Kuber Bharti

Abstract

2.8  

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गाँव की तलाश

गाँव की तलाश

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ऐ वक्त ठहर जा जरा। मेरे अपने सुख-चैन, खेत- खलिहान,रिश्ते-नाते, ओर गांव-वाओ सब छोड़ चले है ।चंद रूपयो के लिए। वो गांव को छोड़ शहर को चले।

मैं ने देखा है शहर। सड़कों पर भीड़,घर में सन्नाटा, बच्चा बाप से आंख मिलाता और संस्कारो का घाटा ।घर मे लक्ष्मी , लेकिन लक्ष्मी के तन पर दुपट्टा नजर नहीं आता ।हांथो मे फोन, दुनिया भर से बतियाता,ओर अपनो से दूर जाता ।घर मे पाले गऐ कुत्ते, ओर घर के बुजुर्गो के साथ,कुत्ते से बुरा सुलूक किया जाता ।घर के दरवाजे पे परिचय का ढोंग ,फिर भी ना जाने क्यो, कोई पिता के नाम से जाना नहीं  जाता ।अपने आप को बड़ा व्यक्ति कहना, ओर घुट-घुट के अन्दर ही अन्दर रहना । घर के भोजन दाल-रोटी को माहूर बताना, पिज्जा- बर्गर, चाऊमिन -मोमो, ओर पास्ता मानचूरियन चटकारे ले लेकर खाना ।सुबह से शाम तक प्रदूषण वाली हवा , बाद मे दवा ।जेब मे पांच पैसे ज्यादा होना, अपने स्वाभिमान को खोना।सुबह से शाम तक टूटी फूटी अंग्रेजी बोलना ओर अपनी भाषा संस्कृति को माटी मे गड़ता देखा नहीं  जाता ।

ऐ वक्त ठहर जा जरा,मुझे गांव का दर्द देखा नहीं जाता ।गांव का पानी,दादी की कहानी ।पापा की डाट, माँ का लाड ।हवाओं का सहलाना,दोस्तों के 

साथ बैठना, बागो से फल चुराके खाना , नदी मे नहाना।अपने दिल की राजकुमारी का रास्ता देखना, नास्तिक होने के बावजूद मन्दिर-मस्जिद जाना ।अपने घर की चाबी पड़ोसी को दे के जाना ।गाँव मे हर किसी के साथ रिश्ता चाचा -चाची, भईया-भाभी, काकी -काकी, मोसा- मोसी,बूआ-फूफा तमाम 

रिश्तों का होना ।मुसीबत पड़ने पर पूरे गाँव के एक साथ होके सामना करना। याद आता है ।अब कहाँ गांव को छोड़ शहर मे रहा जाता है ।


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