Anil Anup

Others

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हमारे तो एड्रेस में ही बदबू है

हमारे तो एड्रेस में ही बदबू है

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पढ़ी-लिखी हूं। एक बार इंटरनेट पर समझना चाहा कि आसमान कितना बड़ा है। जवाब मिला- जितनी दूर हम देख सकें! मेरे लिए आसमान सिंगल बेड की चादर से भी छोटा है, उतना ही, जितना मैं घर के अंदर से देखती हूं। छत पर जाने की मनाही है। खिड़की से झांको तो गंदे इशारे होते हैं। बाहर निकलो तो झूमते शराबी टकराएं। एकाध मौके को छोड़कर मैंने कभी तारों भरा आसमान नहीं देखा।

धूप भी उतनी ही, जितनी झरोखे से आ जाए। ये बताते हुए बादामी आंखों वाली विनीता चेहरे पर बंधे कपड़े को कस लेती हैं। उनका पुश्तैनी घर वेश्याओं की गली में है। वो इलाका, जिसे दिल्ली के लोग जीबी रोड कहते हैं। वो कहती हैं- गटर साफ करने वाला भी शरीर से बदबू हटा पाता है, हमारे तो एड्रेस में ही बदबू है।

हाल में रिलीज हुई गंगूबाई काठियावाड़ी फिल्म विवादों में है। गंगूबाई के परिवार का कहना है कि वे रेड लाइट एरिया में रहती जरूर थीं, लेकिन सेक्स वर्कर नहीं थीं। अब फैमिली परेशान है कि चाहे वो कितनी ही सफाई दें, सब उन्हें वेश्या के बच्चे ही मानेंगे। ये तो हुई गंगूबाई की बात, लेकिन वाकई में लाल बत्ती इलाके में रहना कैसा होता है, इसे समझने के लिए हमने दिल्ली के जीबी रोड की पड़ताल की, जो देश के कुछ सबसे बड़े रेड लाइट इलाकों में शुमार है।

ये चमचमाती दिल्ली का वो चेहरा है, जहां की तंग गलियां और पलस्तर झरती दीवारें अपना दर्द खुद बयां करती हैं। पान की पीक से सजी बिल्डिंगों के पहले फ्लोर पर ऑटोमोबाइल की दुकानें हैं और दूसरी मंजिल पर औरतों की दुकानें, संकरी सीढ़ियों से होते हुए वहां जाना होता है।

अजमेरी गेट से लेकर लाहौरी गेट तक फैले इस इलाके में लगभग 30 पुरानी इमारतों के दड़बेनुमा कमरों में वेश्यालय चलते हैं। हर कमरे के सामने लोहे की जालीदार खिड़की है, जो सड़क पर खुले। इसी खिड़की से हाथ के इशारे करके, आवाजें निकालकर, या शरीर का कोई हिस्सा झलकाकर औरतें अपने ग्राहक बुलाती हैं। ग्राहक यानी सड़क पर चलते लोग, दफ्तर से लौटते लोग, नशे में धुत लोग, या फिर ‘जरूरत’ मिटाने को भटकते लोग।

सड़क का खौफ इतना कि कोई कैब भरी दोपहर में भी वहां जाने को तैयार नहीं हुई। एक के बाद एक 4 ड्राइवरों ने बुकिंग कैंसल की। आखिरकार एक ऑटोवाले को पकड़ा, जो राजी तो हुआ, मगर इस शर्त पर कि वो मुझे अजमेरी गेट पर ही छोड़ देगा।

वहां से अंदर जाने में लोकल रिक्शे वाले भी ना-नुकर करने लगे। सबको डर था कि कोई दलाल या ‘धंधेवाली’ उनका मोबाइल और रुपया-पैसा छीन लेगी। तो इस तरह से ऑटो, पैदल, और कुछ ई-रिक्शा के धचकों के बीच मैं जीबी रोड पहुंची।

मेन रोड से ठीक पीछे सांवली-संकरी गलियों की एक भूलभुलैया खुलती है। यहां हमारी-आपकी तरह लोग रहते हैं। दफ्तर जाने वाले, दुकान करने वाले या जूते-कपड़े सिलने वाले। हालांकि, एक फर्क है। हम अपना एड्रेस जितने आराम से बता पाते हैं, वहां के लोगों के लिए ये उतना ही मुश्किल है। जीबी रोड में रहना, यानी शर्म और गंदगी में लिथड़ा होना। यहां के ज्यादातर पुराने लोग दिल्ली के दूसरे इलाकों में रहने चले गए। वही बाकी हैं, जो मजबूर हैं।

विनीता ऐसा ही एक चेहरा हैं। वो बात करने को इसी शर्त पर राजी हुईं कि चेहरा ढंका रहेगा। इंटरव्यू शुरू होते ही कहती हैं, “मैं आज तक अपनी सहेलियों को यहां नहीं ला सकी। सब बर्थडे पार्टी करतीं, घर बुलातीं, मम्मी-पापा से मिलातीं। मैं सबके साथ जाती तो थी, लेकिन कभी किसी को लेकर नहीं आ सकी। कोई घर आना भी चाहे तो मैं कुछ न कुछ बहाना बना देती। धीरे-धीरे सबने खुद ही कहना छोड़ दिया।”

“मैं कभी सब्जी-फल लेने भी बाहर नहीं निकली। पापा या भाई शाम को जो ले आएंगे, वही पकेगा और अगर वो लाना भूल गए तो सब्जी नहीं बनेगी। अक्सर हमारे घर पर रात में आलू की रसदार सब्जी बनती है। कई बार ऐसा भी होता है कि आटा खत्म हो जाए और पापा को फोन न लगे तो रोटियां भी नहीं पकती। हम लड़कियां सब्जी-तरकारी लाने जैसे काम के लिए बाहर जाने का ‘रिस्क’ नहीं लेतीं। इमरजेंसी में ही घर से निकलते हैं।”

आखिरी बार मैं कोविड की वैक्सीन लेने के लिए बाहर गई थी। ये बताते हुए विनीता की आवाज गुस्से और रोने के बीच झूल-सी रही थी। उनकी बात सुनते हुए मैं अपनी और खुद-सी लड़कियों के बारे में सोच रही हूं जो घूमने को सांस की तरह लेती हैं। इतवार का मतलब जिनके लिए सैर-सपाटा और रात का खाना खाकर घर लौटना है।

विनीता के लिए ये मुमकिन नहीं। वो रेड लाइट एरिया में रहती हैं, जहां बाहर निकलना यानी किसी शराबी-कबाबी से टकराना। एक डर ये भी है कि लड़की कहीं किसी दलाल के हाथ पड़कर रातोंरात गायब न हो जाए। शायद पहले यहां ऐसा हो चुका हो। हालांकि, मेरे जैसी बाहरी व्यक्ति के सामने सिर्फ इशारों-इशारों में ही ये बात कही गई।

22 साल की विनीता से मिलते हुए मैं पहुंचा 55 बरस की राजरानी के पास। रेड लाइट इलाके में तब बिजली कटी हुई थी और संकरे घरों में गहरा अंधेरा था। बाहर रोशनी में आकर मैंने सवाल किया तो वो जैसे फट पड़ीं- घणे-सारे लोग यहां से चले गए। बस दो-तीन घर रह गए हैं।

सबसे हमारा रोटी का नाता था। दोपहर कंघी करते हुए, चने खाते हुए हम दुख-सुख बांटते। अब कोई बाकी नहीं। न खुशी में हंसने के लिए, न दुख में रोने के लिए। दो-चार लोग हैं, वो भी गली छोड़ना चाहते हैं। जैसे ही पैसे आएंगे, सब चले जाएंगे।

और आप! सवाल पर आवाज आती है- मुझे यहां रहते 40 साल हुए। पुराने बरगद की जड़ों से भी ज्यादा गहरे जमी हूं मैं। अब यहां से शायद ही कहीं और जा सकूं! जीबी रोड पर जितनी रौनकें हैं, उससे सटी हुई इन गलियों में उतना ही सन्नाटा। दोपहर में भी धूप नहीं आती, जैसे दुख का साया हर मकान को अपने भीतर समेटे हुए हो। राजरानी को दुख है कि बुढ़ापे में भी उनकी हड्डियों को पूरी धूप नहीं मिलती।

उंगलियां चटकाते हुए वे कहती हैं- रात में नींद नहीं आती। पूरे शरीर में दर्द रहता है। डॉक्टर धूप में बैठने को कहता है। पार्क में पैदल चलने को कहता है। दोनों ही बातें यहां नहीं हो सकतीं। घर में धूप आती नहीं और पार्क कहीं है नहीं। जहां है भी, वहां जाने पर खतरा है। रात-बिरात कहीं निकलना पड़ जाए तो डर रहता है कि कोई दबोच न ले।

एक दर्द और भी है, जो पसलियों के दर्द से भारी है। राजरानी छोटी-सी हिचक के साथ कहती हैं- यहां रहने वालों के रिश्ते नहीं होते हैं। कौन भला रेड लाइट एरिया में अपनी बहन-बेटी को भेजे! कई बार ऐसा हुआ कि रिश्ता होते-होते रुक गया क्योंकि हम जीबी रोड के रहने वाले हैं।

कई परिवारों की बेटियां शादी के इंतजार में बालों में खिजाब लगाने लगीं। बेटों के बाल कम होते-होते गायब हो गए। इसके बाद बहुत से लोग इलाका छोड़कर चले गए। कोई नई दिल्ली रहता है, कोई पुरानी दिल्ली, तो कोई अपने गांव चला गया। अब बस जीबी रोड नाम की बदनाम सड़क है, और अंधेरी गलियों में छिपते-छिपाते हम जैसे कुछ परिवार हैं।


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