फ़र्क चमड़ी का
फ़र्क चमड़ी का


चीनू खेल रहा था एक दम मस्त पूरे शरीर पर मिटटी लगी हुई थी कुछ खेल था खेत की मिटटी में खेलने वाला सूरज की धूप उसके चेहरे में और भी चमक ला रही थी और शरीर से एकदम दुबला पतला लेकिन एकदम फुर्त, बस व्यस्त था अपने खेल में चीनू की अम्मा दूर बैठी टोकरी से सब्जियों को अलग अलग कर सजा रही थी अपनी दुकान के लिए, दो दिन बाद मंडी जो गयी थी आज और वहीं से चीनू की तरफ देखा कर रही थी की कहीं वो खेलते खेलते सड़क की तरफ न चला जाए जब से सड़क चौड़ी हुई है गाड़ियाँ तो मानों उड़ने लगी हों तभी वहां पर एक लड़का जो लगभग चीनू की उम्र का रहा होगा साथ खेलने के लिए आग्रह करने लगा साथ में एक छोटा सा फुटबॉल भी लेकर आया था।चीनू ने फुटबॉल देखा तो झट से खेलने के लिए तैयार हो गया।दोनों जोर जोर से फुटबॉल को पैरों से लुढ़काने लगें और साथ साथ दौड़ लगाने लगें ।ऐसा लग रहा था जैसे एकदम लंगोटिए यार हों ख़ुशी चेहरे से साफ़ झलक रही थी ।अभी थोड़ी देर ही बीता था की एक जोरदार आवाज़ आयी "विक्रम", विक्रम वो लड़का जो अभी अभी चीनू के साथ फुटबॉल लेकर खेलने आया था उसका नाम विक्रम था आवाज़ सुनकर पीछे मुड़ा तो देखा उसके पिताजी जोर जोर की आवाज़ लगाकर उसे बुला रहे थें। आवाज़ सुनकर विक्रम ठिठक गया, "विक्रम क्या कर रहे हो कब से तुम्हारी माँ तुम्हें ढूंढ रही रही है चलो घर चलो और ये किन बच्चों के साथ तुम खेल रहे हो ऐसे बच्चों
के साथ मत खेला करो शकल देखो इसकी पूरा शरीर गन्दा हुआ पड़ा है और उसी के साथ तुम भी गंदे हो गए हो ।" भारी मन से विक्रम अपना फुटबॉल उठाता है और धीरे चीरे चलने लगता है।चीनू अपनें हाथ का अंगूठा अपने हाफ पैंट की जेब में फँसाकर थोड़ा तनता है और विक्रम को देखता रहता है।जैसे उसकी आँखें पूंछ रहीं हों कि "आखिर तुम कहाँ से आये हो? और मैं कहाँ से? क्यों विक्रम के पिताजी ने ऐसा कहा की इन बच्चों के साथ मत खेला करो? खेल ही तो रहे थे, खेलने में क्या हर्ज़?" और दूर तक उसकी नजरें विक्रम का पीछा करती रहीं।विक्रम बहुत बोझिल मन से एक एक कदम बढ़कर अपने घर की तरफ जा रहा था जैसे की जोर जोर से चिल्ला कर कहना चाहता हो कि "मुझे चीनू के साथ फुटबॉल खेलना है नहीं तो यह फुटबॉल किस काम का अकेले खेलने में उतना मजा नहीं आता मगर क्या करे पिता जी का डर", बात सोचकर अंदर ही अंदर दबाकर रह गया ।चीनू की माँ अपनी सब्ज़ी की दूकान लगा चुकी थी और यह सब देख रही थी लेकिन उसके अंदर कोई भाव पैदा नहीं हो रहे थे जैसे की वो यह सब जानती हो, जैसे की वो समझ रही हो की ये तो होता ही रहता है हमारे साथ इसमें नया क्या है उसे इस बात को लेकर कोई दुःख भी नहीं की विक्रम के पिताजी ने चीनू के लिए ऐसा क्यों कहा वो बस देख रही थी की ऐसा हो रहा है और कुछ नहीं और चीनू फिर से मिटटी में खेलने लगा।