घर
घर


कमरे के भीतर घर था ,घर के भीतर कमरा नहीं यह बात वह सदियों से जानती थी।ठीक तब से जब से वह शादी कर यहाँ आई थी। घर कैसे होते होंगे ? शादी से पहले वह कई बार खुद से ही सवाल करती और जवाब नहीं मिलते| फिर एक रोज़ उसका अपना घर हुआ ,पर अपना कहाँ था वो घर ? लड़कियों के अपने घर कहाँ होते हैं ? होते भी हैं तो दस या चार बाई चार के कुछ कमरे। कमरे की सीलन हटाते हुए उसके हाथ कुछ देर नमी पकड़े रहे। बारिश के दिनों में हर साल इन दीवारों में नमी लग जाती और देखते ही देखते उस नमी पर आकर फफूंद चिपक जाती। उसकी ज़िंदगी पर ये फफूंद भी तो न जाने कितने दिनों तक लटकी हुई थी नमी में रहने की आदत कैसा बना देती है न इंसान को। उसने खुदसे कहा और एक फूटती हुई आँख बह निकली। कभी -कभी हम अंदर से कितना टूट जाते हैं हमें भी मालूम नहीं होता। रिश्ते पाने की चाह ,कितनी खोखली चाह है न कि तुम उसे पाने की आस कोशिश में तमाम ज़िन्दगी खो देते हो और अंत में कुछ भी हाथ नहीं लगता सिवाय अपने को खोने के। उसने नमी हटा कर अब पोछा लगा दिया है। प्रदीप ने एक कप कॉफी की मांग कर दी है।
" सुधा "सुधा एक कम कॉफी बना दो ,मुझे ऑफिस का काम करना है।" ये वही प्रदीप है जो कुछ रोज़ पहले तक उसके हर दिन का ख्याल रखता और बेड टी बनाकर पिलाता था।आज कितना बदल गया है। मर्द तब तक औरत के लिए होता है जब तक उसकी ख्वाहिशें ,उसकी चाहते बनी रहती हैं उसके बाद वह सिर्फ़ मर्द बचता है। जिसे औरत के लिए सिर्फ़ एक जगह दिखती है उसका घर। पर क्यों ? सुधा ने चीख़ कर कहा ! "क्यों बना दूँ मैं कॉफी तुम क्यों नहीं ? हर बार तो बनाते थे न प्रदीप।"
" थोड़ा चुप रहो माँ सुन लेगी ! उनका घर है" प्रदीप ने हाथ पकड़ते हुआ कहा।
"उनका घर? फिर मेरा घर? वह कहां है ???"
सुधा ने हाथ झपटे हुए कहा - "औरत का तो कोई घर ही नहीं होता है न फिर माँ या मेरा घर कैसे हुआ ? तुम्हारे नियम ,तुम्हारी ज़िन्दगी और तुम्हारा घर।"सुधा ने पहली बार जाना यह उसका नहीं प्रदीप की माँ का घर है। उसने सामान पैक किया और निकल गई अपना घर तलाशने। कुछ दिन वह एक गुरुद्वारे में रही फिर काम तलाशा और एक कमरा किराए पर ले लिया। घर वह अभी भी उसके पास नहीं घर अभी भी उसके लिए एक सपना भर है।