Sakshi Nagwan

Drama

5.0  

Sakshi Nagwan

Drama

एक अश्रु प्रवाहिनी का

एक अश्रु प्रवाहिनी का

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एक गांव में रांझी नाम की एक बहुत सुन्दर नदी थी एक वक्त था जब उस नदी के आस पास हरे भरे पेड़ पौधे रंग बिरंगे फूल उस निर्मल जल की धारा के पास बेहद खूबसूरत लगते थे मनो स्वर्ग का कोई एक हिस्सा धरती पे आ गया हो जब कभी उस नदी के पास कोई स्त्री जल भरने के लिए आती थी तो उस स्त्री की पायल की झंकार से सारे वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा को भर देती थी और वह खेल रहे बच्चो की मुस्कान से सारी कालिया खिल उठती थी उस नदी के किनारे जाकर न जाने कितनी मुश्किलों के हल होते थे और सैंकड़ो दिल जुड़ते थे इस नदी से न जाने कितने ही लोगो की तृष्णा अपनी निर्मल धारा से शांत की है परन्तु जैसे जैसे वक्त गुजरता गया वैसे वैसे इस नदी की निर्मलता उसका अस्तित्व मिटता चला गया और अब वक्त ऐसा आ गया है की उस सुन्दर नदी को सारे भूल चुके है वे सिर्फ उसे महज जल का वो स्तोत्र मानते है जिससे केवल जानवरो की तृष्णा भुझ सकती है आज उस नदी के पास फूलो की खुशबु नहीं बल्कि गांव की गंदगी की बू आती है 

एक दिन की बात है उस नदी के पास एक पेड़ था उस पेड़ पर दो चिड़ा और चिड़ी बैठते थे एक दिन एक चिड़े ने नदी की कल-कल को सुन कर ये अहसास हुआ की नदी कुछ परेशान सी है शायद उसे कोई दुःख है ऐसा दुःख जिसे वह बया भी नहीं कर सकती फिर सहसा ही उसके मन में एक प्रश्न उजागर होता है वह नदी से पूछता है "क्या हुआ तुम इतनी दुखी क्यों हो।

ऐसी कौन सी बात है जो तुम्हे रह-रह कर परेशान कर रही है तुम तो सब सभी के मन को अपनी धारा से शांत करती हो तो तुम्हारा मन भला कैसे अशांत हो सकता है जो दुसरो को सुख देना जनता हो भला उसे दुःख कैसे हो सकता उसको कोई तकलीफ कैसे हो सकती है" उसकी ऐसी बाते सुनकर नदी ने बड़े दुखी हृदय से कहा,"जैसा तुम देख रहे हो वैसा कुछ भी नहीं है मेरी धारा जो की तुम्हे बेहद निर्मल लग रही है वह असल में निर्मल नहीं है उसमे लोगो ने इतना कचरा डाल दिया है की अब मेरी धारा दूषित हो गई है अब जो भी मेरा जल जो भी पिता है उसकी तृष्णा नहीं भुजती क्योकि अब मेरी धारा वो निर्मलता नहीं रही उसमे इर्षा,द्वेष अहंकार जैसे दूषित पर्दाथ मिल चुके है एक वकत था जब मेरे इस जल में अपनेपन,प्रेम और भाईचारे का अमृत मिला हुआ था सभी एक दूसरे की भावनाओ की कदर किया करते थे परन्तु अब इसमें अहंकार और दुश्मनी का ज़हर मिल चूका अब जो भी मेरे इस जल को पिता है उसके ऊपर भी उस ज़हर का असर हो जाता मेरे जल से किसी को तृष्णा भुझे चाहे न बुझे परन्तु हां पर इतना ज़रूर हो जाता की एक पाख इंसान भी इन ज़हरीले पर्दाथो से उस इंसान की पख्ता नष्ट हो जाती है 

नदी की ऐसी बातें सुन कर चिड़े ने कहा, "ऐ जल की देवी प्रवाहिनी तुम्हारी इस आत्म कथा को सुनकर मेरे भी अश्रु बह गए हम में से कोई भी तुम्हारे इस दर्द का अंदाज़ा नहीं लगा सकती की तुम कैसे अपनी आँखो के सामने अपनी निर्मल धरा को दूषित होता देख रही हो और सबसे दुःख की बात तो यह है की तुम चाह कर भी कुछ भी नहीं कर सकती हो"

चिड़े के ऐसी बातें सुनकर कर उस नदी ने कहा, "आज मै तुम्हे इस क्रूर और कटर इंसान का भविष्य बताती हूँ सुनो , ये निर्दई इंसान जो प्रक्रति के साथ रहा है उसे वह प्रकृति सूत समेत लौटाएगी एक वकत ऐसा जब इस क्रूर इंसान को जल की एक बून्द तक नसीब नहीं होगी उन्हें जो जल मिले गा वह उनके कुकर्मो की वजय से दूषित हो चूका होगा तो अगर वह जल पी भी लेंगे तो भी वह मृत्यु के घाट उतर जाएगे और जल न पिने से भी वह मृत्यु के घाट उतर जाएगे अर्थात कहने का भाव यह है की वह अधर्मी इंसान दोनों मामलो में मृत्यु के घाट उतर जाएगा कोई इंसान जो बोता है।

वही काटता भी अगर वह बाबुल का पेड़ उगाए गा तो उसे आम का फल नहीं मिले गा अर्थात कर्मो का फल तो इसी जन्म में मिलता है और जब उनको उनके कुकर्मो का फल मिले गा तब उन्हें यह बात याद आती रहेगी की "भगवान और प्रकर्ति की लाठी में आवाज नहीं होती" प्रकृति देखने में जितनी आकर्षक होती उसकी अकर्मकता उतनी ही भयानक होती। 


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