गृहस्थी की गाड़ी
गृहस्थी की गाड़ी
"कितना खर्चा करती हो तुम ? सारी तन्ख्वाह तुम्हारे हाथों में देता हूँ। फिर भी हर महीने की अंतिम तारीख को तुम्हारे हाथ खाली हो जाते हैं और मुझसे लड़ने लगती हो। यह हर रोज का तमाशा है तुम्हारा। जो है इसी में चलाओ मुझसे अब और नहीं कमाया जाता। "रवि ने अपना सिर पकड़ते हुए कहा। "इसलिए तो कहती हूँ, मुझे भी नौकरी करने दो। इतना पढ़ लिख कर क्या फायदा ? अगर हमें एक एक पैसे के लिए तरसना पड़े। बच्चों की स्कूल की फीस ,बाबूजी की दवाई और रोज की बढ़ती ये महंगाई। मैं नहीं कहती कि तुम कम कमाते हो। खर्चे बढ़ रहे हैं। बच्चों की ख्वाहिशों को तो हम नहीं दबा सकते। हमने अपनी सारी जिंदगी अपनी ख्वाहिशों का गला घोंट कर जिया है ,पर अब बच्चों को ऐसे नहीं देख सकती। पर पता नहीं कहाँ से तुम्हारी मेल ईगो हर्ट होने लगती है। मैं ट्यूशन के लिए ही तो कह रही।"प्रिया ने कहा।
"फिर घर के काम कैसे होंगे ?बच्चों की पढ़ाई कैसी होगी ? सब हो जाएगा राज़। चिंता मत करो। मैं घर से बाहर भी नहीं जा रही। घर पर ही बच्चों को पढ़ाऊँगी। तुम्हारी मदद करके मुझे भी बहुत खुशी होगी। तुम्हें इस तरह परेशान देखकर मुझे बहुत दुख होता है। हम जीवन साथी है, तुम्हारा कदम कदम पर साथ देना मेरा कर्तव्य है। प्लीज मुझे मना मत करना। मुझे अपना कर्तव्य पूरा करने दो।"
"ठीक है प्रिया। जैसा तुम ठीक समझो। पर अपनी तबीयत का ध्यान रखना। मैं भी घर के कामों में तुम्हारी मदद करूँगा। तभी तो हमारी गृहस्थी की गाड़ी सही दिशा में दौड़ेगी। एक वादा करो। "
"क्या। "
"तुम अपनी कमाई से अपने लिए भी खर्च करोगी।" ठीक है। वादा करती हूँ। " और राज़ ने प्रिया को गले लगा लिया।
