" गुरु का अभिनन्दन " ( संस्मरण )
" गुरु का अभिनन्दन " ( संस्मरण )
सबके के भाग्य का सितारा कहाँ बुलंद होता है कि जिसके सिर पर गुरु द्रोणाचार्य के हाथ हों ? समस्त विद्यार्थियों की अभिलाषा होती है कि हम वीर धनुर्धर अर्जुन बने। पर सपने सबके पूरे नहीं होते। अधिकांशतः लोग साक्षात् सानिध्य से वंचित रह जाते हैं। और उन्हें एकलव्य बनना पड़ता है। हमें भी गुरुओं के सानिध्य में रहने का अवसर नहीं प्राप्त हुआ। परन्तु सिखने की ललक ने हमें "एकलव्य" बना दिया। प्राथमिक पाठशाला में तो हमें यह ज्ञान भी नहीं था और ना माध्यमिक स्कूल में हम सोचने के काबिल ही थे। परन्तु अपने गुरु की ललक हमें अपने कॉलेज में होने लगी। अवसर तो हमें मिल ना सका कि हम किसी के घोषित शिष्य बन जायें। पर ऐसी स्थिति में हमें अपना निर्णय करना था कि हम किसे अपना द्रोणाचार्य बनायें ? हमारी निगाहें गुरुओं में टिकी हुयी थी। सब गुरुओं में प्रतिभा ही प्रतिभा भरी पड़ीं थीं। पर हमें तलाश थी उनकी, जिनकी परछाइयों में रहकर सर्वांगीण विकास हो सके और एक सफल धनुर्धारी बन सकें। थोड़े ही दिनों के पश्चात हमने अपनी मंजिल पा ली। हमारे गुरुदेव द्रोणाचार्य "प्रो ० रत्नेस्वर मिश्र "बन गए। उनकी हरेक भंगिमाओं पर हमारी बकोदृष्टि लगी रहती थी। कॉलेज में आना, अपने स्टाफ और मित्रों से बात करना, क्लास में पढ़ाना, हमारे साथ खेलना, अलग से पर्सनालिटी बिल्डिंग क्लास चलाना इत्यादि हमारे हृदय को छूती चली गयी। हम उन्हें और उनकी निस्वार्थ सेवाओं को अपने में उतारने की चेष्टा करने लगे। उनकी छवि को हमने अपने हृदय में वसा लिया और उनके पदचिन्हों पर चलते -चलते आज इस मुकाम तक आ पहुंचे हैं। यह तो इस छोटे यंत्र का कमाल है जो हम अपने गुरुदेव को एकलव्य बनने का परिचय दे सके अन्यथा दर्शन होना दुर्लभ था।.....सहस्त्रों और असंख्य बार आपको प्रणाम गुरुदेव ..हमें गर्व है ..हम आपके शिष्य हैं।
