Venkat Viswavardhan

Abstract

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Venkat Viswavardhan

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घर से दूर

घर से दूर

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ज़िन्दगी बनाने की आपधापि में हम इतने आगे निकाल गए है कि अपने ही घर से दूर हो गए है। कुछ चले जाते है घर ४-६ महीनों में और कुछ तो सालो तक घर नहीं जा पाते। किसी की मजबूरी होती है तो कहीं काम का इतना बोझ की घर की बस याद से ही काम चला लेते है।

घूमा करते थे जिन आंगन गलियारों में कभी अब वे बस वहां एक मेहमान बनके रह जाते है। जब भी जाते है तो घर से ज्यादा खुश कोई नहीं होता और जब वापस दूसरे शहर जाते है तो घर से ज्यादा दुखी कोई नहीं होता, अजीब विडंबना है जीवन की दोस्तो, अपने ही घर जाने के लिए दूसरों की इजाज़त लेनी पड़ती है।

घर से बाहर जो रहते हैंं वो जानते हैं कैसे अपने आपको संभाल सके, जो कभी अपने घर पे राजा रानी हुआ करते थे, जिनको कभी एक गंज पानी ना उबालना पडा हो वो आज अकेले ही २-३ लोगो का खाना बना लेते है।

ज़िन्दगी तो वो थी जनाब जब थक हार के घर पहुंचो तो माँ के हाथ का खाना और प्यार, बाबुजी की गुस्से में ही सही पर चिंता वाले सवाल और भाई बहन के झगड़े हुआ करते थे, ये सब तो अब कहीं पीछे छूट गया, अगर कुछ रह गया है तो बस घर की याद।

हमलोग में कई ऐसे है जो पढ़ाई करने, नौकरी करने अपना जीवन खोजने निकले है घर से बाहर पर सच तो ये है कि वो उस शहर उस जगह को छोड़ आए जहां अब वे बस मेहमान बनके ही जाते है।

जो पहले चोट लगने पर, दिल टूटने पर, दोस्तो से लड़ाई होने पर झट से माँ - बाप, भाई बहन, अपने प्रेमी, प्रेमिका, दोस्तो से फट से बात करके, रोना धोना, मान - मना के ये सब सुलझा लेते थे, अब वे बस अपने अहंकार के कारण, अपना दर्द ना बयान करने के डर से, दुनिया वालो के चलते किसी से नहीं कहते कुछ और खुद ही सब बस संभाल लेते है, एक घूंट मार के घर को याद करके सो जाते हैं।

बड़े शहर जाके जीवन यापन की हवा कुछ ऐसी चली की उस आंधी में कई ज़िंदगियां बाहर तो निकाल गए अपने राजमहल से पर अब उसी राजमहल में आने के लिए काफी मशक्कत करना पड़ता है। कुछ शादी करके बाहर है तो कुछ काम काज के चक्कर में देश विदेश घूम रहे। तकनीक के उपहार स्वरूप किसी तरह तीज - त्योहारों में उस जगह से मुलाकात तो हो जाती है पर आंखें बस इसी बात पे नम होती है कि काश बाहर ना निकले होते हम। 

इस रोग से कोई अछूता नहीं है, हर वो व्यक्ति जो बाहर निकला है वो इस रोग से पीड़ित है, हर कोई अपने अपने अंदाज में इसपर मरहम लगता है, बस फर्क इतना है कि कुछ छुपा कर दूसरों से तो कुछ बांट कर दूसरों से इसका इलाज कर लेते है और घर की याद एक गाने में, कुछ लम्हों में देख कर आगे बढ़ जाते हैं, किसी ने सत्य है कहा है, कोई भी चीज एक कीमत के साथ आती है, ये बड़े शहर सी ज़िन्दगी जीने की कीमत है ये घर छोड़ना और यादों के सहारे रहना।

ये जीवन है भाईसाहब, बड़े बड़े लाड़साहब को कायदे में ले आती है, जो ये कहा करते थे कि चाहे कुछ हो जाए हम तो ऐसे ही रहेंगे आज वही किसी रूम, पीजी में अपने रूममेट्स के साथ समायोजित करके मजे कि जिंदगी काट तो रहे है, पर घर की यादों के सहारे रात गुजर जाती है।

नींद तो पहले आती थी, अब तो बस थक हर के सो जाते है, इस नींद में वो सुकून नहीं, कुछ रह जाने का, कुछ छूट जाने का डर है, सुकून की नींद तो अपने बिस्तर पर ही आती है। ना नौकरी, ना छोकरी/छोकरे का चिंता, ना किसी को प्रसन्न करने का खयाल होता था, बस अपना बिस्तर और सुकून की नींद।

जो घर से बाहर है वो तब तक मजे से जीते है जब तक किसी स्थानीय को घर वालो के साथ ना देख ले, उनको देखने के साथ ही ९० प्रतिशत पलायित लोगो को घर की याद आ ही जाती है और फिर वही पंक्ति गुनगुनाया जाता है में और मेरी तनहाई, अक्सर ये बातें करती है।।।


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