Arya Jha

Drama

5.0  

Arya Jha

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दूसरा मौका

दूसरा मौका

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"मिलना-जुलना तक ठीक है, पर कुछ आगे भी सोचा या नहीं ?" जूली के पिता नवजोत जी ने जब केशव से पूछा तो वह एकदम घबरा गया। "अंकल मैं भाई-बहनों में सबसे छोटा हूँ। सबकी शादी होने के बाद ही अपनी शादी की सोच पाऊँगा।" हकलाते हुए केशव के मुँह से गिने-चुने शब्द निकले। "मेरी तो इकलौती औलाद है और हम दोनों की उम्र हो गयी है। तुम्हारे सब भाई-बहनों की शादी तक तो नहीं रुक सकते बेटे। मुझे 1 एक वर्ष के अंदर ही इसकी शादी करनी है। तुम सेटल हो जाओ तो अपने घर वालों से बात कर लो, वरना मुझे मजबूरन इसका रिश्ता कहीं और करना पड़ेगा।"

सीधा-साधा केशव समझ नहीं पाया कि नवजोत जी उसके सरल शब्दों के जटिल अर्थ निकाल लेंगे। उन्होंने जूली से कहा "तुम्हारे प्यार को पाने की ललक कहाँ है इसमें, वरना अबतक कुछ कर लेता। तुम्हारी शादी तो अपनी बिरादरी में करूँगा। जोशीला जवान किसे कहते हैं फिर कहना!" "पापा वो मेरा बेस्ट फ्रेंड है। मैं उसे बहुत अच्छी तरह से जानती हूँ और हम साथ बहुत खुश रहेंगे।" "जिंदगी बस दोस्ती और ख़ुशियों पर नहीं, बल्कि प्राथमिकता पर चलती है। उसकी प्राथमिकता तुम नहीं उसका परिवार है।" एक सच्चाई जो पिता के मुँह से निकली तो बेटी की आँखों में आँसु आ गए। अनुभवी पिता की बातों को काट नहीं पाई। उसके दिल में उनकी बात घर कर गयी कि अगर उसका परिवार महत्वपूर्ण है तो मेरा क्यों नहीं ? 

अच्छे से अच्छा रिश्ता भी जल कर ख़ाक हो जाता है जब इगो बीच में आता है। बस दोनों जिद पर आ गए। मेरा परिवार-तेरा परिवार करते हुए एक वर्ष का समय यूँ ही निकल गया। बेटी की पसंद पर पिता का निर्णय भारी पड़ गया था। पिता ने गबरू जवान देख रखा था। धूमधाम से ब्याह सम्पन्न हो गया। जूली पति रणजीत के साथ यथासम्भव एडजस्ट करती गयी। पिता को शायद अपने उम्र का पूर्वाभास था। वे एक वर्ष के अंदर ही चल बसे। उनके सम्पत्ति की इकलौती वारिस जूली हर समय ग़मगीन रहती। पिता का साया उठ चुका था। माँ का साथ था, पर कहीं ना कहीं मन का सूनापन उसे खंगालता। रणजीत की दिलचस्पी उसमें नहीं बल्कि पैसे बनाने में थी। उसने दिल लगाने के लिए नौकरी जॉइन कर ली। उसकी अनुपस्थिति में घर में कुछ और ही चल रहा था।

मम्मी की तबीयत दिनोंदिन बिगड़ने लगी। उसे बार-बार लगता कि वह कुछ कहना चाहती हैं पर कह नहीं पा रही हैं। कभी-कभी बातों के बीच रणजीत आता तो एकदम चुप लगा जाती। जूली को थोड़ा संदेह होने लगा तो चौकन्नी हो गयी। पूरी पोल तो तब खुली जब इतवार की सुबह बैंक मैनेजर ख़ुद मम्मी से पूछने आ गए कि अचानक 5 लाख कॅश की ज़रूरत क्यों पड़ी। बैंक पहुँच कर पता चला कि हर महीने लगभग 50000 रुपये निकल रहे हैं। रणजीत स्वयं कॅश लेकर आ रहा है। रणजीत से पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि वह नया बिज़नेस शुरू करने के लिए माँ से पैसे ले रहा है। जूली को काटो तो खून नहीं। उसे समझते देर नहीं लगी कि वह धीरे-धीरे उसके परिवार को खोखला कर रहा था। जूली ने साफ़ शब्दों में माँ से रणजीत को और पैसे देने के लिए मना किया।

इसके बाद रणजीत अपने असली रंग में आ गया। हाथी के समान ही उसके खाने के दाँत और थे तथा दिखाने के कुछ और! "मैंने तो तुम लोगों पर रहम कर ये शादी की थी। अगर साथ रहना है तो पैसे तो देने पड़ेंगे। वरना अपना रास्ता नापो!" "अब रास्ता तुम नापोगे रणजीत! तुम शायद भूल रहे हो कि ये घर मेरी माँ का है।" "है नहीं था! तुमसे शादी के एवज़ में पहले ही इस घर के कागज़ात इन्होंने मुझे उपहार स्वरूप दे दिया था।" माँ तो जैसे इस फ़रेबी रिश्ते की जकड़ में कैद थीं। उनकी ख़ामोशी सब बयां करती थी। बोलती तो जाने क्या हो जाता ? उसके पीठ पीछे कितना डराता-धमकाता होगा।

अब चाहे जो हो, वह सही कदम उठा कर रहेगी। उसने अपने कजिन विक्की जो पेशे से वक़ील था, को घर बुला लिया। उसने घर के ओरिजिनल पेपर्स माँ के नाम पर कर दिया। माँ की सम्पत्ति तो स्वतः ही पुत्री को ही मिलती है। अतः कोई परेशानी नहीं थी। आगबबुला होकर रणजीत उसकी जिंदगी और घर दोनों से बाहर हो गया। इसी जोशीले दामाद की कल्पना कर पिता ने केशव को ठुकराया था। खैर! देर आये दुरुस्त आये! ये बेहतरीन बात थी कि माँ के सामने ही रणजीत का पर्दाफाश हो गया, वरना वह और भुगतती। रक़म की ही बर्बादी हुई पर घर तो बच गया। पिता की जिद पर बनाये हुए फ़रेबी रिश्ते से उन्हें आज़ादी मिल गयी थी।

डबडबायी आँखों से माँ ने केशव को बुलाने के लिए कहा तो वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई। पहले तो पिता के कहने पर अलग हो गयी थी और अब किस मुँह से उसे आवाज़ देती, ये सोच कर मानसिक रूप से परेशान थी। माँ को उसकी मनःस्थिति समझ में आ रही थी। उन्होंने यह कहकर बेटी को मना लिया कि केशव ने हमेशा ही उन्हें माँ का दर्जा दिया है !

वह मिलने ज़रूर आएगा। किस्मत के आगे घुटने टेकने से बेहतर है कि दोबारा जीवन को संवरने का मौका दिया जाय। केशव तो जैसे कबसे पलकें बिछाये बैठा था। शायद ही ऐसा कोई दिन बीता जब उसने जूली को खोने का दुख ना मनाया हो। उसने खुशी से अपनी मित्र को जीवनसंगिनी बनाना स्वीकार कर लिया। आज तीनों साथ कितने ख़ुश थे। पिता की गलती सुधार कर माँ ने बच्चों को वापस जोड़ दिया था। एक बार फिर से जी उठी थी वो। फिर से खुशहाली ने दरवाज़े पर दस्तक दी थी।


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