Sanchit Srivastava

Drama

5.0  

Sanchit Srivastava

Drama

#ए जर्नी टू होम

#ए जर्नी टू होम

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यूँ तो छुट्टियों में घर जाने का उत्साह या खुजलाहट हर किसी में होती है पर ये खुजलाहट, डर और दर्द में तब तब्दील हो जाती है जब मिल बैठते हैं तीन यार आपकी हस्ती खिलखिलाती लापरवाह ज़िंदगी में भसड़ मचानेके लिए आप आपके मां बाप और टीवी शोज़। घर में मिलने वाली इज़्ज़त की मात्रा इस बत पर डिपेंड करती है की आपको आए हुए कितने दिन हुए हैं और सामने बुद्धु बक्से में कौन सी तबाही मची है। रगड़ाई उसी बेस पर होगी। ये एक्सपीरियंस दिलदहलाने के लिए काफी होता है।  

पहला दिन~ जब पहले दिन आप घर पहुँचते हैं तो आपको एकदम प्रिन्स चार्ल्स जैसा ट्रीटमेंट मिलता है। क्या खाओगे। कब खाओगे ये बनाले वो बना ले । चलो कुछ ले आते हैं। इतनी भारी मात्रा में इज़्ज़त मिलती है जिसकी आपको आदत भी नहीं होती। उस टाइम तो लगता है अपुन ईच भगवान है। हाज़मा बिगड़ने लगता है। एक आध बार तो हाउस नम्बर और पिताजी का नाम आधार कार्ड से मैच कराना पड़ जाता है की भाई दो अनजाने के अमिताभ बच्चन की तरह कहीं ग़लत घर में तो नहीं आ गये।  

दूसरा दिन~  ये वो दिन होता है जब इज़्ज़त ग्रैजूअली कम होने लगती है। इस दिन टीवी का चैनल रिक्वेस्ट बेसिस पर आपसे चेंज करवाया जाता है। डायलॉग कुछ यूँ होता है”अरे भईया वो ससुराल सिमरका लगा दो, देखा नहीं हमने काफ़ी दिनो से, नागिन लगा दो “ । आप भी माताजी की लव्ली रिक्वेस्ट डिक्लाइन नहीं कर सकते। भाईसाहब ये ससुराल बेशक से सिमर का होगा पर नौटंकी पूरे सौरमंडल से भी कहीं ज़्यादा की है । एलीयन लेवल की बकैती दिखाते हैं।  अमाँ यार ये बताओ किसकी बहु मक्खी बनके ग़ीग़ी करती है। शादी के पहले पूछना पड़ेगा , ”आ एक्सक्यूज मी आँटी जी । आपकी बेटी में रूप बदलने का टैलेंट है। मतलब मक्खी मच्छर टिड्डा वग़ैरह बैन लेती है क्या” समझ नहीं आता क्या ज़हर घोल रखा है इन लोगों ने।

ऐसे में दो ही ऑप्शन बचते हैं या तो साथ बैठकर अपने कमल नयनों पर ये अत्याचार होने दो या फिर हन्न से पूरे जोश के साथ उठो(इतना भी जोश नहीं की कुर्सी टूट जाए। सम्भाल के वरना योर सेकंड डे विल बी योर लास्ट डे) और पहली फुर्सत में कमरे और घर से बाहर निकल जाओ। उसी में समस्त मानव समाज की भलाई है।  खासकर के बालक तुम्हारी और सिर्फ तुम्हारी।  

तीसरा दिन~ 

पार्ट १~ रियल्टी शो इफेक्ट

तीसरा दिन क़यामत का दिन होता है जब आपके सारे पापों का हिसाब किताब किया जाता है। आपकी इज़्ज़त का मीटर देश की जीडिपी की पूरी तरह नीचे आ चुका होता है। इस दिन घरवालों के “माह होम माह रूल्ज़” चलते है।

टीवी का रिमोट भी आपसे छीन लिया जाता है। क़सम से स्वर्ग के राजेश खन्ना जैसा फ़ील आउट सा महसूस होने लगता है। ये दिन एक इशारा है उस नीली छतरी वाले का की बेटा वापसी की टिकट करा लो चाहे तत्काल में ही क्यों न करानी पड़े। करवाओ और निकलो।

इस दिन टीवी पर ज़हरखुरानी से भी कहीं ज्यादा ज़हरीले रियलटी शोज़ तांडव मचा रहे होते हैं। और कही साथ में बाग़बान आ जाए तो फिर क्या कहने। मतलब हार्पिक के साथ फिनायल पीने वाले हालात हो जाते हैं। कतई मौत ही आ जाती है एकदम।

ये रियलटी शोज़ की दुनिया में कोई भी सुखी नहीं है। रविश कुमार स्टाइल में बोलें तो”भसड़ का माहौल है”

स्टोरीज़ में इतना दर्द क्या बोले इतना ज़्यादा दर्द की एक बार को तो स्वर्गीय मुकेश हा वहीं जिनकी आवाज में बहुत दर्द था और  मुंशी प्रेमचंद को भी पेनकिलर लेनी पड़ जाए। वो भी सोचने को मजबूर हो जाएं कि भैंस की पूँछ इतना पेन तो साला “पूस की रात और गोदान(मेरे प्यारेचरसी बालकों यहाँ गोदान स्टोरी की बात हो रही है। गोदान गरम की नही) में भी फ़ील न हुआ था”

“बहुत हार्ड भाई बहुत हार्ड” 

तीसरा दिन- पार्ट २ टेरर ऑफ बागबान

 2003 में बागबान के रिलीस होने के पहले देश औे दुनिया के सारे बच्चेश्रवण कुमार थे। पाप तो कहीं था ही नहीं भाई। पर अमित जी की इस कालजयी रचना के बाद माँ बाप की सोच और बच्चों की जिंदगी में एक क्रांतिकारी बहुत ही क्रांतिकारी बदलाव आया जो कि चाहिए भी नहीं था।

बाग़बान देखते ही घरवालों की नज़र में आप श्रवण कुमार से सीधा जैसी करनी वैसी भरनी के शक्ति कपूर बन जाते हैं।

घर में एक अलग हाइपोथेटिकल माहौल क्रीएट हो जाता है( हा वही डर का)। घरवाले अपने आपको विक्टिम समझने लगते हैं। और आपको विलेन।  बात २ पर विक्टिम कार्ड खेला जाता है। अमा यार सातवीं क्लास में थे हम जब बाग़बान आयी थी। दो दिन तक घर में सन्नाटे का माहौल था। हर दूसरी बात की तीसरी लाइन यही होती थी”आजकल कोई भरोसा नहीं रह गया। किसकी औलाद कैसी निकल जाए। अब इन दोनो को ही देख लो(मेरे और मेरे भाई की तरफ़ इशारा करके) हमें तो लगता है यही न नालायक निकल जायें। ताना जी तो न्यूट्रीशीयन की तरह डेली डोज़ में मिलने लगे थे।

पहले कहते थे टीवी ने बच्चे बिगड़ दिए हमें तो लगता है टीवी ने तो हमारे माँ बाप ही बिगाड़ कर रख दिए। हमारी जेनरेशन के बच्चों की हस्तीखेलती ज़िंदगी में चरस बोने में जितना योगदान इस बाग़बान का है उतनातो साला हमारा ख़ुद का और मोबाइल का भी नहीं है।  

चौथा और आख़िरी दिन~ 

जैसा की नाम से ही ज़ाहिर है। ये दिन चौथे से कम नहीं होता। तीसरे दिन की भरपूर बेज़्ज़ती और अपनी बची खुची लाज औ हया को समेटकर आप इस दिन वापसी का टिक्केट करा लेते हैं। इस दिन आपको फ़र्स्ट डे वाली वॉर्म फ़ील दी जाती है।  बोला जाता है और एक आध दिन रुक जाओ। इस बार जल्दी आना(हमको तो लगता है ये बोलकर हाई फ़ाइव भी करते होंगे और सोंचते होंगे इस बार और नए तरीक़े से ज़लील करेंगे इसे)

बट डूड ट्रस्ट मी इट्स अ ट्रैप। या माह निग्गास इट्स अ ट्रैप। मेरी मानो तो बेटा कभी लपेटे में आ मत जाना। क्योंकि चौथे दिन अगर रुक गए तो समझ लो दिल्ली दूर है और जेनरल डिब्बा यमराज की सवारी। क्योंकि टिक्केट फिर न मिलनी दोबारी। बची खुचि इज़्ज़त भी तानो के नाखूनों से खरोंचकर निकाल ली जाएगी। बता रहे हैं लिख लो। नोट कल्लो। चाहो तो पेन हमसे ले जाओ।  

इस तरह से आप घर वापसी से लेकर घर से वापसी के खट्टे मीठे अनुभवलेकर दोबारा फ़ाइट मोड पर निकल पड़ते हैं ज़िंदगी की लड़ाई लड़ने।

पर आख़िर में बस अड्डे या स्टेशन पर खड़े होकर दिमाग़ में आता है की यार जो भी हो घरवालों से मिल लो तो ज़ीने की इच्छा बढ़ जाती है। बाक़ी तो बस दौड़ है दौड़। घूम फिरकर वापिस यही आना है। पहली मोहब्बत और आख़िरी कहानी यही है। सुकून भी है। तो बस यहीं है क्योकिं भाई लोग 

ये वो बंधन है जो कभी टूट नहीं सकता।  


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