एक नई सोच
एक नई सोच
जीवन का बहुमूल्य पल भी ,धूमिल हो जाता है।
जब -जब तू दंभ में अपने, सही सोच ना पाता है।।
आज सुबह से सब तैयार होकर हम घर से निकले थे मेले के लिए। उत्साहित सा मैं एक कोने में खड़ा होकर भीड़ को देख रहा था। तभी अचानक निगाह पड़ी एक बुजुर्ग पर जिनकी साइकिल पर पीछे एक बोरी बंधी हुई थी जो साइकिल सहित सड़क पर गिर गई थी। बुजुर्ग बाबा बार -बार मदद की गुहार लगा रहे थे पर कोई उनकी मदद करने को तैयार न हो रहा था।
मैं खड़ा सोचने लगा कि आखिर इंसानियत मर गई है क्या ? क्या दया नाम की कोई चीज नहीं बची है लोगों में ?
क्या जीवन मे हमारे कोई आदर्श नहीं हैं? हम क्यों नहीं सोच पा रहे हैं?पर अचानक एक नई सोच ने जन्म लिया ।
एक अंदर से आवाज आई जो मैं दूसरों से अपेक्षा रखता हूँ स्वयं क्यों नहीं कर रहा? क्या हम सभी यही सोचकर , दूसरों को दोष देकर ही अपनी जिम्मेदारियों से बचते रहेंगें ? ना मैं ऐसा नहीं करूंगा। मैं एक नई सोच अपने अंदर पैदा करूँगा। अपनी जिम्मेदारी निभाऊँगा।
बस उसके बाद मेरे कदम उन बुजुर्ग के पास जाकर ही रुके और बदले में मिला ढेर सारा आशीर्वाद व खुशी।
