशान और चिंतित हूँ । दो साल से बेटे ने कोई बात नहीं की है । मैंने भी चुप्पी साध रखी है। कोई पहल करने को तैयार नहीं। आँख के ऑपरेशन के समय बेटे की अनुपस्थिति मुझे खल गयी थी। आपरेशन के बाद भी उसने खबर नहीं ली। इससे साफ पता चल गया कि उसे मेरी कोई परवाह नहीं , तो मैं भी कब तक उसकी परवाह करती?रिश्ते एकतरफा तो नहीं निभ सकते ।

दो साल से बेटा तो चुप था पर उसका बाप मुखर । वह मुझसे सम्बन्ध साधने की हर कोशिश कर रहा था। व्हाट्सऐप, फेसबुक हर जगह फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजने से लेकर मेरे नात -रिश्तेदारों से पुनः रिश्ता बनाने का प्रयास -सब कर रहा था । उसकी मंशा साफ नहीं थी । सभी सोच रहे थे कि आखिर दूसरी बीबी और उसके बच्चों के साथ रहते हुए भी वह मर चुके रिश्ते को क्यों जिलाना चाहता है?क्या उसे कोई पछतावा है?या यह उसकी कोई नई साजिश है?

बहनों के हिसाब से मेरा सदाबहार सौंदर्य उसे ललचा रहा था । मित्रों के अनुसार वह मेरी ख्याति और सौंदर्य दोनों का लाभ लेना चाहता था। उसकी दूसरी पत्नी स्तन कैंसर के कारण अपना सौंदर्य खो बैठी थी, इसलिए भी वह इस तरफ आने की कोशिश कर रहा था।

पर भाइयों का कहना था कि असल बात यह है कि बेटों से सम्बन्ध तोड़ लेने के कारण वह इस बात से चिंतित है कि मेरी संपत्ति का हकदार कौन होगा?कहीं मैं अपने किसी भाई-बंधु को वसीयत न कर दूँ।

सभी कारण अपनी जगह सही थे पर दरअसल मैं ही किसी भी कीमत पर उससे पुनः नहीं जुड़ना चाहती थी। मेरी स्मृति में अभी तक उसकी कही बातें , उसके दिए ज़ख्म ताज़ा हैं। मैं कैसे भूल सकती हूँ कि उसने मेरे युवा सपनों को पैरों तले रौंद डाला। जिसने मेरी बाहों से मेरे मासूम बच्चों को दूर कर दिया। पूरे समाज में मेरी छवि एक भागी हुई स्त्री की बना दी। बेटों की नजरों से मुझे सदा के लिए गिरा दिया। जिसने दूसरी स्त्री को मेरे हिस्से का प्रेम, सम्मान , अधिकार सब दे दिया। नहीं, मैं उसे कभी माफ़ नहीं कर सकती , इस जन्म में तो कदापि नहीं ।

आज भी वह कहाँ बदला है?वह मानता ही नहीं कि उसने कभी भी कोई गलती की है। एक -दो बार मैंने उसका फ्रेंड रिक्वेस्ट यह सोचकर स्वीकार कर लिया कि हजारों के बीच वह भी रहे , क्या फ़र्क पड़ता है। उससे मिलना- जुलना तो होगा नहीं। पर जब वह मेरे पोस्ट पर उल्टी- सीधी टिप्पड़ी करने लगा तो उसे ब्लॉक करना पड़ा। पता चल गया कि वह जरा -भी नहीं बदला है। वह तो सोशल मीडिया पर भी मुझे बदनाम करने की कोशिश में है। उसे यह बर्दास्त नहीं हो रहा है कि मैं इतनी फेमस हूँ?वह मेरे वर्तमान के उजाले को अतीत की कालिमा से ढँक देना चाहता है।

अब भी वह तमाम चालें चल रहा है। मुझे प्रेम- गीत और पुरानी तस्वीरें भेजकर मेरे भीतर मर रहे प्रेम को जगाना चाहता है । वह सोचता है कि मेरी प्रेम- कविताओं में वही है। उसे लगता है कि आज भी मैं वही भावुक, भोली किशोरी हूँ जो प्रेम की एक पुचकार से पिघल जाती थी।

इस बार मैंने उसे कसकर फटकारा है कि टीन एज वाली हरकतें बंदकर अपनी कैंसर पीड़ित पत्नी का ध्यान रखे। दो पत्नियों को साथ रखने का सपना मैं पूरा नहीं होने दूँगी। मेरी बात पर झल्लाकर वह फिर अपने असली रूप में आ गया है। उसने मुझे ताना दिया है कि मै गैर -पारिवारिक और गैर- सामाजिक हूँ। बेटों ने भी मुझे छोड़ दिया है क्योंकि उन्हें भी पता है कि मैं गलत हूँ।

मैं गलत हूँ तो फिर मुझे छोड़ क्यों नहीं दे रहे सब?आखिर आधी से अधिक जिंदगी तो उनके बगैर गुजार ही ली है मैंने।

पर वे मुझे छोड़ने को भी तैयार नहीं ।

इस बार पोते के माध्यम से बेटे ने फिर से सम्पर्क साधा है। पोते ने अपनी तोतली आवाज में अपने बर्थडे पर मुझे अपने घर बुलाया है। बेटा जानता है कि मूल से सूद ज्यादा प्यारा होता है।

पर मुझे पता है कि भागी हुई स्त्री की इमेज मेरा पीछा नहीं छोड़ने वाली है।


(भाग तेरह )

छोटा बेटा आयुष न तो खुद फोन करता है , न मेरे किसी मैसेज का जवाब देता है। बड़ा बेटा आदेश कहता है कि वह आपसे बात नहीं करना चाहता। पता नहीं आपके उसके बीच क्या बात हुई है!वह दूसरी तरह का लड़का है। वह आपकी गलती को माफ नहीं कर पाया है। उसकी इन बातों से मन दुखता है। आखिर एक दिन मैंने बड़े बेटे को झल्ला कर बोल ही दिया कि क्या मैंने उसका खेत काटा है?

जबसे रिटायर हुई हूँ । आदेश कभी -कभी घर आने लगा है। कहता है -आकर मेरे घर रहिए। पर वह मुँह से कुछ कहता है और मेरे दिल तक कुछ दूसरी आवाज़ पहुंचती है। मुझे पता है कि उसकी पत्नी को मेरा उसके घर रहना अच्छा नहीं लगेगा क्योंकि उसके मायके वाले हमेशा उसके घर में डेरा डाले रहते हैं । वह मुझसे यह बात छुपाना चाहती है। मुझे देखते ही उसके चेहरे पर जो नागवार भाव उमड़ते हैं, उससे मैं पूर्व परिचित हूँ।

एक दिन आदेश मुझे भविष्य के लिए चिंतित देखकर कहने लगा कि चिंता क्यों कर रही हैं? आपको खाने -पीने की कमी नहीँ होने पाएगी। एक महीने में पाँच किलो चावल , आटे के सिवा और क्या चाहिए!आप व्हाट्सऐप कर दीजिएगा, मैं भिजवा दूँगा।

साथ ही उसने दुखी स्वर में यह भी जोड़ा कि ‘वैसे सभी को मुझसे ही कुछ चाहिए। मुझे कोई कुछ देना नहीं चाहता। पापा जी से बातचीत बंद है। मम्मी(सौतेली माँ)से भी कहा -सुनी हो गयी। वे हमेशा पैसे मांगती रहती हैं। कहती हैं -दोनों भाइयों को मैंने पाला । दोनों सरकारी नौकरी में हैं । इतना कमा रहे हैं, फिर भी रेगुलर पैसे नहीं भेजते।

हम दोनों भाई हर जरूरत, अवसर और तीज- त्योहार पर पूरे परिवार के लिए कपड़े से लेकर सारे खर्चे करते हैं। अभी उनकी कैसर की बीमारी में लाखों का खर्च किए , फिर भी वे संतुष्ट नहीं हैं। पापा ने पुश्तैनी जायदाद बेच दिया है और हमें कुछ नहीं दिया । चारों भाइयों के नाम (दो सगे दो सौतेले)एक जमीन खरीदा गया था , उसे भी बेच रहे हैं। सिर्फ सौतेले भाइयों की चिंता में मरे जा रहे हैं । कहते हैं कि दोनों अभी नौकरी में नहीं हैं और उनकी शादी भी नहीं हुई है, इसलिए उनकी चिंता है। पर हमलोगों के भी बीबी-बच्चे हैं। कहां तक उनकी बीबी -बच्चों के लिए खर्च करते रहें ? प्रिंसिपल के पद से रिटायर हुए। अच्छी -खासी पेंशन है। चार मंजिला मकान के तीन फ्लोर से अच्छा- खासा किराया आता है। ग्रैजुएटी में भी काफी रकम मिली थी। खेती भी है । तीसरे हीरो बेटे का भी अपना स्टूडियों है। कोई कमी नहीं फिर भी उन्हें हमलोगों से ही पैसा चाहिए। कहते हैं कि तुम लोगों को पालने के लिए दूसरी शादी की थी। चलिए शादी तक तो ठीक था , पर बच्चे क्यों पैदा किए ?क्या हमलोगों के भरोसे?

हम दोनों भाइयों ने फैसला कर लिया है कि वहां की जायदाद से कोई हिस्सा नहीं लेंगे , न वहाँ रहेंगे। वैसे भी हम उत्तर- प्रदेश में रहना चाहते हैं, पिता के घर बिहार में नहीं। क्या आप अपने घर के पते से आधार कार्ड बनवा देंगी?’

बेटे का आधार -कार्ड बनवाना यानी अपने घर को उसका आवास साबित करना। यानी घर के कागजात उसके हवाले करना। क्या यह ठीक होगा?

पता नहीं बेटे की इस पूरी कहानी का पूरा रहस्य क्या है?

पूरे दो वर्ष बाद आया है। कब तक आता रहेगा, पता नहीं? और कब उल्टी -सीधी बातों से मन दुःखाकर गायब हो जाएगा, इसका तो बिल्कुल भी पता नहीं !मेरी आँखों के ऑपरेशन के समय--मुझे आपकी चिंता करने की जरूरत नहीं' कहकर जो गायब हुआ तो दो साल बाद आया है , वह भी पोते को माध्यम बनाकर।

जाने क्यों उसकी बातें मुझे बेचैन करती हैं । मुझे उसकी बात पर भरोसा नहीं होता। मुझे बीमार देखकर भी उसके चेहरे पर सहानुभूति के भाव नहीँ उभरते । मैं मन ही मन आहत हो जाती हूँ। मेरी माँ और बहन की मृत्यु के समय भी वह मुझे सांत्वना देने नहीं आया।

अब मुझ पर दया करके वह राशन देने की बात कर रहा है वह भी यह जता कर कि मैंने उसके लिए कुछ नहीं किया है। यानी अब तक अपने इस छोटे से घर को उसके हवाले नहीं किया है। क्या मुझे उसकी सहायता स्वीकार करनी चाहिए?क्या रिटायर हो जाने के बाद मेरी स्थिति इतनी दयनीय हो गयी है?रहने के लिए घर है। बचत से कुछ वर्ष खाने- पीने की कमी नहीं होगी। जल्द ही कोई न कोई काम तलाश कर लूंगी ताकि कुछ आय हो सके।

जाने क्यों मुझे लगता है कि वह अपने पिता से मिला हुआ है और उसके इशारे पर मुझे इमोशनल ब्लैकमेल कर रहा है। इधर दो साल से मैंने भी मन को कड़ा करके उससे रिश्ता तोड़ लिया था। उसके पिता के हाथ -पांव मारने को भी असफल कर दिया था , इसलिए अब मेरी देखभाल का दिखावा किया जा रहा है।

कैसी मनस्थिति है अपनी ही संतान पर अविश्वास हो रहा है?क्या मेरा मानसिक संतुलन गड़बड़ा रहा है या फिर मुझे किसी बुरी घटना का पूर्वाभास हो रहा है।

(भाग चौदह )

कभी –कभी मुझे अपने छोटे बेटे आयुष पर बहुत गुस्सा आता है । वह मुझसे इतना अकड़ा हुआ क्यों रहता है?इतने घमंड, उपहास, उपेक्षा से बात करता है कि लगता है दुनिया की सबसे बुरी औरत मैं ही हूँ। मानती हूँ मेरे प्रति ये सारे भाव उसके पिता की देन है। उसने उसके मन में मेरे लिए इतनी नफरत भर दी है कि वह उस नफ़रत के धुंध में सच नहीं देख पा रहा। हाँ, ये सच है कि पांच साल की उम्र में वह मुझसे अलगाया गया था और तब से उसने सिर्फ पिता को जाना। उसकी ही बातें सुनी। उसकी आँखों से सब कुछ देखा....मुझे भी। पर अब तो वह युवा हो चुका है एक बेटे का पिता है। देश- दुनिया देख रहा है। मेरी बहन से सारी सच्चाई जान चुका है! फिर भी कुछ समझने को तैयार नहीं । जानती हूँ कि बचपन में ही माँ के प्यार से वंचित बेटे की मनःस्थिति कैसी रही होगी?मुझे अनुमान है उन तानों का , जिसे सुनना पड़ा होगा उसे। अपनी माँ के भाग जाने की बात उसे कितना कष्ट पहुँचाती होगी। वह घर, पड़ोस, स्कूल, सभा-समाज , दोस्त- मित्र सबसे इसलिए आँख चुराता होगा कि उसकी माँ भाग गई है। उसके भीतर इसीलिए इतनी कड़वाहट है, इसीलिए वह उम्र से पहले ही मैच्योर हो गया। इसीलिए वह इतना गम्भीर और जिम्मेदार है। इसीलिए वह एक सामान्य लड़का नहीं है। बारहवीं पास करते ही वह एयरफोर्स की नौकरी के लिए चला गया और तब से उसका पिता उसका धन -दोहन कर रहा है।

मैं उसे समझ रही हूँ। अपने प्रति उसके गुस्से को , उसकी नफ़रत को, पर क्या वह मुझे समझ पा रहा है?वह क्यों अपने बचपन की त्रासदियों के लिए सिर्फ मुझे जिम्मेदार समझ रहा है?एक बार भी उसने मेरी त्रासदी, मेरे अकेलेपन , मेरे दुःख को समझने का प्रयास क्यों नहीं किया?उसे क्यों लगता है कि अपनी आजादी, मौज -मस्ती व महत्वाकांक्षा के कारण मैंने अपने पति और बच्चों को छोड़ दिया?कोई भी संवेदनशील स्त्री ऐसा नहीं कर सकती।

कैसे बताऊं कितना तड़पी हूँ अपने बच्चों के लिए...कितने आँसू बहाए हैं। अकेले में चीखी- चिल्लाई हूँ ईश्वर से फरियाद किया है। हर ईंट, - पत्थर को देवता समझ उसके सामने माथा पटका है ताकि मेरे बच्चों का कभी बुरा न हो। वह क्या जाने कि बरसों से मैं पूजा- पाठ, व्रत उपवास कुछ नहीं करती क्योंकि जिस ईश्वर ने एक माँ से उसके बच्चों को छीन लिया , उसके प्रति कैसी आस्था!क्यों मैं उसकी पूजा करूँ?वह नहीं जानता कि मैंने रोजगार के लिए स्कूल इसलिए चुना ताकि दूसरे बच्चों को प्यार देकर अपने बच्चों को प्यार न दे सकने की पीड़ा भूल जाऊँ। उसे क्या पता कि आज भी सपने में नन्हे बच्चों को ही देखती हूँ , जो मुझसे बिछड़ जाते हैं। बड़े बेटे की तरह वह भी मेरी तकलीफ नहीं समझ सकता।

उसे यह नहीं पता कि मैंने उन्हीं के लिए उनके पिता पर खर्च का दावा नहीं किया। बिना तलाक के विवाह करने की सज़ा नहीं दिलाई।

और जो पिता बच्चों को पालने की आड़ में नई जवान बीबी के साथ मौज करता रहा , बच्चे पैदा करता रहा, वह मेरे अपने बेटों के लिए भगवान हो गया। उसने जो कहा वही सच हो गया। ये सच है कि कोई झूठ अगर रोज-रोज कई बार बोला जाए , तो वह भी सच लगने लगता है। पाँच साल की उम्र से लगातार सुना हुआ झूठ बच्चों के मन पर सच के रूप में अंकित हो चुका है।

बच्चे नहीं जानना चाहते कि वह उनका पिता ही था , जो उनके गर्भ में आते ही मुझे मायके पटक गया। कपड़े खराब होने के डर से उन्हें कभी गोद में नहीं उठाया। उनकी किसी जरूरत का ख्याल नहीं रखा। उनके पांच साल का होने का इंतजार करता रहा ताकि टट्टी -पिशाब की उम्र को वे पार कर जाएं। क्या उसने कभी पत्नी के पेट पर हाथ रखकर उनकी हरकत महसूस की? उनकी धड़कन को सुना?गीले में सोया?उन्हें अंगुली पकड़कर चलना और बोलना सिखाया? नहीं , यह सब मैंने अकेले किया और यह कोई अहसान नहीं था। हर माँ ऐसा करती है और यह भी सच है कि ऐसा करके मुझे अपार सुख मिला था। मेरे जीवन के सबसे आनंदपूर्ण क्षण वही थे।

जब बच्चे गर्भ में होते हैं तो माँ को जिस पूर्णता, सार्थकता और ब्रह्मानंद का आभास होता है, पिता उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। स्त्री गर्भावस्था में इसीलिए तो इतनी सुंदर, मधुर और शालीन हो जाती है। आत्मिक आनंद की जैसी अनुभूति उसे उस समय होती है, फिर कभी नहीं होती। मैं उस अनुभूति से गुजरी हूँ। वे घोर अभाव, गरीबी, बदहाली के दिन थे पर मैं भरी -पूरी , खुशहाल और धनवती थी क्योंकि मेरे गर्भ में सृजन हो रहा था। मैं विधात्री थी।

अपार पीड़ा सहकर बच्चों को जन्म दिया, पर जन्म देने के बाद जब उनका मुँह देखा तो सारे कष्ट भूल गयी। रूखा- सूखा खाने के बाद भी मेरे स्तनों से दूध की धार बहती रहती । पूरे दो वर्ष तक उन्हें ममता का अमृत पिलाती रही। मेरी दोनों बाहें उनके लिए तब तक तकिया बनी रहीं , जब तब वे अलग नहीं कर दिए गए। कैसा लगा होगा उस वक्त, जब मेरी बाहें सूनी कर दी गयी थीं?कैसे माफ कर देती उस आदमी को जिसने मेरी आत्मा पर ऐसा घाव लगाया था!

बेटे मेरी इन अनुभूतियों को नहीं समझ सकते। लड़की होते तो शायद किसी दिन जरूर समझते, पर वे तो बस इतना समझते हैं कि मैं उन्हें प्यार नहीं करती। उन्हें जन्म देना नहीं चाहती थी , उनको पाला नहीं और उन्हें छोड़कर भाग गई।

मैं उनकी नजरों में बस एक भागी हुई स्त्री हूँ।

(भाग – पंद्रह )

आँख के ऑपरेशन के लिए चेन्नई जाना चाहती थी। दो साल पहले एक आँख का ऑपरेशन कराया था, उस पर भी झिल्ली आ गयी है । दूसरी आंख का भी ऑपरेशन जरूरी है। मोतियाबिंद ने आँखों की रोशनी को धुंधला कर दिया है। पहले ऑपरेशन के समय बड़े बेटे ने देखभाल का आश्वासन दिया था, पर ऑपरेशन के ठीक पहले कन्नी काट गया। साफ कह दिया कि मुझे आपकी चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं । उसने सोचा कि कुछ खर्च न करना पड़ जाए , जबकि मैंने पैसों की व्यवस्था कर ली थी। बस कुछ दिन देखभाल की जरूरत थी, जो उसने नहीं की। उसकी बात दिल को इतनी चुभी कि ऑपरेशन के वक्त मेरा ब्लडप्रेशर हाई हो गया और डॉक्टर को इंजेक्शन लगाना पड़ा।

फिर मैंने दो वर्षों तक उससे कोई बात नहीं की। उसने भी न बात की , न देखने आया। फिर पिता के आगाह करने पर ( इस तरह संपत्ति हाथ से निकल जाएगी)पोते के बर्थडे के बहाने आया और आने -जाने लगा है। मैंने कोई शिकायत नहीं की। कोई फायदा नहीं था और फिर मेरा रिटायरमेंट भी होने वाला था। सोचा , देखूँ उसके बाद कौन- सा रंग दिखाता है?

अब रिटायर हो गई हूं । प्राइवेट नौकरी में कोई पेंशन नहीं। सिर्फ एक घर और कुछ सेविंग बस यही पूंजी है और भाई -बहनों से लेकर बेटे की भी उसी पर नजर हैं। सभी चाहते हैं कि सब कुछ उनके नाम कर उनके आश्रय में आ जाऊँ और उनके हिसाब से रहूँ । पर मैं जानती हूँ कि उनके घर कुछ दिन बाद ही मेरी क्या स्थिति होगी? भाई -बहन तो खुलकर अपनी मंशा व्यक्त नहीं करते , पर बेटा खुलकर सामने आ गया है। कभी वह घर बेचने की बात करता है , कभी घर किराए पर देकर अपने साथ किराए के घर में रहने की ताकि उस पैसे से मेरा खर्चा चल सके। जब मुझे ये दोनों ही बातें ठीक नहीं लगीं तो बेटे ने कहा है कि मैं उसके वारिस होने को सुनिश्चित कर दूं तो वह मुझे पांच हजार घर -खर्च के लिए दे सकता है। बाकी बड़े खर्चे मैं अपनी सेविंग से करूं। आंख का ऑपरेशन वह नहीं कराएगा। उसके अपने खर्चे हैं । (सरकारी नौकरी की अच्छी सेलरी और अतिरिक्त इनकम श्रोतों के बावजूद)

मैं चुप हूँ। कोई जवाब देने से पहले आँख का ऑपरेशन करा लेना चाहती हूं। इस बार भी उम्मीद लगा बैठी हूँ कि वह कुछ दिन देख-भाल कर ही देगा। पर सेवा का भाव न उसमें है न उसकी पत्नी में, फिर इस समय तो उसकी पत्नी गर्भ से है। भाई -बहन कहते हैं -बेटे को ही सब कुछ दोगी तो वो देखभाल करे । बेटा कहता है -भाई- बहन जिम्मेदारी उठाएं । सभी एक- दूसरे पर टाल रहे हैं, जबकि अभी तक मैं खुद ही अपनी जिम्मेदारी उठाती रही हूँ । ईश्वर स्वस्थ रखें तो आगे भी उठा लूंगी। बस आंखों का ऑपरेशन सफल हो जाए।

छोटे बेटे से कुछ ज्यादा ही उम्मीद रखती हूं इसलिए सोचा कि चेन्नई जाकर आँख का ऑपरेशन करा लूँगी। बेटा वहीं एयरफोर्स में है। उसे फोन किया.... व्हाट्सऐप किया पर उसने कोई जवाब नहीं दिया। मैंने बड़े बेटे से उससे बात कर लेने को कहा , क्योंकि वह उससे बात करता रहता है। मैंने उसे बताया कि जाने क्यों वह मेरा फोन ही नहीं उठाता है?तो वह मजे लेकर बोला कि वह मेरे जैसा नहीं कि आपसे बात करे। वह आपसे नाराज रहता है।

फिर भी मुझे बड़े बेटे से ज्यादा भरोसा छोटे पर था। वह मेरा प्रतिरूप जो है। मैंने दुबारा उससे बात करने को कहा तो फिर बड़े बेटे ने कहा-वह आपसे बात नहीं करेगा। पता नहीं आप लोगों के बीच क्या बात है?

मुझे उसकी बात से दुःख हुआ पर विश्वास न टूटा। आज मैंने फिर बड़े बेटे से कहा कि उससे कहो कि मुझे चेन्नई बुला ले तो वह नाराज़गी से बोला --आप ही बात कर लीजिए। उसने फोन मिलाकर मुझे थमा दिया। भाई का फोन जानकर छोटे ने फोन उठाया पर मेरे 'हलो' कहते ही फोन काट दिया। उसने मेरी आवाज पहचान ली थी। बात साफ थी कि वह मुझसे कोई रिश्ता नहीं रखना चाहता और न ही कोई जिम्मेदारी लेना चाहता है। बड़ा बेटा मन ही मन बहुत खुश था कि छोटे ने मुझे मेरी औकात दिखा दी। पर जाने क्यों छोटे के इस व्यवहार के पीछे मुझे उसके पिता और बड़े बेटे की कोई जालसाज़ी लग रही है। छोटा मेरी तरह है बड़ा अपने पिता की तरह शायद इसीलिए उसके मन में कुछ ऐसी बातें भर दी गयी हैं कि वह मुझसे इतना ख़फ़ा है। दोनों नहीं चाहते कि वह मुझसे जुड़े क्योंकि वह भी मेरी तरह न तो किसी से आसानी से जुड़ पाता है न रिश्ता तोड़ पाता है।

 अंततः मोह के उलझे धागे टूट ही गए। मैं हर बार ठोकर खाती थी और गलती अपनी ही मानती थी। मैं इस मानवीय स्वभाव को नहीं समझ पाती थी कि ठोकर के उपकरण जान- बूझकर मेरे सामने किए जा रहे हैं। मैं सीधी -सरल स्वभाव की स्त्री दुनिया के दांव -पेंच नहीं समझ पाती हूँ। समझती भी हूँ तो देर से, कभी -कभी तो बहुत ही देर से। अपनी उम्र का लंबा हिस्सा इन्हीं सब में गंवा दिया। अपनी तरफ से ही सब कुछ ठीक करने की कोशिशों में लगी रहती हूँ, पर इकतरफा कुछ भी नहीं होता। न पति को मुझसे प्रेम था, न बच्चों को है। दोनों ही सारी कमियों, , बुराइयों, गलतियों का ठीकरा मेरे सिर पर फोड़कर मेरे प्रति कोई जिम्मेदारी महसूस करना नहीं चाहते। उनके मन में मेरे प्रति न सम्मान है न सहानुभूति , न लगाव तो मैं क्यों मरी जाती हूँ उनके लिए!फ़टे दूध को माखन बनाने का सतत उपक्रम! धिक्कार है मुझे!

आखिरकार बेटे का असली चेहरा खुलकर सामने आ गया। वह कुछ दिनों से एक अच्छे और केयरिंग बेटे का मुखौटा लगाए हुए मुझ पर लगातार मानसिक प्रेशर बना रहा था कि मैं अपने घर को उसे सौंप दूं ताकि वह उसे बेंच दें। वह मुझे अपने किराए के उस घर में रहने का ऑफर दे रहा था , जहां सतत उसके पिता , उसकी विमाता और सौतेले भाइयों की उपस्थिति बनी रहती है। वहां वह मुझे किस रूप और स्थिति ने रखेगा, इसकी कल्पना मैं सहज ही कर सकती हूँ। वह मुझे अपने पिता के बदले की आग में जलाकर खत्म करना चाहता है। मेरे आत्मसम्मान को कुचलकर मुझे भिखारिन की स्थिति में देखने की अपने पिता की इच्छा को पूरा करके अपना पितृऋण चुकाना चाहता है। छोटा की मंशा भी उससे अलग नहीं है। वह अलग होता तो मुझसे बात तो करता। अपनी शिकायत ही शेयर करता। वह अपनी जननी से इतना घमंड दिखा रहा है तो वह जन्मभूमि की क्या सेवा करेगा?

नहीं , मुझे इन सबसे (भावनात्मक रूप से भी )खुद को पूरी तरह दूर कर लेना जरूरी है। मैं अब अपने भीतर की स्त्री को और दुःख नहीं दे सकती। अब न उनकी मुझसे कोई अपेक्षा रहे , न मैं ही उनसे कोई उम्मीद रखूं। सब कुछ खत्म करना ही होगा। यह सोचना ही होगा कि वे पूर्व- जन्म की कहानी के पात्र हैं। इस जन्म में मैं अकेली स्त्री हूँ जिसके पास कोई रिश्ते- नाते नहीं हैं। वह सिर्फ ईश्वर की है और ईश्वर ही उसके हैं ।

हाल में हुए बेटे से विवाद को आखिरी विवाद बनना होगा। जब उनसे कोई रिश्ता नहीं, फिर विवाद कैसा?जानती हूँ वे लोग इतनी आसानी से मुझे नहीं छोड़ेंगे। वे मुझे आसान मौत भी नहीं देना चाहेंगे, जैसे आसान जिंदगी नहीं देना चाहते थे।

आखिरकार मैं उनके लिए आज भी एक भागी हुई स्त्री जो हूँ।


भाग –सोलह

दूसरी आँख का आपरेशन हो गया। आसान नहीं था, पर हो गया। न बेटों ने मदद की न भाई -बहनों ने और न ही किसी रिश्तेदार ने। जिस स्कूल को अपना पूरा जीवन दे दिया। उसने भी समय से पूर्व रिटायर करके पीछा छुड़ा लिया। शायद सबको लगता है कि मैं पूरे जीवन अकेली रहकर नौकरी की है तो मेरे पास कुबेर का खजाना तो अवश्य ही होगा। ऐसा न भी लगता हो तो भी मेरी मदद के लिए कोई आगे क्यों आए ?मैं किसी से कोई अपेक्षा करने वाली होती भी कौन हूँ ?आखिर मैंने भी तो किसी के लिए कुछ नहीं किया है। अपने अस्तित्व को बचाने और स्वाभिमान के साथ जीने में ही मेरा जीवन निकल गया है। नौकरी की व्यस्तता ने सामाजिक जीवन के लिए अवकाश ही नहीं दिया। परिवार था ही नहीं कि एक सुखद पारिवारिक जीवन ही जीती। मेरे साथ रिटायर हुए अध्यापक अब खुशहाल पारिवारिक और सामाजिक जीवन जी रहे हैं और मैं हसरत भरी नजरों से किसी ऐसे के आने की प्रतीक्षा कर रही हूँ। जो मेरे मन और जीवन के अकेलेपन को दूर कर दे। नौकरी में रहते यह अकेलापन उतना नहीं सालता था। स्कूल के बच्चों , साथी अध्यापकों के दुख-सुख और स्कूल –घर के कामों में ही सारा वक्त निकल जाता था। शेष वक्त में साहित्य-सृजन।

अब तो समय ही समय है। आज़ादी है। अपनी इच्छा से जागने-सोने , कहीं आने-जाने , घूमने-टहलने , किसी से भी बोलने-बतियाने, मिलने-जुलने , पढ़ने-लिखने सबकी। पर अब किसी चीज में पहले -सा न उल्लास है न खुशी। हर चीज , हर रिश्ते , हर काम की निरर्थकता का आभास शिद्दत से होने लगा है।

इस बार आँख के आपरेशन के लिए छोटी बहन के घर लखनऊ जाना पड़ गया था क्योंकि मित्र, भाई-बहन , बेटे या अन्य कोई एक-दो दिन के लिए भी मेरे पास रहकर मेरी देखभाल के लिए तैयार नहीं था। सोचा कि बहन तो बहन होती है , न चाहते हुए भी देखभाल तो कर ही देगी। अक्सर वह अपने घर आने का आमंत्रण देती भी रहती थी। मुझे आया देखकर बहन का चेहरा उतर गया। उसने अनमने भाव से कहा –अभी तो बहुत गर्मी है, जाड़े में आपरेशन के लिए आना चाहिए था। चलो आ गई हो तो अब मेरे पति को झेलना। कल डाक्टर के पास चलूँगी।

तभी बहन के पास बड़े भाई का फोन आया। आपरेशन हेतु मुझे आया जानकर उसने बहन से कहा कि अपने बेटे[सोलह वर्ष] के साथ भेज देना हास्पिटल। तुम क्यों हास्पिटल जाकर परेशान होगी ? भाई ने लखनऊ में ही नया फ्लैट लिया है पर इन दिनों अपने कस्बे वाले घर गया हुआ था। उसने इसी बहन के घर रहकर ही अपनी दोनों आँखों का आपरेशन कराया था। माँ का आपरेशन भी यहीं हुआ था। बड़ा शहर और राजधानी होने के कारण यहाँ बेहतरीन हास्पिटल थे। देखभाल के लिए बहन और उसका परिवार था। बहन ने सबकी अच्छी तरह देखभाल भी की थी, पर मेरी बात और थी। मैं जबरन गले आ पड़ी थी। भाई को इसी बीच लखनऊ आना था , पर जब उसने सुन लिया कि मैं आपरेशन के लिए आई हूँ तो नहीं आया। कहीं उसे या उसकी पत्नी को मेरी सेवा न करनी पड़ जाए। कहीं मैं उसके फ्लैट में न आ बसूँ। वह मेरे लिए खुद तो कुछ करना नहीं चाहता था, पर बहन को भी मना कर रहा था। इस बात पर मुझे बहुत क्रोध आया। भाई लेन-देन की भाषा ही समझता है। वह छोटी दो बहनों को , जो इसी शहर में ब्याही हैं –को भड़काता रहता है। वह चाहता है कि वह खुद तो इनसे घनिष्ठता रखे पर अन्य भाई-बहन 

काम से काम रखें। वह सीधे कहता है कि सेवा के बदले कौन क्या देगा ?जब कोई कुछ देगा नहीं तो उससे मतलब क्यों रखा जाए ?बड़ी दीदी जब कैंसर से लड़ रही थीं तो छोटी बहनों ने उनकी थोड़ी देखभाल कर दी थी क्योंकि दीदी भी उसी शहर में थीं। अचानक दीदी की मौत हो गई। दीदी के मृतक भोज से जब हम सभी छोटी बहन के घर लौट रहे थे। रास्ते में भाई ने कहा कि चालाक थी दीदी , छोटी बहनों को भी कुछ नहीं दे गई। दीदी अमीर थीं और थोड़ी कंजूस भी। अपने पीछे वे अपार संपत्ति छोड़ गईं थीं। उनकी आलमारियाँ रेशमी साड़ियों और जेवरों से भरी थीं। छोटी बहनों ने भी भाई की बात का समर्थन किया। मैं दुख में डूब गई कि इन्हें दीदी के असमय मरने का दुख नहीं। दुख बस इस बात का है कि उनकी सेवा के बाद भी दीदी कुछ सोना –चांदी नहीं दे गईं। दीदी को कहाँ पता था कि वह मर ही जाएंगी फिर आखिरी कुछ महीनों में वे अपना मानसिक संतुलन भी खो बैठी थीं। किसी को पहचानती नहीं थीं। मुँह में जबरन रखा गया खाना तक नहीं खा पाती थीं।  

उस दिन जब छोटी बहन ने भाई को खुश करने के लिए मछली बनाई तो मुझसे न खाया गया। दिन में मृतक भोज और रात में मछली –भोज। रक्त सम्बन्धों के बीच की आत्मीयता, संवेदना , प्रेम कहाँ गुम होती जा रही है ?

भाई जब भी बहनों के घर आता है , वे उसे खुश करने के लिए उसका मनचाहा भोजन बनाती हैं। उसे खुश करने के लिए उसकी हाँ में हाँ मिलाती हैं। एक दिन मैंने एक बहन से इसका कारण पूछ लिया तो उसने जवाब दिया कि भाई के आने-जाने से ससुराल में उसकी धाक बनी रहती है। भाई मेरे घर नहीं आता और मुझे इसकी परवाह भी नहीं रहती। भाई किसी का सगा नहीं है। वह तो माँ के साथ भी दुर्व्यवहार करता रहा था। मुझे याद है कि एक बार माँ गिरकर घायल हो गई थीं। उनका चलना –फिरना रूक गया था। उस समय उन्हें शौच कराना बड़ा मुश्किल था। भाभी वाकर लगाकर किसी तरह उन्हें नित्यक्रिया कराती थीं। जब मुझे खबर मिली तो छुट्टियाँ लेकर माँ के पास गई। मुझे देखते ही भाभी ने कहा—अब आप ये सब कराइए। मैंने कहा –जरूर कराऊंगी , वह भी खुशी से। माँ ने नौ बच्चों की गंदगी साफ की तो क्या हम उसका नहीं कर सकते ?

उन दिनों भाई माँ पर बहुत झल्लाता था। उनके सामने तो नहीं पर अपने परिवार के सामने कहता था कि हम तो जीने के लिए खाते हैं पर माँ खाने के लिए जी रही है। माँ पूर्ण स्वस्थ थी। उम्र सत्तर की जरूर हो गई थी पर चमकती रहती थी। पिताजी की मृत्यु तो हमारे बचपन में ही हो गई थी। माँ ने ही अपने नौ बच्चों को संभाला। सबको पढ़ाया-लिखाया , सबकी शादियाँ कीं। यह सब वह छुई-मुई बनकर तो कर नहीं सकती थी। माँ घर से बाहर निकली , जोड़-तोड़, काट-कपट सब किया और इतने बड़े परिवार की नैया को मजबूत बनाया ताकि वह संसार –सागर की थपेड़ों को सहकर पार उतर सकें। पर माँ के सभी बच्चों को उनसे शिकायत है। भाइयों को जमीन-जायदाद नाम-भर का होने की और बहनों को मनचाहा पति न मिलने की। माँ की स्थिति परिस्थिति समझने के लिए कोई तैयार नहीं। जेबी तक माँ जीवित रही , सब पर बोझ बनी रही। तीनों बेटों ने अपनी कमाई से तीन हवेलियाँ बनाईं, पर माँ के लिए किसी के पास जगह नहीं था। घर में जगह मिल भी जाती थी पर बेटों के दिलों में उसके लिए कोई सम्मान-जनक स्थान नहीं था। उसकी रोटी, दवाई का खर्चा तीनों बेटे बारी-बारी से उठाते जरूर थे , पर तमाम तानों-उलाहनों के साथ।

माँ को पुत्र-मोह जरूरत से ज्यादा था। बेटियों के घर उसका मन नहीं लगता था। मेरे पास तो वह और भी नहीं टिकती थी। हमेशा बेटों-पोतों की चिंता में रहती। फिर भी अपने बुढ़ापे में वह बहुत ही अकेली पड़ गई थी। माँ जीना चाहती थी। रेशमी साड़ी , कश्मीरी शाल और बढ़िया मोबाइल का उसका सपना था , जो पूरा नहीं हो पाया, जबकि उसके तीनों बेटे उसके जीवन काल में ही लखपति बन चुके थे। उन्होंने माँ की आँख का आपरेशन नहीं कराया तो माँ छोटी बहन के घर अकेली ही पहुंची और अपने खर्चे पर आपरेशन कराया। माँ के बच्चों को भी लगता था कि माँ के पास बहुत पैसा है और वह इस या उस बेटा या बेटी को दे देगी। माँ अपने खर्चे के लिए सूद पर पैसा चलाती थी , वह भी बस काम-भर का ताकि हर बात के लिए बेटों की मुहताजी न रहे। पर उसके पास थोड़ा-बहुत पैसा होना भी उसकी संतानों को खल जाता था। माँ के नाम वही छोटा –सा पुराना घर था, जहां हम-सबका बचपन गुजरा था। उस घर के भी तीनों कमरों पर तीनों बेटों का ताला लटका रहता था। माँ बारामदे को घेरकर बनाई गई छोटी –सी कोठरी में अपना जीवन बीताती थी। बेटों से कभी कोई खर्च मांग लिया तो वे पहले तो एक-दूसरे पर टालते थे फिर माँ को लालच न करने की सलाह के साथ कुछ पैसे दे देते थे। छोटी बहनें भी चालाकी से माँ की सेविंग ले लेती थीं।  

माँ तो भागी हुई स्त्री नहीं थी। , फिर उसके साथ वह सब क्यों हुआ , जो अब मेरे साथ हो रहा है।


भाग सत्रह 

आपरेशन के बाद एक सप्ताह मैं बहन के घर रही। इस बीच बहन के पति और बच्चों ने मुझसे कोई मतलब नहीं रखा। बहन की बेटी घर रहकर ही आई ए एस की तैयारी कर रही है और बेटा कालेज में है। मैं किसी काम से उन्हें बुलाती तो वे अनसुना कर देते थे। बहन का पति तो मुझसे बोला तक नहीं। दरअसल इसमें उनका कोई दोष नहीं था। बहन पति और बच्चों के सामने ही सबकी अच्छाई –बुराई का बखान करती रही है। इसी कारण उनके मन में सबके प्रति वही भाव है , जो बहन के मन में है। ये बात और है कि वह सबसे सामने अच्छा व्यवहार करके सबकी प्रिय बनी रहती है। मुझसे पंद्रह वर्ष छोटी होने के बावजूद वह दुनियादारी में प्रवीण है। बिना फायदे के किसी से रिश्ता नहीं रखती। अपने बच्चों और पति के मन में मेरे लिए कड़वाहट उसी ने भरी है। उसकी और उसके परिवार की मेरे छोटे बेटे आयुष से दोस्ती है। वह उनके यहाँ बराबर आता रहा है और उसके इमोशन का फायदा भी ये लोग उठाते रहे हैं। बहन चाहती तो आयुष के मन में पड़ी गाँठ खोल सकती थी, पर उसने उसकी एक भी शिकायत दूर नहीं की। उल्टे उसे समझाया कि वह आज जो कुछ है , अपने पिता के कारण है, इसलिए उनका साथ कभी न छोड़े। हालांकि वह कहती है कि ऐसा उसने इसलिए कहा था कि वह आयुष का विश्वास जीत सके। कितनी अजीब बात थी कि बहन का परिवार मेरे बेटे से आर्थिक लाभ लेता था। उससे महँगे तोहफे लिए जाते थे। यहाँ तक कि लखनऊ में प्लाट दिलाने के बहाने उसके लाखों रूपए डूबा दिए गए। बाद में कह दिया गया कि प्लाट बेचने वाला फ़्राड था और इस समय जेल में है। सबसे अजीब बात तो ये थी कि बहन और आयुष दोनों मुझसे हर बात छुपाते रहे।

बहन बड़े ही गर्व से कहती कि आयुष कहता है कि औरत आपके जैसी होनी चाहिए। पति की ज्यादती सहकर भी आपने उनका घर नहीं छोड़ा , बच्चों को छोड़कर भागी नहीं। धीरे-धीरे ही सही पर अपना घर-परिवार को खुशहाल बना लिया।

प्रकारांतर से दोनों मेरे ही जीवन की समीक्षा करते हैं। मेरे किए पर टिप्पड़ी करते हैं। बेटे की बात तो फिर भी समझ में आती है पर क्या बहन ऐसी होती है ?क्या सब कुछ जानने के बावजूद भी वह मेरे पक्ष में खड़ी नहीं हो सकती?बेटे का ब्रेन-वाश नहीं कर सकती ?वह तो चालाक लोमड़ी की तरह हमारे बीच की वैमनस्यता का फायदा उठाने में जुटी है। वही क्यों मेरी सारे भाई-बहन भी मन ही मन मुझे ही दोषी मानते हैं। बेटों से यहाँ तक कि उनके पिता से भी उनकी सहानुभूति है। वे जब आपस में मिलते हैं तो मुझे ही स्वार्थी , कंजूस, आजाद -ख्याल ठहराने की कोशिश करते हैं। दरअसल उन्होंने मेरे जीवन को नजदीक से नहीं देखा। बस माँ ही मेरी हर व्यथा की साझीदार रही और अपने जीते –जी उसने मेरे पति को माफ नहीं किया।

मेरे भाई-बहनों की मुझसे कटने की कई वजहें हैं। उनमें बड़े भाई और सबसे छोटी बहन के अलावा कोई ग्रेजुएट नहीं है। उनकी अपनी कोई पहचान नहीं है। शिक्षित समाज में उच्च स्थान नहीं है। अपनी कोई सोच नहीं है। सभी विलासितापूर्ण जीवन जीते हैं। आर्थिक दृष्टि से सभी सम्पन्न हैं पर विचार-शून्य। घोर परंपरावादी और सामाजिक , धार्मिक रूढ़ियों पर चलने वाले। वे मुझे कैसे समझ पाएंगे ?वे सिर्फ पैसे की भाषा समझते हैं।

वे मुझसे इसलिए भी नाराज हैं कि मैंने अपनी बागडोर उनके हाथ नहीं सौंपी है। अपना वारिस उनमें से किसी की संतानों को नहीं बनाया है। वे जानते हैं कि सारे अंतर्विरोधों के बावजूद मैरे बेटे ही मेरे उत्तराधिकारी होंगे। इसलिए चिढ़ में वे मुझे चालाक, स्वार्थी , मतलबी जाने क्या-क्या समझते और कहते हैं। मेरे बेटों को मेरे खिलाफ भड़काते हैं कि मैं सबसे कहती हूँ कि मेरे बेटे संपत्ति के लालच में मेरे पास आते हैं । जबकि वे खुद मुझसे यही बात कहते हैं कि बेटे लालच से आ रहे हैं। उन्हें तुमसे कोई प्रेम या लगाव नहीं है। मेरे भाई-बहनों की इस राजनीति को मेरे बेटे नहीं समझते , पर मैं खूब समझती हूँ।  

मेरे बेटे कभी अपने पिता की झूठ-फरेब से भरी बातें सुनते हैं। कभी मेरे भाई-बहनों की , बस मेरी बात नहीं सुनते। काश, वे समझ सकते कि भागी हुई स्त्री भी एक माँ होती है. जो किसी भी हालत में अपने बच्चों का अहित नहीं कर सकती।



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