Purnima Vats

Drama

4.1  

Purnima Vats

Drama

क़ब्र के फूल

क़ब्र के फूल

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वह जुलाई का महीना था बारिश रह रहकर बहुत तेज़ी से गिरती थी ,दूर तक सड़क और गलियों में सन्नाटा पसरा रहता।

सिर्फ़ कुछ दूर पर बच्चों की टोलियाँ पानी में कुचाले मारती हुई निकलती ,बारिश में भीगा उनका तन किसी साफ़ पारदर्शी आत्मा के भीतर का दर्पण जान पड़ता। कल बारिश नहीं थी सो उसने अपने छाते को कहीं रख छोड़ा था ,कमरे में चारों तरफ उसकी निग़ाहें अपने छाते को तलाशी हुई फिरती ,छाता काले रंग का था खिड़की के टूटे कांच से आती महीन रौशनी में उसकी तलाश करना और मुश्किल।

दरअसल खिड़की में कांच तो लगा था पर पड़ोस आबिदा के घर की नींव पड़ते और दीवार बनते -बनते वह जगह खिड़की से एक सुराख़ भर में बदल गई थी जिसकी बरसों बाद आज भी उसे आदत पड़ गई है शायद सुराख़ से ज़्यादा उस अँधेरे की जो हमेशा ही उसके घर में पसरा रहता। शाम होते -होते सिर्फ़ एक दीया ही जलता वह भी सिर्फ़ चंद घन्टों के लिए फिर वह दीया जलाती भी किसके लिए ?

उसकी ज़िंदगी तो आप अँधेरे में थी उजाले की आस लगाना भी अब उसे किसी नासूर सा जान पड़ता ,किसके लिए दीया जाले ?अम्मा होती तो शायद रात के अँधेरे में यह कह देती की कैसा काल बिछा रखा है दीया बाती कर दे और पिता होते तो शायद कह देते कि ला मैं पड़ोस से तेल ही उधार माँग लाऊँ ,पति या प्रेमी होता तो शायद वही पड़ोस से दीया उधारके आती पर वह तो अकेली थी किसके लिए लाती उजला ? माँ -बाप उसकी तीस की उम्र होते -होते गुज़र गए और यह रह गई अपनी किताबों के साथ। जब से वे गए इसने एक क़िताब नहीं पढ़ी न हाथ ही लगाया उन्हें।

बस हर रात किताबों का बिस्तर बनाती और सो जाती फिर नींद खुलते भी हर बार छाता उठाकर चल पड़ती कब्रिस्तान की ओर। कब्रिस्तान उसका घर हो गया था सारा दिन वहीं बिताती जब पहरेदार दरवाज़ा बंद करता तब मायूस घर लौट आती।

औचक उसकी नजर खिड़की के सुराग़ पर गई वहीं कुछ चमकीली सी बारीक रेखा उसे दिखाई दी वही था उसका छाता उसका जीवन भर का हमराही उसने छाता उठाया और दरवाज़ें से बाहर निकल गई। अब आप पूछ सकते हैं कि दरवाज़े को बंद नहीं किया तो जवाब है नहीं उसका मानना था कि यह घर भी कब्रिस्तान ही हो गया है यहाँ किसी को क्या मिलेगा ?

क़िताबें उन्हें चूहों के अवाला कोई नहीं चुराता सो वह भी बेफ़िकरी में रोज़ यूँ ही निकल जाती। आज सड़क के चारों और अंधकार ही था बारिश की बूंदे उसके काले छाते पर पड़ती और टप से उसके मुँह पर आ गिरती। बारिश और बरसों पुराने छाते का साथ ऐसा ही था भीगने और बचने जैसा। वह यूँ ही कभी बच जाती कभी भीग जाती।

एक लंबी यात्रा के बाद गिरजे की दीवार से लगा कब्रिस्तान था वह कभी कब्रिस्तान से पहले या बाद चर्च नहीं गई "वहाँ कौन था मेरा जिससे मिलने जाऊ? वह कहती और सीधे कब्रिस्तान के भीतर चली जाती। एक रोज़ बहुत साल पहले इसी कब्रिस्तान में उसने पहली कब्र खोदी थी नहीं किसी रिश्ते नाते दार की नहीं अपने पहले प्रेमी की जिससे उसने एक रोज़ कहा कि वह उसके न मिलने पर शायद मर भी सकती है !

पर उसकी लाख कोशिशों के बाद भी वह मर नहीं सकी कुछ दिन अस्पताल जाती और वापस लौट आती फिर एक दिन उसने तय किया वह खुद नहीं मरेगी अब मर भी नहीं सकती ,मरने का हर रस्ता उसके लिए बड़ी कठिन बात थी सो एक दिन ठीक जुलाई की तेज़ बारिश में आकर उसने एक क़ब्र की मिट्टी खुद ही अपने हाथ से खोद दी और अपने प्रेमी की तस्वीर उसमें डाल मिट्टी में दबा दिया उसके ऊपर उसके नाम लगी तख़्ती लटकाई और कुछ फूल डाल फूट-फूट कर रोई। यह प्रक्रिया लगभग एक हफ़्ते तक चलती रही वह कब्रिस्तान जाती और फूट कर रोती और लौट आती।

क्योंकि पहला प्रेमी हिन्दू था वह कभी नहीं जान पाया कि वह कैसे मरा। तब से उसने यह प्रक्रिया तब तक दुहराई जब तक उसे उसका दूसरा प्रेमी नहीं मिला। मिलना मात्र संयोग वह सोचती है कि अगर ये संयोग उसके उसकी जिंदगी में न होते तो बहेतर था पहली बार जब वह उसे मिली उसने उसका हाथ कस कर थाम लिया जैसे वह इसे कभी न छोड़ना चाहता हो फिर उसने एक रोज़ उसकी देह को कस कर थाम लिया जैसे चाहता हो कभी न छोड़ना पर वह भी एक दिन किसी ओर का हाथ और देह थमता पकड़ा गया वह जुलाई की रात थी।

गहरी काली रात उस रात उसने सोचा आत्महत्या कर ले पर उसने अपना ख़्याल पूर्वानुमान और अनुभव के आधार पर बदल लिया 'उस रात 9 बजे उसने भरी बारिश में क़ब्र की ख़ुदाई की पसीना उसके बदन को तोड़ने लगा पर इस टूटन में ही उसकी जीत थी पूरी क़ब्र खोदने के बाद उसने अपनी और प्रेमी की तस्वीर उस क़ब्र में डाल दी और उसपर गुलाब का एक पौधा रोप दिया। हर दिन वह इस पौधे को फूल देने जाती और कहती वह मर गया है और फूट -फूट कर रो देती। फिर देखते -देखते वह पौधा बड़े झाड़ में तब्दील होने लगा और उस पर फूल आने लगे हर दिन वह क़ब्र से फूल तोड़ती और मंदिर के बाहर बेच देती अब यही उसकी कमाई थी इसी से उसका पेट चलता,

एक रोज़ कब्रिस्तान का एक नया चौकीदार आया और उससे पूछा -किसी क़ब्र पर रोज आती हो - उसने बहुत देर जवाब न दिया फिर बोली बाबा शौहर की कब्रें हैं उन्हीं पर। फिर एक रोज़ उसे मंदिर की सीढ़ियों पर बैठे पंडित ने उससे उसका नाम पूछ लिया नाम बताया गया - शिवानी पंडित। मैं एक रोज़ उसके घर गया और पूछा ये घर में इतना अंधेरा क्यों है ? और तुम क़ब्र पर क्यों जाती हो ? 


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