एक मुट्ठी इश्क़--भाग(१)
एक मुट्ठी इश्क़--भाग(१)
सरकारी अस्पताल का कमरा, कमरे मे पडे़, सफ़ेद रंग के आठ दस बिस्तर और उन्हीं बिस्तरों में से एक बिस्तर जीनत का भी हैं, महीनों से बिस्तर पर लेटे लेटे ऊब चुकी है, बिस्तर के सिराहने बनी खिड़की से लाँन के बाहर का नज़ारा देखकर जी बहला लेती हैं, बूढ़ी हो चुकी हड्डियों में अब इतनी जान नहीं बची हैं कि चल फिर सके, लेकिन अल्लाह की रह़मत हैं कि उसका शौहर और उसके बच्चे हमेशा साएं की तरह उसके पीछे लगे रहते हैं, तभी तो महीनों से अस्पताल में हैं और किसी के मुंह से उफ्फ़ की आवाज़ भी नहीं आई।
ऐसा परिवार ख़ुदा सबको बख्श़े, उसी ऊपरवाले का ही तो रह़म हैं मुझ पर जो इतनी बीमार होने पर भी किसी ने साथ नहीं छोड़ा और मेरे श़ौहर इख़लाक़ भी तो कितने रह़मदिल हैं, ख़ुदा उन्हें हर ग़म से बचाएँ, सारे जहान की खुशियों उन्हें और मेरे बच्चों को ऩसीब हो।
अरे, ब़ेगम!देखिए हम आ गए, आप के कहने पर ही हम घर गए थे, रातभर आराम़ किया और फिर सुबह उठकर आपके लिए अपने हाथों से नाश्ता तैयार कर आपसे मिलने चले आए, जीनत के श़ौहर इख़लाक़ ने दरवाज़े के भीतर से आते हुए कहा।
इतनी जल्दबाज़ी थी आपको यहाँ आने की और रसोई मे नाश्ता तैयार करते हुए समीरा बहु ने कुछ नहीं कहा, डांटा तो जरूर होगा, लेकिन आप कहाँ मानने वाले हैं, जिद्दी जो ठहरे, जीनत ने इ़खलाक से कहा।
इतने दिनों बाद घर गए थे तो सोचा आज अपनी प्यारी ब़ेगम को अपने हाथ से बना हुआ नाश्ता खिलाते हैं, इख़लाक़, जीनत से बोले।
हांँ..हांँ.. समीरा तो जैसे हर ऱोज अपने पैरों से नाश्ता बनाकर भेजतीं हैं, जीनत गुस्से से बोली।
अरे, ब़ेगम ! हम इतने प्यार से आपके लिए नाश्ता लाएं हैं और आप हैं कि गुस्से से उबल रहीं हैं, इख़लाक़, जीनत से बोले।
वो इसलिए कि आपसे घर जाने को इसलिए कहा था कि घर मे थोड़ा आराम करें, आप रात को तीन बजे असलम के साथ घर गए थे और अभी सिर्फ आठ बजे हैं और आप नाश्ता लेकर यहां पहुंच भी गए, चैन नहीं पड़ा ना आपको घर में, जीनत गुस्से से बोली।
अब, इतना भी नाऱाज मत होएं, बेग़म! ऐसा भी क्या कर दिया हमने, खांमखाह आप बात को बढ़ा रहीं हैं, इख़लाक़ बोले।
मैं बात नहीं बढ़ा रही, मेरे प्यारे श़ौहर आपको पता है, मेरी तरह आपकी भी अब उम्र हो चली हैं और आप जिस तरह से मेरे साथ दिन रात अस्पताल में रहते हैं, उस तरह आपको भी कुछ देर आरा़म करने का ह़क हैं, आप किसी बच्चे को भी तो अस्पताल मे ठहरने नहीं देते, वो मुझसे मिलने आते हैं और आप फ़ौरन उन्हें घर भेज देते हैं, जीनत गुस्से से बोली।
तो क्या करें? जबसे आपसे मौहब्बत हुई तबसे आपसे हम कभी अल़ग नहीं रहें, हमारी मजबूरी भी तो समझने की कोशिश करें बेग़म! आप को तो पता ही हैं आपकी बीमारी अब लाइलाज़ हो चुकी हैं, उस दिन डाक्टर भी तो बोले कि अब आपके पास ज्य़ादा वक्त़ नहीं हैं, पता नहीं कब आप हमारी जिन्दगी से रूख़सत हो जाए और हमें यूं ही तन्हा छोड़ जाए रोने के लिए लेकिन आपको तो हमारी मौहब्बत पर एतबार ही नहीं हैं इसलिए तो बात बात पर आप हमसे झगड़ने लगतीं हैं, इतना कहते कहते इख़लाक़ की आंखें भर आईँ और उसने अपने आंसू छुपाने के लिए दूसरी तरफ़ अपना चेहरा घुमा लिया।
अब, क्या हुआ जी, आपने अपना चेहरा उस ओर क्योँ घुमा लिया, रो रहे हैं क्या? जीनत ने इख़लाक़ से पूछा।
हम रोएँ या गाए इससें आपको क्या? इख़लाक़ ने जवाब दिया।
अच्छा, ठीक है, माफ़ कर दीजिए, अब आज के बाद कुछ नहीं कहूंगीं मैं तो आपकी सेहद की फिक्र कर रही थी बस, जीनत ने इख़लाक़ से कहा।
हम तो दिन रात यही दुआँ माँगते रहते हैं कि आप जल्द से जल्द ठी होकर घर आ जाएं और हम सब पहले की तरह रहें, इख़लाक़ ने दुखी होकर कहा।
आप अल्लाह ताला से कितनी भी दुआएं मांग लें जो होना हैं वो तो होके ही रहेगा, शायद हमारे नसीब मे एक दूसरे की इतनी ही मौहब्बत थीं, जीनत ने दुखी होकर कहा।
आप, ऐसी बातें करना बंद कीजिए बेग़म, चलिए नाश्ता करते हैं, हमने सोचा आज आपके साथ हम नाश्ता करेगें और हमारे आते ही आपने बवाल खड़ा दिया, इख़लाक़ बोला।
मैने बवाल कर दिया, चलिए हटिए, मियाँ!बवाल करने में तो आप माह़िर हैं और मेरे ऊपर इल्ज़ाम लगा रहे हैं, जीनत हंसते हुए बोली।
अच्छा चलिए, बहुत हुआ, अब नाश्ता कर लीजिए फिर आपको दवा भी तो खानीं हैं, इख़लाक़ ने जीनत से कहा।
नाश्ता करते वक़्त जीनत़ को देखकर इख़लाक़ बोला, बेग़म! हमें छोड़ कर मत जाइएं, आपके एक मुट्ठी इश्क़ के अलावा हमारे पास कुछ भी नहीं हैं।
आज आपको हो क्या गया हैं?कैसीं बातें कर रहे हैं, आपके लिए तो हमारे पास बहुत सारा इश्क़ हैं, जीनत़ बोली।
हमें आपसे सिर्फ़ एक मुट्ठी इश्क़ ही चाहिए, हम तो उसी में गुज़ारा कर लेगें, बस आप हमें छोड़ मत जाइए, इख़लाक़ ने दुखी होकर जीनत़ से कहा।
जीनत और इख़लाक़ का प्यारा सा परिवार हैं, बेटा असलम उसकी बीवी समीरा और बेटा ताह़िर, असलम जो कि इख़लाक़ की बेवा बहन फात़िमा का बेटा हैं जो सारे बच्चों मे सबसे बड़ा है, बड़ी बेटी शाहीन का भी निकाह हो चुका हैं उसके दो बेटियां हैं, छोटा बेटा इम्तियाज और छोटी बेटी खुश़नुमा इन दोनों का भी निकाह़ हो चुका हैं, इम्तियाज के एक बेटा हैं, इम्तियाज दुबई मे अपने परिवार के साथ रहता हैं और खुश़नुमा भी कनाडा मे अपने परिवार के साथ रहती हैं वो वहां डाक्टर हैं।
जीनत को ब्लड कैंसर था, इख़लाक़ और जीनत की तकरार बस कुछ और दिन ऐसे ही चली और कुछ दिनो बाद जीनत़ का इंतक़ाल हो गया, जीनत़ के इंतकाल के बाद इख़लाक़ इस दर्द को झेल ना पाया , दो ही दिन हुए थे जीनत़ को दफनाएं हुए कि तीसरी रात इख़लाक़ की रूह भी जीनत़ से मिलने चली गईं।
सब रिश्तेदार और पास-पडो़स सोच रहा था कि क्या अज़ब इश्क़ हैं, इश्क़ हो तो ऐसा जो एकदूसरे के बिन दो दिन भी ना रह पाए।
समीरा बहुत ही ज्यादा दुखी थी , इख़लाक़ और जीनत़ से बहुत प्यार करती थीं वो, धीरे से आकर फात़िमा के पास बैठ गई___
अम्मीजान! मामू सच मे मुमानी जाऩ से इतनी मौहब्बत करते थे कि दो दिन भी उनकी जुद़ाई बरदाश्त ना कर सके, समीरा ने फात़िमा से कहा।
हां, समीरा! उन दोनों में मौहब्बत का नहीं इन्सानियत का रिश्ता था, नहीं तो ऐसे ही कोई राह चलते इन्सान को अपना नहीं बना लेता, अपनी जाऩ से भी ज्यादा इश्क़ नहीं कर बैठता, फात़िमा ने समीरा से कहा।
राह चलते, इसका मतल़ब क्या है?अम्मीजा़न !, समीरा ने अपनी सास फात़िमा से पूछा।
बहुत लम्बी दास्ताँ हैं दोनों की, ऐसे ही नहीं उन दोनों के बीच बेशुमार इश्क़ हुआ था, बहुत बडी़ आफ़त झेली थी दोनों ने तब जाकर दोनों के इश़्क को अंज़ाम मिला, फात़िमा ने समीरा से कहा।
ऐसा भी क्या है?अम्मीजा़न, जरा, मुझे भी वो दास्ताँ सुनाइए, समीरा ने फात़िमा से कहा।
सुनना चाहती हो, उन दोनों के इश़्क की दास्ताँ तो सुनो और फात़िमा ने समीरा को जीनत़ और इख़लाक़ की मौहब्बत की दास्तां सुनानी शुरू की___
बात सन्१९६९ की हैं उस वक्त़ गुजरात मे दंगे भड़के थे, तब हमें जीनत़ मिली, उसका असली नाम गुरप्रीत कौर था, वो एक पंजाबी परिवार से थीं, तभी बीच मे फात़िमा को टोकते हुए कहा तो क्या मुमानीजान सिक्ख थीं और वो जीनत़ कैसे बनी?
सुनाती हूं.. सुनाती हूँ, बीच मे ही टोक दिया, पहले पूरी बात तो सुनो, फात़िमा ने समीरा से कहा।
हां..हांं सुनाइए, अब नहीं टोकूगीं आप आगे जारी रखिए, समीरा ने फात़िमा से कहा।
फा़त़िमा ने आगे की कहानी शुरू की___
हां..तो गुजरात के पास एक गांव था, जहाँ बहुत खुशहाली थीं, वहाँ हिन्दू, मुसलमान और कई सिक्ख परिवार रहा करते थे, गांव मे बहुत ही अमन और शांति थी, सब बहुत मिलजुलकर रहते थे, सबकी जिन्दगी अच्छे से गुजर रही थीं, सबके पास जम़ीन की कमी नहीं थी, इसलिए ज्यादातर लोग खेती बाड़ी करके ही अपना गुजारा करते थे, सबके घर हमेशा धन-धान्य से भरे रहते रहते थे, सबके अपने जानवर थे तो कभी दूध घी की कमी नहीं होती थीं।
उसी गांव मे एक सिक्ख परिवार था, वो परिवार था बलवंत सिंह का जो अपनी पत्नी सुखजीत और बेटी गुरप्रीत के साथ उस गांव मे रहते थें, उनकी बेटी बचपन से ही इतनी शरारती और हंसमुख थीं कि सारे पास पडो़स में उसकी वजह़ से चहलपहल रहती थी।
गुरप्रीत अब सोलह साल की हो चुकी थी लेकिन वो खुद को सयानी नहीं समझतीं थीं, मां सुखजीत उसे चिल्ला चिल्ला कर हार जाती कि इतनी बड़ी हो चली है, कुछ घर गृहस्थी के ही काम सीख लेकिन नहीं तू तो बस तितली बनकर मंडराती रह, इस खेत से उस खेत और उस खेत से इस खेत , सब बाप के दुलार का नतीजा हैं, लड़की दिनबदिन हाथ से निकलती जा रही हैं और बाप के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती।
और गुरप्रीत हंस कर टाल देती फिर से शरारतों में लग जाती___
क्रमश: