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Amita Dash

Abstract Tragedy

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Amita Dash

Abstract Tragedy

एक साल बाप रे

एक साल बाप रे

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पढ़ाई खत्म करने के तुरंत ही मुझे एक एनजीओ में काम मिल गया। एनजीओ का काम ग्रामीण विकास करना था। आदिवासी इलाकों में घर घर घूम कर लोगों के भीतर जागरूकता लानी थी।उन लोगों के बीच एकता बहुत।पहला,पहला नौकरी।मन बहुत खुश था। मैं अकेला गांवों के ओर निकल पड़ा। गांवों का पता मालूम नहीं था।उस समय मोबाइल, रास्ता दिखाने जीपीएस सिस्टम भी नहीं। मुझे महसूस हुआ शायद मैं ने गलत रास्ता पकड़ ली। कोई भी दिखाई नहीं दे रहा था रास्ते में।एक जगह एक कुआं दिखाई दिया जहां पर तीन,चार लकड़ी पानी लेने आए थे।मैं नै गाड़ी से उतर कर गांवों का पता पुछने ही वाला था एक लड़की इतनी ज़ोर से चिल्लाई पास के जंगल से सात,आठ आदमी तीर,बरछा लेकर भागते हुए आए। मुझे पकड़े और बांध दिए। मैं कुछ कहता इसके पहले मेरे मुंह में पट्टी बांध कर एक कमरा में बंद कर दिए

उन लोगों ने आपस में जो बातें करते थे मेरे समझ में कुछ नहीं आता था।जो लड़की चिल्लाई थी शायद वो उनका घर था।छोटा सा खिड़की था।उसी खिड़की से मैं झांकता था। फिर भी मुझे कहां कुछ दिखाई देता था।ना कुछ समझ में आता था।दो बकत खाना देते थे। टॉयलेट के लिए जाता था जैसे गुनाह कर के फाशी में लटकने के लिए जा रहा हूं।भाषा समझना मुश्किल।करूं तो क्या करूं। कितने दिन ऐसे बन्दी बनाकर रखेंगे क्या पता। बिजली नहीं , सोने को खटिया नहीं। रोज़ नहाना भी सम्भव नहीं। दाढ़ी ,सिर कि बाल इतना बढ़गया कि खुद को पागल जैसे अनुभव होने लगा।ये लोग चाहते क्या?मेरा कोई हानी तो नहीं कर रहे थे। धीरे धीरे मेरे समझ मैं आ गया बाहर वालों को उनका डर। मेरे साथ घुल-मिल जाते ,बातें करते, दोनों, दोनों के बातें समझने की कोशिश करते शायद हमारा समस्या का हल होता।मेरा गाड़ी बाहर पड़ा खराब हो रहा था। घर के लोगों, एनजीओ के निदेशक किसी को कुछ बताने के साधन भी नहीं।अपना तकदीर समझकर अपने को कैद कर लिया।जो दिया खाया।जब उनका मन करता पेशाब, शौचालय लेते थे।मेरा फोन उनके पास सढ रहा था।आज भी इतने अनपढ़ देहाती लोग है सोच के अपने को शिक्षित कहना बुरा लगता था।एक साल के करीब हो गया।उनके कोई बड़े बाबा ओर कोई आदिवासी इलाके से आए थे। कोई महोत्सव था।गाना बजाना,खाना,पीना चल रहा था। मुखिया के बेटी जिसकी कारनामे के कारण मैं एक झोंपड़ी में कैद था उसकी शादी।वो न चिल्लाती मेरा ये दशा न होता। उसकी शादी तक शायद वो लोग इंतजार कर रहे थे।वो बाबा के पास मुझे ले जाया गया।वो कुछ कहे जो मेरे समझ में नहीं आ रहा था।वो लड़की शशुराल चली गई। मुझे वो लोग बाहर निकाला और गाड़ी का चाबी सौंपी, मोबाइल दिया। मैं समझ गया में आजाद हो गया। मैं तो ठीक से समझ नहीं पा रहा था कोई बाहर का परिंदा यहां आ नहीं सकता।आया तो जा नहीं सकता। आंख उठाकर किसी लड़की को देखना दूर की बात। लड़की बदनाम न हो जाए शादी करा देंगे। शादी कोई न किया तो इसी लड़के से शादी कराके लड़के के साथ भेज देंगे।मैं रास्ते में गाड़ी चला रहा था सोच रहा था एक साल कूड़े जैसे पड़े रहने के बाद भी गाड़ी सही सलामत चल रहा था मेरे साथ। नहीं तो और मुसीबत हो जाता। मुझे लगता था छठी, सातवीं कक्षा में पढ़ा कविता "निर्जन द्वीप का विलाप"



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