ए ज़र्नि टू होम एंड डेली सोप
ए ज़र्नि टू होम एंड डेली सोप
यूँ तो छुट्टियों में घर जाने का उत्साह या खुजलाहट हर किसी में होती है।पर ये खुजलाहट, डर और दर्द में तब तब्दील हो जाती है जब मिल बैठते हैं तीन यार आपकी हस्ती खिलखिलाती लापरवाह ज़िंदगी में आतंक मचाने के लिए आप आपके मा बाप और टीवी शोज़
घर में मिलने वाली इज़्ज़त की मात्रा इस बत पर डिपेंड करती है कीआपको आए हुए कितने दिन हुए हैं और सामने बुद्धु बक्से में कौन सी तबाही मची है, रगड़ाई उसी बेस पर होगीये एक्सपीरियंस दिलदहलाने के लिए काफी होता है
पहला दिन~ जब पहले दिन आप घर पहुँचते हैं तो आपको एकदम प्रिन्स चार्ल्स जैसा ट्रीटमेंट मिलता हैक्या खाओगेकब खाओगे ये बनाले वो बना ले चलो कुछ ले आते हैंइतनी भारी मात्रा में इज़्ज़त मिलती है जिसकी आपको आदत भी नहीं होतीउस टाइम तो लगता है अपुन ईच भगवान हैहाज़मा बिगड़ने लगता हैएक आध बार तो हाउस नम्बर और पिताजी का नाम आधार कार्ड से मैच कराना पड़ जाताहै की भाई दो अनजाने के अमिताभ बच्चन की तरह कही ग़लत घर में तो नहीं आ गए।
दूसरा दिन~ ये वो दिन होता है जब इज़्ज़त ग्रैजूअली कम होने लगती हैइस दिन टीवी का चैनल रिक्वेस्ट बेसिस पर आप से चेंज करवाया जाता हैडायलॉग कुछ यूँ होता है”अरे भईया वो ससुराल सिमर का लगा दो, देखा नहीं हमने काफ़ी दिनो से, नागिन लगा दो “ आप भी माताजी की लव्ली रिक्वेस्ट डिक्लाइन नहीं कर सकतेभाईसाहब ये ससुराल बेशक से सिमर का होगा पर बवाल पूरे सौरमंडल से भी कहीं ज़्यादा का है एलीयन लेवल की बकैती दिखाते हैं अमाँ यार ये बताओ किसकी बहु मक्खी बनकर ग़ीग़ी करती हैशादी के पहले पूछना।पड़ेगा , ”आ एक्सक्यूज मी आँटी जी आपकी बेटी में रूप बदलने का टैलेंट हैमतलब मक्खी मच्छर टिड्डा वग़ैरह बैन लेती है क्या” समझ नहीं आता क्या ज़हर घोल रखा है इन लोगों ने
ऐसे में दो ही ऑप्शन बचते हैं या तो साथ बैठकर अपनी नाज़ुक आँखो पर ये अत्याचार होने दो या फिर हन्न से पूरे जोश के साथ उठो(इतना भी जोश नहीं की कुर्सी टूट जाएसम्भालके वरना योर सेकंड डे विल बी योर लास्ट डे) और पहली फुर्सत में कमरे और घर से बाहर निकल जाओउसी में समस्त मानव समाज की भलाई है खासकर के बालक तुम्हारी और सिर्फ तुम्हारी
तीसरा दिन~
पार्ट १~ रियल्टी शो इफेक्ट
तीसरा दिन क़यामत का दिन होता है जब आपके सारे पापों का हिसाब किताब किया जाता हैआपकी इज़्ज़त का मीटर देश की जीडीपी के साथ पूरी तरह नीचे आ चुका होता हैइस दिन घरवालों के माह होम माह रूल्ज़ चलते है
टीवी का रिमोट भी आपसे छीन लिया जाता हैक़सम से स्वर्ग के राजेश खन्ना जैसा फ़ील आउट सा महसूस होने लगता हैये दिन एक इशारा है उस नीली छतरी वाले का की बेटा वापसी की टिकट करा लो चाहे तत्काल में ही क्यों न करानी पड़ेकरवाओ और निकलो
इस दिन टीवी पर ज़हरखुरानी से भी कहीं ज्यादा ज़हरीले रियलटी शोज़ तांडव मचा रहे होते हैंऔर कही साथ में बाग़वान आ जाए तो फिर क्या कहनेमतलब हार्पिक के साथ फिनायल पीने वाले हालात हो जाते हैंकतई मौत ही आ जाती है एकदम
ये रियलटी शोज़ की दुनिया में कोई भी सुखी नहीं हैरविश कुमार स्टाइल में बोलें तो”भसड़ का माहौल है”
स्टोरीज़ में इतना दर्द क्या बोले इतना ज़्यादा दर्द की एक बार को तो स्वर्गीय मुकेश हा वहीं जिनकी आवाज में बहुत दर्द था और मुंशी प्रेमचंद को भी पेनकिलर लेनी पड़ जाएवो भी सोचने को मजबूर हो जाएं कि भैंस की पूँछ इतना पेन तो साला “पूस की रात और गोदान(मेरे प्यारे चरसी बालकों, यहाँ गोदान स्टोरी की बात हो रही हैगोदान गरम की नाहीं) में भी फ़ील न हुआ था”
“बहुत हार्ड भाई बहुत हार्ड”
तीसरा दिन- पार्ट २ टेरर ऑफ बागबान
2003 में बागबान के रिलीस होने के पहले देश औे दुनिया के सारे बच्चे श्रवण कुमार थेपाप तो कहीं था ही नहीं भाईपर अमित जी की इस कालजयी रचना के बाद मा बाप की सोच और बच्चों की जिंदगी में एक क्रांतिकारी बहुत ही क्रांतिकारी बदलाव आया जो कि चाहिए भी नहीं था
बाग़बान देखते ही घरवालों की नज़र में आप श्रवण कुमार से सीधा जैसी करनी वैसी भरनी के शक्ति कपूर बन जाते हैं
घर में एक अलग हाइपोथेटिकल माहौल क्रीएट हो जाता है( हा वही डर का)घरवाले अपने आपको विक्टिम समझने लगते हैंऔर आपको विलेन बात २ पर विक्टिम कार्ड खेला जाता हैअमा यार सातवीं क्लास में थे हम जब बाग़बान आयी थीदो दिन तक घर में सन्नाटे का माहौल थाहर दूसरी बात की तीसरी लाइन यही होती थी”आजकल कोई भरोसा नहीं रह गयाकिसकी औलाद कैसी निकल जाएअब इन दोनो को ही देख लो(मेरे और मेरे भाई की तरफ़ इशारा करके) हमें तो लगता है यही न नालायक निकल जायेंताना जी तो न्यूट्रीशीयन की तरह डेली डोज़ में मिलने लगे थे
पहले कहते थे टीवी ने बच्चे बिगड़ दिए हमें तो लगता है टीवी ने तो हमारे माँ बाप ही बिगाड़ कर रख दिएहमारी जेनरेशन के बच्चों की हस्ती खेलती ज़िंदगी में चरस बोने में जितना योगदान इस बाग़बान का है उतना तो साला हमारा ख़ुद का और मोबाइल का भी नहीं है
चौथा और आख़िरी दिन~
जैसा की नाम से ही ज़ाहिर हैये दिन चौथे से कम नहीं होतातीसरे दिन की भरपूर बेज़्ज़ती और अपनी बची खुची लाज औ हया को समेटकर आप इस दिन वापसी का टिक्केट करा लेते हैंइस दिन आपको फ़र्स्ट डे वाली वॉर्म फ़ील दी जाती है बोला जाता है और एक आध दिन रुक जाओइस बार जल्दी आना (हमको तो लगता है ये बोलकर हाई फ़ाइव भी करते होंगे और सोंचते होंगे इस बार और नए तरीक़े से ज़लील करेंगे इसे)
बट डूड ट्रस्ट मी इट्स अ ट्रैपया माह निग्गास इट्स अ ट्रैपमेरी मानो तो बेटा कभी लपेटे में आ मत जानाक्योंकि चौथे दिन अगर रुक गए तो समझ लो दिल्ली दूर है और जेनरल डिब्बा यमराज की सवारीक्योंकि टिक्केट फिर न मिलनी दोबारीबची खुचि इज़्ज़त भी तानो के नाखूनों से खरोंचकर निकाल ली जाएगीबता रहे हैं लिख लोनोट कल्लोचाहे तो पेन हमसे ले जाओ
इस तरह से आप घर वापसी से लेकर घर से वापसी के खट्टे मीठे अनुभव लेकर दोबारा फ़ाइट मोड पर निकल पड़ते हैं
पर आख़िर में बस अड्डे या स्टेशन पर खड़े होकर दिमाग़ में आता है की यार जो भी हो घरवालों से मिल लो तो ज़ीने की इच्छा बढ़ जाती है बाक़ी तो बस दौड़ है दौड़घूम फिरकर वापिस यही आना हैपहली मोहब्बत और आख़िरी कहानी यही है
सुकून भी हैतो बस यहीं है क्योकिं भाई लोग
ये वो बंधन है जो कभी टूट नहीं सकता।