दुनियाँ का सबसे अच्छा विवाह
दुनियाँ का सबसे अच्छा विवाह
दीपक श्रीवास्तव कमरे की बालकनी में खड़ा विवाहोत्सव की तैयारियाँ देख रहा था। अनेक लोग बड़े से मैदान में प्लाईवुड प्लास्टर और लकड़ी के माध्यम से विशाल महल नुमा ढांचा खड़ा कर रहे थे। बड़ी बड़ी शादियों में आना जाना हुआ पर इतना वैभव प्रदर्शन कभी नहीं देखा। परसों से दीपक आया है। निमंत्रण के साथ ही रेल टिकट मिल गया था साथ ही स्टेशन पर लेने आने वाली कार का नंबर और ड्राइवर की सूचना संबंधी पत्रक था। ड्राइवर ने लाकर इस सुसज्जित कमरे में ठहरा दिया। सारी व्यवस्था देखकर उसका मन प्रसन्न हो गया। तीन दिन से नाश्ता भोजन सब समय से उपलब्ध। हाँ! फूफा जी से अलबत्ता भेंट न हो सकी। वैसे भी बुआ के देहांत के बाद कोई सम्बन्ध तो रहा नहीं था और फूफा जी इतने बड़े आदमी थे कि जब बुआ जीवित थी तब भी उनके पास समय कहाँ था? इतने वर्षों बाद उन्हें हमारी याद आई और निमंत्रण भेजा यही क्या कम था! तीसरे दिन शाम को कोलाहल सुनकर दीपक कमरे से बाहर आया। नीचे बड़ी सी विदेशी कार से फूफा जी निकल रहे थे। उम्र ने काफी असर डाल दिया था पर चेहरे की शान अभी भी काफी असरदार थी। काफी सेवकों ने उन्हें घेर रखा था। कल विवाह था तो फूफा जी तैयारियों का अंतिम निरीक्षण करने पधारे थे। हमेशा की तरह सफेद झक कपड़ों में फूफा जी किसी राजा की तरह लग रहे थे। दीपक जल्दी से नीचे पहुँचा और उनके पैरों में झुक गया। फूफा जी मैनेजर से गंभीर चर्चा कर रहे थे उनकी नज़र दीपक पर नहीं पड़ी थी अचानक स्पर्श होने से वे चौंक पड़े इससे दीपक हड़बड़ा सा गया और उसका हाथ लगकर बगल में रखे गंदे पानी से भरा डिब्बा गिर कर फूफा जी के कीमती कपड़ों और जूतों का सत्यानाश कर गया। क्रोध में भरकर उन्होंने दीपक को अनायास एक हल्का धक्का सा दे दिया। मैनेजर के मुँह से भी भद्दी सी गाली निकल पड़ी। बिना परिचय दिए पहचानने का तो सवाल ही नहीं था पर वह कौन है उन दोनों ने यह जानने की भी चेष्टा नहीं की। फूफाजी इतना तो समझ ही गए थे कि उनके आमंत्रितों में से ही कोई है पर उसका परिचय जानने की उनकी न इच्छा थी न ज़रूरत! वे त्योरियाँ चढ़ाये हुए प्रस्थान कर गए दीपक कमरे में ऐसे लौटा मानो जूतों से पिटा हो। अगले दिन विवाह के समय दीपक का मन नहीं लग रहा था। अब वहाँ की सुख सुविधाएं और वैभव दीपक को काटने दौड़ रहे थे। हज़ारो की भीड़ में भी वह अकेला था। दीपक वहाँ से निकल कर निरुद्देश्य घूमता हुआ एक गलिच्छ बस्ती में जा पहुँचा। उसका मन खिन्न था। जगह-जगह कूड़े के ढेर पड़े थे। नंगे और अधनंगे बच्चे इधर उधर दौड़भाग रहे थे। कुछ कुत्ते इधर-उधर घूम रहे थे। एक जगह चार बाँस गाड़कर उस पर लाल रंग की साड़ी बांधकर एक मंडप जैसा बनाया गया था और उसके नीचे विवाह हो रहा था। कम उम्र के दूल्हा दुल्हन अपने हिसाब से सजे धजे बैठे थे। उनके परिजन उन्हें घेरे हुए गंभीरता पूर्वक अपने दायित्वों का निर्वाह कर रहे थे। दरिद्रता के उस रंगमंच पर यह सजीव नाटक दीपक को मनोरंजक मालूम हुआ। ना जाने क्यों वो भी जाकर उस मंडप में बैठ गया। एक सभ्य भलेमानस को अचानक अपने बीच पाकर वे थोड़ा असमंजस में दिखे उन्होंने प्रश्नवाचक दृष्टि से एक दूसरे को देखा और कोई समाधान न पाकर दीपक से उसका परिचय पूछने लगे तो दीपक हँसता हुआ बोला वैसे तो मैं आप लोगों का कुछ नहीं हूँ पर आप चाहें तो मुझे दुल्हन का मामा समझ सकते हैं। फिर क्या था उस दरिद्रनारायण समाज में हर्ष और उल्लास की लहर दौड़ गई। सामर्थ्यानुसार कई हाथ उसकी अगवानी और आतिथ्य को आतुर हो उठे। इतने बड़े व्यक्ति को अनायास अतिथि रूप में पाकर वे धन्य-धन्य हो रहे थे। दुल्हन की माँ अपने नए- नवेले भाई से मिलने आई और हाल-चाल पूछने लगी। उसके चेहरे का गर्व छुपाये नहीं छुप रहा था। अपेक्षाकृत साफ़ निकर बुशर्ट पहने दो बच्चे दीपक की गोद में बैठे थे। दीपक सबकी निगाहों का केंद्र था। हर्षोल्लास से विवाह संपन्न हुआ। वर वधु दीपक के पाँव छूने आये। दीपक के पिता ने सुनहरे लिफ़ाफ़े में ग्यारह सौ रूपये भरकर शगुन के रूप में देने को दिए थे वो निकालकर दीपक ने वधु को दे दिए और सर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया फिर विदा माँगी। सभी ने गले लगकर ऐसे विदा दी मानो वो जन्म- जन्म से उनका साथी हो। कन्या की माँ आंसू पोंछती कुछ पग पीछे-पीछे आई दीपक फिर आने का वादा करके चल पड़ा। फूफाजी के यहाँ पहुँच कर उसने देखा कि यहाँ भी विवाह ख़त्म हो चुका है विशाल मंडप मेहमानों से सूना पड़ा था। मज़दूर साफ़ सफाई कर रहे थे। दीपक अपने कमरे में पहुँचा और बैग लेकर चल पड़ा उसे न किसी ने कुछ पूछा न टोका किसी को फुर्सत ही कहाँ थी? रेलवे स्टेशन पर उसे एक परिचित मिला जिसने पूछा, क्यों दीपू! शहर के सबसे बड़े विवाह से आ रहे हो क्या? दीपक बोला, नहीं! मैं दुनियाँ के सबसे अच्छे विवाह समारोह से आ रहा हूँ !!