Anil Anup

Tragedy Others

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Anil Anup

Tragedy Others

उपयोग के बाद पति बेकार समझता

उपयोग के बाद पति बेकार समझता

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मेरे परिवार की आर्थिक हालत खींचतान के उदयपुर के आम निम्न मध्यवर्गीय घरों जैसी ही थी। इसलिए पारिवारिक बोझ कम करने के लिए मेरी शादी 18 साल की उम्र में उदयपुर रेलवे स्टेशन के पास कर दी गई। अब शादी को आठ साल बीत चुके हैं। परिवार में मेरे अलावा मेरी दो छोटी बहनें और एक भाई भी था, सो पिताजी को उनकी भी जिम्मेदारी निबाहनी थी, एक तरह से उन्हें हम बहनों को ब्याहकर अपना बोझ ही हल्का करना था।

मैं दसवीं तक स्कूल गई थी। दसवीं में भी फेल हो गई, तो दुबारा स्कूल नहीं भेजा। मां ने सिलाई—कढ़ाई और घर के कामों में मुझे जरूर निपुण बना दिया। मेरी दूर के रिश्ते में मौसी ने मेरी शादी अपनी ननद के लड़के से तय करवा दी, जो शहर में खाता—पीता एक अच्छा परिवार था। मेरे होने वाले पति ने अंग्रेजी साहित्य में एमए किया था और किसी प्राइवेट कंपनी में वो अच्छे ओहदे पर कार्यरत थे। मगर उनकी एक दिक्कत थी कि बचपन में पोलियो के प्रकोप के चलते उनकी एक टांग ठीक से काम नहीं करती थी, इसलिए उनकी शादी मुझसे करवा दी गई।

पति मुझसे उम्र में 12 साल बड़े थे। जब ससुराल पहुंची तो शायद जिंदगी में मैंने उतना भव्य घर पहली बार देखा होगा। मगर मुझे नहीं पता था कि मेरा विवाह इसी भव्यता से हुआ था, क्योंकि उस घर के लोगों के लिए मेरी हैसियत कभी भी एक गंवार लड़की और नौकरानी से ज्यादा की नहीं रही।

मां—पिता संतुष्ट थे कि उन्होंने न सिर्फ अपनी जिम्मेदारी पूरी की है, बल्कि लड़की जिंदगी भर उन सुख—सुविधाओं को भोगेगी, जो वो उसे कभी नहीं दे पाए। ससुराल में एक अच्छी बहू की तरह मैंने चाहा कि हर किसी का मान—सम्मान रखते हुए सबको खुश रख पाउं, मगर यह सिर्फ मेरी चाहत बनकर रही। कभी किसी को खुश नहीं कर पाई मैं। पति के लिए तो सिर्फ मैं रात में उपभोग की जाने वाली वस्तु बनकर रह गई। बाकी समय मुझे वह अहसास दिलाते रहते कि तुम जैसी गरीब कन्या से विवाह करके मैंने तुम्हारा उद्धार किया है।

मेरे ससुरालियों ने मुझसे इसलिए अपने लड़के की शादी की थी क्योंकि उनका बेटा विकलांग था, और अपने स्टैंडर्ड की किसी साबूत हाथ—पैर और पढ़ी—लिखी लड़की से उनके बेटे की शादी नामुमकिन थी। इसे भी मेरी सास और ननदें दूसरों के सामने खूब बखानती थीं कि देखो हम कितने महान हैं हमने एक गरीब लड़की को अपने घर की बहू बनाया है।

शादी के 2 महीने बाद ही घर से नौकरानी की छुट्टी कर दी गई। परिवार में मेरी 3 ननदें, दो देवर, सास—ससुर, पति और मैं थे। मैं सुबह 4 बजे उठकर परिवार के कामों में लग जाती। हालांकि मैंने इस बात की कभी शिकायत नहीं की कि मुझे अकेले सब काम करना पड़ता है, मगर जब सास बात—बात पर मायके की औकात बताती तब जरूर कुढ़कर रह जाती।

सुबह सबके नाश्ते, आफिस—कॉलेज का टिफिन, घर की साफ—सफाई, कपड़ों की धुलाई सब मेरे जिम्मे था। हां, खाना बनाने के बाद सास हर दिन यह जरूर सुनाती कि कंगाल घर से आई है, ये क्या खाना बनाएगी, जबकि मायके में मेरे बनाए खाने की तारीफ सभी करते थे। छोटा वाला देवर जरूर कहता कि मां क्या भाभी के पीछे पड़ी रहती हो, तुमसे तो लाख गुना अच्छा खाना बनाती है। उसे भी डांटकर सभी चुप करा देते।

घर के कामों से फुर्सत पाती तो ननदें नए—नए डिजाइन के कपड़े सिलने की फरमाइशें करतीं तो सास रिश्तेदारों के कपड़े भी मुझी से सिलवातीं। सास यह कहकर मेरे सिले कपड़े अपने रिश्तेदारों को देतीं कि मेरी बेटियों ने डिजाइन करके बनाए हैं। जब कभी किसी ने जानना चाहा कि बहू भी जानती है सिलाई—कढ़ाई तो सास मेरे मुंह पर ही कहतीं कंगालों के घरों की लड़कियां क्या जानें ये सब काम, जबकि रात—रात भर जागकर मैं कपड़े तैयार करती थी, ननदों और सास की फरमाइश के डिजाइनर कपड़े।

अंग्रेजी साहित्य में एमए मेरा पति जितना कुंठित था, उसके बारे में सोचकर भी घिन आती है। मुझसे 12 साल बड़े मेरे पति को लगता था कि अगर मैं बाहर की दुनिया से रू—ब—रू हो जाउंगी तो मेरे पर लग जाएंगे, कोई और मुझे पटा लेगा। कभी किसी नौजवान रिश्तेदार तक को मुझतक नहीं आने दिया जाता था। मेरा भाई भी आता था तो उसके आसपास ननदें—सास बैठ जातीं।

मुझे कहीं जाने नहीं दिया जाता था। मैं अपने जरूरत का कोई सामान बाजार से नहीं ला सकती थी, सबकुछ कोई और ले आता था या पति। यहां तक कि मेरा अंडवियर—बनियान भी पति खुद लाते थे, मासिक धर्म के दौरान उपयोग होने वाला पैड भी। लिपिस्टिक बिंदी की कौन कहे!

मुझे अपनी जरूरत का सामान लाने और मायके जाने तक के लिए तरसा दिया जाता था। कारण सिर्फ कुंठा कि कहीं यह हमारे विकलांग बेटे को छोड़कर भाग न जाए, जबकि मैं ऐसा कभी नहीं सोची। मुझे कभी लगा ही नहीं कि जिंदगी में अब और किसी के साथ घर बसाने की जरूरत है। मेरी हालत यह होती कि पति को अपनी कोई जरूरत बताती तो वह कहता कि किसके लिए सजती—संवरती हो, रहोगी तो गंवार ही।

दोनों कुंठाएं एक साथ, गंवार भी और भाग जाने का डर भी

मेरे पति कभी मुझे अपने साथ बाहर लेकर नहीं गए। एक बार जब उनके ऑफिस के कुछ सहकर्मी घर पर आए और मुझे देखकर उन्होंने मेरी तारीफ की तो पति की शक्ल देखने लायक थी। दूसरों के सामने सास—ननदें ऐसे जताते जैसे मुझे रानी बनाकर रखा हुआ है।

ससुर जरूर मुझे मानते थे। जब वो सास से किसी बात पर कहते कि किस बात की कमी है जो पराए घर की लड़की को इतना खटाती हो, तो सास उन्हीं पर बरस पड़तीं। ससुर मेरे बनाए खाने की हमेशा तारीफ करते, तो सास और जली—कटी सुनातीं। सास को ससुर द्वारा मेरी तारीफ करना फूटी आंख नहीं सुहाता था। ससुर से कहतीं, तुम बीवी बेटे के लिए नहीं अपने लिए लाए हो। मेरे और ससुर के बाप—बेटी के रिश्ते पर लांछन लगाना धीरे—धीरे उनके लिए आम बात बन गई तो ससुर ने भी मेरा साथ देना छोड़ दिया।

मेरा दम घुट रहा था उस माहौल में। मैं सिर्फ एक मशीन बनकर रह गई थी, जो रोबोट की तरह कामों में व्यस्त रहती। सेक्स से तो मुझे घृणा होने लगी थी। मेरा विकलांग पति तमाम पोर्न साइटों से वीडियो देखकर मुझसे कहता कि मैं उससे वैसे ही प्यार करूं। जब मैं मना करती तो मेरा मानसिक शोषण करता मुझ पर तरह—तरह के लांछन लगाकर।

अब वह भी अपने पिता के साथ मेरा रिश्ता जोड़ने लगा था। यहां तक कि छोटे देवर से कभी—कभार हंसकर बात कर लेती तो वो भी उन्हें नागवार गुजरने लगा, कहते रीतेश मुझसे जवान है उसके साथ तुम्हें ज्यादा मजा आता होगा। जब दिन में मैं नहीं रहता तुम गुलछर्रे उड़ाती हो। अपने विकलांग होने की भयंकर कुंठा को वो मुझसे छोटे देवर और पिता समान ससुर से सेक्स संबंधों को जोड़कर करता।

तीन साल हो गए थे ऐसे माहौल में जीते हुए। इस बीच जब एक बार मैं गर्भवती हुई और यह बात मैंने पति को बताई तो बजाय खुश होने के उन्होंने कहा कि यह उनका बच्चा नहीं है। मेरे भाई या पिता से तुम्हारा नाजायज रिश्ता है, मेरी मर्जी के बगैर मेरा गर्भ दवाइयों से गिरवा दिया मेरे पति ने। अब तो और ज्यादा नफरत होने लगी थी मुझे। मेरे ससुर ने एक बार मुझसे जरूर कहा, ‘बेटा हिम्मत है तो इस नरक से बाहर निकल जाओ। कुछ नहीं रखा है इन सबके साथ। यहां तुम कब घुट—घुटकर मर जाओगी तुम्हें खुद भी पता नहीं चलेगा।’

इस बीच मेरा छोटा भाई मुझसे मिलने आया तो मैं ससुराल वालों के न चाहने के बावजूद उसके साथ चली गई। इन तीन सालों में मैं सिर्फ 4 बार अपने मायके जा पाई थी। अब तक मां को कभी बताया नहीं था कि मुझे कोई तकलीफ थी। मां—पिता को लगता था उनकी बेटी राज कर रही है, पर जब मां ने सुना तो वो परेशान हो गईं।

पिता को उन्होंने मेरा दर्द बताया। पहले तो पिता ने समाज क्या कहेगा, लड़की मायके में बैठेगी तो क्या कहेंगे जैसे सवाल उठाए, मगर मां की जिद के आगे उनकी एक न चली। मैं ससुराल लौटकर नहीं गई उसके बाद तो ससुरालियों ने डरा—धमकाकर मुझे वापस बुलाने की कोशिश की, जब मैं अपनी जिद पर अड़ी रही तो मुझे बदनाम करना शुरू कर दिया रिश्तेदारी में। जिन दूर के रिश्ते की मौसी ने मेरा रिश्ता करवाया था, उन्हें भी खूब भड़काया, कोशिश कि वो मेरे मायके वालों पर दबाव डालें कि मैं वापिस चली जाउं।

खैर 3 साल तक मानसिक शोषण के बाद मुझे मुक्ति मिली उस नरक से। मैंने कपड़े सिलने शुरू कर दिए थे, जिससे कि मां—बाप को बोझ न लगूं। दसवीं की ओपन से दुबारा परीक्षा दी और उसके बाद आईटीआई से सिलाई—कढ़ाई का कोर्स कर आज मैंने अपने बलबूते एक बुटीक खोल लिया है।

आज मैं आत्मनिर्भर हूं। कई लड़कियां सिलाई सीखकर जाती हैं मुझसे तो अच्छा लगता है कि वे आत्मनिर्भर बनें। पिता ने जब मेरी छोटी बहनों की शादी करनी चाही तो मैंने हस्तक्षेप किया कि पहले उन्हें इस लायक बन जाने दीजिए कि कल को मेरी जैसी स्थिति में फंसे तो कम से कम अपने पैरों पर तो खड़ी हो पाएं।


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