Namrata Sona

Inspirational

3.6  

Namrata Sona

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गृहप्रवेश

गृहप्रवेश

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"आओ..आओ... आओ " आँगन में विश्वा पंछियों को बाजरा डाल रहा था, पर एक भी पंछी वहाँ नहीं आया। आँगन में तुलसी क्यारी में अगरबत्ती जल रही थी, किंतु उसकी खुशबू खो चुकी थी। विश्वा की आँखों से आँसू और बीता समय छलक रहा था।

"बाबूजी, ये फसल के पैसे, ये फलों के और ये सब्जियों के.. आप गिन लीजिए" विश्वा ने दशरथ जी से कहा।

"अरे बेटा, गिनना कैसा, तुम हिसाब क्यों देते हो, क्या हमें तुम पर विश्वास नहीं? ये लो, ये पैसे, तुम्हारे हाथ खर्च के लिये" बाबूजी ने कुछ रुपये विश्वा के हाथ पर रख दिए।

"जी बाबूजी" कहकर विश्वा कमरे से बाहर निकल गया।

"ले आए भीख, अरे जब सारा काम तुम करते हो तो, फिर ये भिखारी जैसा हाथ क्यों फैलाना पड़ता है, इन पैसों पर तुम्हारा पूरा अधिकार है, बैठे हैं वो कुंडली मारकर" पत्नी शारदा ने ताना मारा।

"चुप रहो शारदा, तुम जानती हो, वो मेरे चाचा हैं, ये तो उनका उपकार है कि उन्होंने मुझे बेटे से बढ़कर चाहा, पाल पोस कर बड़ा किया, यहाँ तक कि मेरी वजह से उन्होंने विवाह नहीं किया, ताकि वे मुझे उनका पूरा स्नेह दे सकें" विश्वा ने शारदा को चुप करवाते हुए कहा।

"हुह, चाचा हैं इसलिए ही वह तुम्हारा शोषण कर रहें हैं और तुम कुछ समझते ही नहीं " शारदा ने तुनककर कहा।

"शारदा, अब तुम बिल्कुल चुप हो जाओ, कहीं वो सुन न ले, हमें उनका एहसानमंद होना चाहिए" विश्वा ने शारदा को फटकारा।

चाचाजी ने सब सुन लिया।

"ओह, विश्वा उपकार का बदला चुका रहा है, मेरी जीवन भर की तपस्या फलीभूत न हो सकी, लगता है अब मेरे पलायन का समय हो गया है, ताकि मेरा बेटा मेरे प्यार के एहसान के बोझ से मुक्त हो सके, तब शायद वह समझ सके कि पिता केवल पिता होता है" चाचाजी मन ही मन बोले।

रात अंधेरे शाल मे लिपटा एक पिता पुत्र को बंधन मुक्त कर लाठी के सहारे पलायन कर गया।

आँगन मे आवाज़ गूँज रही थी...

"आओ...आओ" 

बहते हुए आँसू कह रहे थे..

"किसे बुला रहे हो, बाबूजी के साथ पंछी और अगरबत्ती की महक भी घर से पलायन कर गए।"

तभी एक पंछी आया, एक एक करके और पंछी भी आने लगे, दाना खाने लगे, अचानक अगरबत्ती की खूशबू से सारा आँगन महकने लगा।

"विश्वा..." चाचाजी की आवाज़ से विश्वा जैसे नींद से जागा।

द्वार पर शारदा और चाचाजी खड़े थे। शारदा उन्हें खोज लाई थी।

"आईऐ बाबूजी, हमारे घर से जो ख़ुशियाँ पलायन कर गई थी, आज उनका पुनः गृहप्रवेश है " शारदा की आँखों से पश्चाताप के आँसुओं का झरना निर्बाध बह रहा था।



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