HARSH TRIPATHI

Drama

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HARSH TRIPATHI

Drama

दस्तूर - भाग -1

दस्तूर - भाग -1

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क्या आपने कभी लकड़बग्घे के बारे में सुना है?...और मकड़ी के बारे में?....अरे नहीं, मैं किसी टी.वी. सीरियल या फिल्म की बात नहीं कर रहा हूँ. मैं तो जानवरों की बात कर रहा हूँ. लकड़बग्घा देखा है?....बड़ा घृणित जानवर माना जाता है वह. ऐसा कहते भी हैं कि लकड़बग्घे का पेट जैसे अंधा कुआँ होता है. लेकिन पारिस्थितिकी में उसका बड़ा योगदान माना जाता है. बिल्ली से कुछ बड़ा और काफी कुछ कुत्ते जैसा होता है वो.....दो नुकीले दाँत आगे निकले हुए होते हैं उसके. और मकड़ी?....अरे वही जो जाल बुनती है, और जिसे हम अपने घरों से साफ करते रहते हैं. प्राणि वैज्ञानिकों के अनुसार इन दोनो जीवों में कुछ बेहद खास फितरत देखने में आती है. अफ्रीका के रेगिस्तानों में एक विशेष प्रकार का लकड़बग्घा पाया जाता है. इनकी प्रजाति में एक गुण पाया जाता है जिसे अंग्रेज़ी में ‘फ्रैट्रीसाइड’ या ‘सिब्लीसाइड’ बोलते हैं. इसके अनुसार, एक ही माँ से जन्मे बच्चों में कोई एक बच्चा, अपने बाकी सभी भाइयों की हत्या कर देता है. इसी तरह से अमेरिका के रेगिस्तानों में एक खास मकड़ी मिलती है, जिसमें मातृहत्या, अर्थात अंग्रेज़ी में ‘मैट्रीफैगी’ की प्रवृत्ति देखी जाती है, यानि जन्म लेने वाली संतान, अपनी माँ को ही मार कर खा जाती है. वह पहले उसे मारती है, फिर उसके शव को कई दिनों तक रखकर धीरे-धीरे खाती रहती है जिस से उसे पोषण की कमी न हो. ये दोनो बातें जितनी वीभत्स और विचित्र सोचने में लगती हैं, वास्तव में इन प्रजातियों में यह बड़ी सामान्य सी बात है, यह पीढ़ियों से होता आ रहा है. उनका दस्तूर है ये.

ये तो रही लकड़बग्घे और मकड़ी की बात. वे कभी इंसान नहीं बन सकते. लेकिन इंसान?


पूरे सौघरा में जब से यह खबर आयी थी, मातम का माहौल था. लोग सदमे में थे. सौघरा की शान, दिग्गज भूतपूर्व आई.ए.एस. अधिकारी, शहर के सबसे बड़े और अमीर उद्योगपति, और 7 बार लगातार शहर की सौघरा कैंट लोकसभा सीट से अवाम की नुमाइंदगी करने वाले, और 4 दफा भारत सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे मिर्ज़ा हैदर बेग़ का इंतकाल मुम्बई के एड्वर्ड अस्पताल में बीती रात 8 बजे हो गया था. वह 90 बरस के थे. पिछले काफी वक़्त से वह वहाँ भर्ती थे और ब्रेन ट्यूमर का इलाज चल रहा था.

दिल्ली से सौघरा लगभग 200 किलोमीटर की दूरी पर था, और मथुरा के बाद ही पड़ता था. किम्वदंतियों के अनुसार पहले कभी किसी वक़्त यहाँ एक बड़ा घना जंगल हुआ करता था, और इंसान नहीं रहते थे. फिर कभी किसी जाति के सौ परिवार, जो कहीं से उजड़े हुए थे, यहाँ आये और जंगल के छोटे से हिस्से को साफ करके यहाँ रहना शुरु किया. इन्ही सौ घरों की वजह से इस जगह का नाम ‘सौघरा’ पड़ गया यानि ‘सौ घरों वाली जगह’. एक तरह से कहा जाये तो उत्तर प्रदेश की शान था सौघरा शहर. यमुना बिल्कुल बीच से बहती थी उसके. यह जिला मुख्य रूप से मुस्लिम बाहुल्य था, और लगभग 55% आबादी मुसलमानों की थी, लेकिन गंगा-जमुनी तहज़ीब और साम्प्रदायिक सद्भाव का इस से बेहतर उदाहरण कोई और शहर शायद ही हो. इतने बरस बीत गये थे, यमुना में काफी पानी बह चुका था लेकिन आज तक सौघरा में कभी हिंदु-मुस्लिम दंगे नहीं सुने गये थे जबकि 47’ में बँटवारे के दौरान यहाँ से पाकिस्तान जाने वालों की तादात काफी थी, इसके बाद भी. सौघरे का पेठा और गजक, नमकीन पूरी दुनिया में मशहूर थी. मध्यकाल में, दिल्ली को 1638 ई. में मुगलों की राजधानी बनाने से पहले, सौघरा ही उनकी राजधानी हुआ करती थी. आज भी सौघरा के लोग अपने अतीत पर बड़ा फख्र करते हैं. थोड़ा वक़्त पहले तक पाकिस्तान के जो सद्र थे, उनकी जड़ें भी सौघरा से ही जुड़ी हुई थी. पाकिस्तान के कई दिग्गज सियासतदानों का पुश्तैनी रिश्ता सौघरा से था. लम्बे समय तक मुगल सल्तनत की राजधानी होने की वजह से सौघरा में कई शानदार, ऐतिहासिक इमारतें, मक़बरे, मस्जिदें, बाग-बगीचे आदि थे और सौघरा का किला तो विश्व प्रसिद्ध ही था. यहाँ घूमने देश-विदेश से लोग आया करते थे. अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ और औरंगज़ेब तक ने अपनी हुकूमत सौघरा से ही चलायी थी. राजधानी बदलने के बाद भी अपने शानदार माँज़ी और बेहद अहम भू-राजनीतिक स्थिति के कारण सौघरा हमेशा भारत सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार के लिये काफी खास बना रहा, हुकूमत चाहे जिस भी पार्टी की रही हो.

 मिर्ज़ा हैदर यहीं सौघरा शहर के रानी की मंडी इलाके के ही रहने वाले थे और पूरी लिखायी पढ़ायी यहीं के सौघरा कॉलेज से हुई थी. हमेशा अपनी पढ़ायी लिखायी में अव्वल आते थे मिर्ज़ा और अपने अध्यापकों के प्रिय छात्र हुआ करते थे. उर्दू साहित्य में एम.ए. करने के बाद आई.ए.एस. परीक्षा की तैयारी शुरु की थी और दूसरी बार में आई.ए.एस. बनने में कामयाब भी रहे थे वह. लगभग 35 साल तक उन्होने सरकार को अपनी सेवाएं दी और पूरे हिंदुस्तान में जगह-जगह पर, साथ ही दूसरे मुल्कों में भी, बड़े-बड़े ओहदों पर काबिल-ए-तारीफ काम किया था. नौकरी के अंतिम कुछ सालों में राजनीतिक दलों से भी नज़दीकियाँ बढ़ानी शुरु कर दी थी मिर्ज़ा ने. अब इतने साल नौकरी करके तो मिर्ज़ा को समझ आ ही गया था कि इस मुल्क में, या किसी भी मुल्क में सबसे अच्छा मुक़ाम सियासतदानों का ही होता है, बाकी तो सब उसके आगे पानी भरते है. फिर सियासती पार्टियाँ भी हमेशा उस इंसान को अपनी फेहरिस्त में सबसे ऊपर ही रखती हैं, जो इतने साल, और देश-विदेश में इतने बड़े-बड़े प्रशासनिक ओहदों पर इतने उम्दा तरीके से काम कर चुका हो, और जिसके तमाम लोगों से इतने बेहतरीन तालुकात हों. तो इस समीकरण का फायदा मिर्ज़ा को नौकरी के बाद तुरंत ही मिला जब रिटायरमेंट के फौरन बाद 1989 में उनको प्रजा समाज पार्टी से लोकसभा का टिकट मिल गया, तब से लेकर आज 2019 तक मिर्ज़ा सौघरा के बेताज बादशाह बने हुए थे. उनके 7 दफा एम.पी. रहने के दौरान ऐसा भी हुआ था कि उनकी पार्टी गठबंधन राजनीति के उस दौर में 5 बार सत्ताधारी गठबंधन का हिस्सा रही जिसमे 4 बार मिर्ज़ा कैबिनेट मंत्री तक रहे. भले ही पिछले 6 बरस से वह अब सांसद नहीं थे लेकिन पूरे सूबे में मिर्ज़ा और उनके परिवार की हनक अभी भी पूरी तरह कायम थी.

मिर्ज़ा का ताल्लुक, शहर के बेहद अमीर, ताजिर खानदान से था. उनके अब्बा सैयद सरफराज़ बेग शहर ही नहीं, पूरे सूबे और पूरे हिंदुस्तान के कामयाब ताजिरों में गिने जाते थे, और उन्होने मिर्ज़ा के दादा यानि अपने अब्बा सैयद जहाँगीर की कारोबारी विरासत को बड़ी खूबी से आगे बढ़ाया था. सैयद जहाँगीर ने तो जूते बनाने का मामूली कारोबार शुरु किया था लेकिन बेटे सरफराज़ ने अपने अब्बा के साथ उनके कारोबार में बड़ी मेहनत की और उस मामूली से कारोबार में भी काफी बरक़त की. उन्होने जूतों के अलावा कपड़े बनाने व बेचने का भी कारोबार शुरु किया और वह भी अच्छ-खासा चल निकला. उनकी कम्पनी के बनाये जूते व कपड़े भी मशहूर हो रहे थे और अब तो वह अपने सामान हिंदुस्तान के कई बड़े शहरों में भी भेज रहे थे. कुछ वक़्त बाद सरफराज़ ने पेट्रोल पम्प के धंधे में भी कदम कखा था और इसमे भी वह कामयाब रहे थे. इस तरह से सैयद सरफराज़ नामी ताजिर के तौर पर पहचाने जाने लगे थे.

दादा और अब्बा की इस प्रसिद्धि में मिर्ज़ा ने अपनी मेहनत और उपलब्धियों से चार चाँद लगा दिये थे. उन्होने कई दूसरे शहरों में अपनी जूते व कपड़े बनाने की फैक्ट्रियाँ और पेट्रोल पम्प खोले थे, और आज उनकी कम्पनी देश के कई शेयर मार्केटों में भी कारोबार कर रही थी. मिर्ज़ा ने अपने अब्बा हुज़ूर के इस चमकते कारोबार में एक हीरा और जोड़ा था. अपनी बेहद रसूखदार सरकारी नौकरी के रुतबे और अपने बेहतरीन कारोबारी व सियासती ताल्लुकात के दम पर मिर्ज़ा अपने रिटायरमेंट से कुछ पहले दिल्ली, सौघरा और उसके आस-पास के इलाके में रियल एस्टेट व एजुकेशन बिज़नेस में भी उतर गये थे. उनकी कम्पनी अब सड़क, ऑफिस, रिहाइश वगैरह बनाने लगी थी और स्कूल-कॉलेज खोलने पर भी वह ध्यान दे रहे थे. अभी 2014 में जाकर ही उन्होने अपनी लगातार बिगड़ती तबियत के चलते लोकसभा चुनाव लड़ने से मना कर दिया था और उनकी जगह उनके लड़के बहादुरशाह बेग ने प्रजा समाज पार्टी की ओर से चुनाव लड़ा जिसमे वह विजयी रहे, फिर 2019 में भी बहादुरशाह जीते. यह तो होना भी था. मिर्ज़ा का क़द इतना बड़ा था कि उनका लड़का तो चुनाव हार ही नहीं सकता था.

बहादुरशाह अपने वालिद की लाश लेकर अपने कुछ चुनिंदा सगे-सम्बंधियों के साथ मुम्बई एयरपोर्ट से सौघरा एयरपोर्ट की ओर विशेष चार्टर्ड विमान से तड़के 3 बजे रवाना हो चुके थे, इधर सौघरा एयरपोर्ट पर भारी भीड़ जुटने लगी थी जिसे काबू करने में पुलिस के पसीने छूट रहे थे. शहर भर से, और न सिर्फ शहर से, बल्कि दूर-दराज़ के गाँवों से, और आस-पास के दूसरे जिलों से भी लोग अपने प्रिय नेता की अंतिम झलक देखने के लिये सिर झुकाये चले आ रहे थे. क्या हिंदू, क्या मुस्लिम, लोगों का रेला चला आ रहा था. पुलिस के पास पहले ही सूचना आ चुकी थी, कि सूबे के सी.एम., गवर्नर, आस-पास के 3 सूबों के सी.एम. और गवर्नर, सूबे की काबीना के कई आला मंत्री, और दिल्ली से भी भारत सरकार के कई मंत्री भी श्रद्धांजलि देने आ रहे थे. अब ऐसे में वीवीआईपी नेताओं की भीड़ के साथ इतनी बड़ी अवाम को सम्भालना, मतलब पुलिस की अग्नि परीक्षा ही थी.

मिर्ज़ा बहुत बड़ी हस्ती थे. हिंदुस्तान जैसे इतने बड़े मुल्क में, लगातार 7 बार अवाम की मंज़ूरी हासिल करना और चुनाव जीतते चले जाना, इतनी बार दिल्ली में मंत्री बनना मज़ाक तो नहीं था, और बात केवल रुतबे की नहीं थी. बात यह थी कि जिस तरह से मिर्ज़ा ने अवाम से अपने ताल्लुक़ात बनाये थे, वह बात ज़बर्दस्त थी. सांसद थे, और भारत सरकार में मंत्री भी, लेकिन बेटी की शादी में जिस किसी ने जब भी मदद माँगी, मिर्ज़ा ने दिल खोलकर मदद की, और शादी पर बाक़ायदा उस इंसान के घर जाकर दूल्हा-दुल्हन को आशीर्वाद भी दिया. शहर के कितने ही स्कूल, कॉलेजों को मिर्ज़ा ने झोली भर-भर कर दान दिया था. शहर के मेडिकल व इंजीनियरिंग कॉलेज में भी मिर्ज़ा बराबर आते-जाते रहते थे और हमेशा जानकारी लेते रहते थे कि कॉलेजों में व्यवस्था ठीक है या नहीं, अध्यापक आ रहे हैं या नहीं, मेडिकल कॉलेज को कौन सी मशीन चाहिये, लाइब्रेरी को कितनी किताबें चाहिये, प्रैक्टिकल लैब में कौन सा साजो-सामान है या नहीं, शहर की कौन सी सड़क की हालत खराब है, शहर में महिला सुरक्षा की क्या हालत है, पुलिस शहर में कैसा काम कर रही है, सरकारी दफ्तरों में लोगों को परेशान तो नहीं किया जा रहा है, शहर में बिजली की क्या स्थिति है, गाँवों में किसान और मजदूरों की क्या समस्याएं हैं, आदि-आदि. मिर्ज़ा असल में पढ़े-लिखे थे, और पढ़ायी-लिखायी की क़द्र जानते थे, इसलिये स्कूल-कॉलेजों और यूनिवर्सिटी के काम-काज में उनकी गहरी दिलचस्पी थी. इंतज़ामियत में लम्बा वक़्त गुज़ारने और देश-विदेश में काफी काम करने की वजह से वह खूब समझते थे कि अवाम को किस चीज़ की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है और हिंदुस्तान में सरकारी विभाग कैसे काम करते हैं, इसीलिये सांसद और मंत्री रहते हुए मिर्ज़ा शहर के सरकारी दफ्तरों पर विशेष निगाह रखते थे. यही वजह थी शहर की अवाम उनसे खूब खुश रहा करती थी. यही नहीं, दूसरे ज़िलों से लोग भी उनके पास पहुँचते थे कि हमारे यहाँ भी फलाँ काम करवा दीजिये. हर तीज त्योहार पर, चाहे हिंदुओं के हों या मुस्लिमों के, मिर्ज़ा की तरफ से शहर भर में भण्डारे चलते थे. दूसरे सांसदों को मिर्ज़ा की मिसालें दी जाती थी. ताज्जुब नहीं था कि जब तक मिर्ज़ा चुनाव लड़े, हमेशा जीते.

मुसलमान होने के नाते, और इंतज़ामियत और सियासत में अपने बढ़े क़द के नाते, अपनी इस कमज़ोर कौम की बेहतरी को लेकर मिर्ज़ा खास फिक्रमंद रहा करते थे और लगातार कोशिशें भी करते थे. पल्स पोलियो अभियान के दौरान जब मुस्लिम समुदाय के लोगों यह बात फैली कि यह दवा पिलाना क़ौम के लिये ठीक नहीं है और यह क़ौम को बरबाद कर देगी, मिर्ज़ा खुद ही अधिक उम्र होने के बावजूद, अपने लोगों के साथ, और स्वास्थ विभाग की टीमों के साथ मुस्लिम मोहल्लों में लगातार कई महीनों तक घूमते रहे और लोगों के आगे मिन्नतें करके, हाथ जोड़ कर उनके बच्चों को दवा पिलवाते रहे. मिर्ज़ा को देखकर मुसलमानों में भरोसा जगता था. मिर्ज़ा पुरज़ोर कोशिश करते थे कि ऐसा कुछ न हो जिस से क़ौम का नाम खराब हो. मुसलमान अभिभावकों पर वह बड़ा ज़ोर देते थे कि “बच्चों को दुकान में न बिठाओ,…..उनसे साइकिल के पंचर न बनवाओ.....उंनसे वेल्डिंग न करवाओ......उनको तालीम दो. उनको स्कूल भेजो पढ़ने के लिये.....तब ऐसा एक मिर्ज़ा हैदर नहीं, सैकड़ों मिर्ज़ा हैदर होंगें.....हर घर में मिर्ज़ा होगा......तुम्हारे बच्चे आई.ए.एस. बनेंगे, सांसद बनेंगे. जो तुम इनको दुकान में बैठाओगे, वेल्डिंग करवाओगे, पंचर बनवाओगे.....तो सारी उमर ये बस यही करते रह जायेंगे, और इनके बाद इनके बच्चे भी यही करेंगे.......ये सब मत करो. इनको स्कूल-कॉलेज में भेजो......फीस की चिंता थोड़ा भी न करना.....मिर्ज़ा भरेगा तुम्हारे बच्चों की फीस.......तुम्हारे घरों में खाना नहीं हो तो मुझे बताओ. मैं भरपेट खाना लाकर दूंगा तुमको, लेकिन अपने बच्चों को स्कूल भेजो.” पूरे रमज़ान भर मिर्ज़ा की तरफ से शहर में कई जगह शाम को इफ्तार चला करते थे.

खुद करोड़पति होने के बाद भी मिर्ज़ा की जीवन-शैली बेहद साधारण दिखती थी. इस्लाम का दिलोजान से पालन करने वाले मिर्ज़ा शराब-सिगरेट से सारी उमर दूर ही रहे. पाँचों वक़्त तो नहीं, लेकिन जब भी वक़्त और जगह सही मिलती थी, वे नमाज़ ज़रूर पढ़ते थे. वह सुबह जल्दी उठते थे, और देर रात तक काम किया करते थे. घर में पैसा इतना ज़्यादा था, सरकार में भी इतनी बड़ी नौकरी कर चुके थे वह लेकिन कभी मिर्ज़ा इस बात का कोई दिखावा नहीं करते थे. वह काफी मिलनसार और कम बोलने वाले इंसान थे और बहुत तोल-मोल कर ही बोला करते थे, जिसकी वजह से लोग उनकी बात गौर से सुनते भी थे और कभी भी बुरा नहीं मानते थे. अपने व्यक्तिगत काम के लिये कभी भी मिर्ज़ा सरकारी सुविधा या गाड़ी वगैरह का इस्तेमाल नहीं करते थे, हमेशा अपनी गाड़ी लेकर निकलते थे, और तेल खुद के पैसे का ही भरवाते थे. कई बार लोगों ने उन्हे शहर के ट्रैफिक जाम में भी फँसा देखा था क्योंकि उनकी अपनी गाड़ी में न तो लाल बत्ती होती थी, और न सायरन, और न ही “सांसद” लिखा होता था.

मिर्ज़ा शानदार आदमी थे. वह अच्छी तरह जानते थे कि अवाम को क्या दिखना चाहिये और क्या नहीं दिखना चाहिये.  

आज अपने ऐसे प्यारे नेता मिर्ज़ा की मौत के बाद, शहर का माहौल ग़मगीन होना लाज़मी था. मिर्ज़ा का शव शहर में उनके पार्टी दफ्तर आना था, जिस से घर पर भीड़ न हो. यहाँ उनके घर परिवार के लोग भी थे. जनता के लिये अंतिम दर्शन के बाद सुपुर्द-ए-खाक करने के लिये शव परिवार को सौंप दिया जाना था. आलमबाग़ स्थित कब्रिस्तान में भी तैयारियाँ शुरु हो गयी थी.

तय समय पर सुबह 6 बजे हवाई जहाज़ ने सौघरा हवाई अड्डे की हवाई पट्टी को छुआ. बहादुरशाह और उनके साथ के लोग जैसे ही मिर्ज़ा की लाश लेकर, लाल और सूजी आंखों के साथ हवाई अड्डे पर उतरे, माहौल और ज़्यादा ग़मज़दा हो गया. हवाई अड्डे से बाहर पहुँचना था कि दुखी पार्टी कार्यकर्ताओं की भीड़ आसमान फाड़ देने वाली आवाज़ में नारेबाज़ी करने लगी थी. एयरपोर्ट से शहर के पार्टी दफ्तर तक दोनो तरफ कार्यकर्ताओं का हुज़ूम खड़ा था और अपने प्रिय नेता के सम्मान में नारे लगा रहा था. पार्टी दफ्तर जैसे ही गाड़ियों का काफिला पहुँचा, माहौल अत्यंत भावुक हो गया. कार्यकर्ताओं और समर्थकों की आँखों से आँसुओं की नदियाँ बह निकलीं. शव को नहला-धुलाकर जनता के अंतिम दर्शन के लिये पार्टी दफ्तर के हॉल में रखा गया था और सुबह 8:30 बजे से अवाम की जानिब से खिराज़-ए-तहसीन पेश करने का सिलसिला शुरु हो चुका था. पार्टी दफ्तर में मिर्ज़ा के परिवार के कुछ ही लोग, उनके 2 बेटे ही मौजूद थे, बाकी 2 बेटे और बेटी-दामाद, नाती-पोते और ज़्यादतर लोग अभी घर पर ही थे.

मिर्ज़ा के भाइयों की मौत पहले ही हो चुकी थी, और उनके भाइयों से उनके ताल्लुक़ात कोई अच्छे भी नहीं थे, लिहाज़ा उनके भाइयों के बच्चे वहाँ नहीं थे. मिर्ज़ा की बहनों और बहनोइयों की भी मौत हो चुकी थी, उन लोगों के बच्चे और परिवार घर पर आये हुए थे. मिर्ज़ा की तीनों बेग़मों में से दो तो काफी पहले चल बसी थी, तीसरी अभी ज़िंदा थी. उन सभी के बच्चे और नाती वगैरह भी आये हुए थे. अब 90 साल की उमर ज़रा सा तो होती नहीं. हर कोई इतने साल जीता भी नहीं. मिर्ज़ा इतने साल जिये कि उनका साथ देने वाला, उनके साथ का कोई बचा ही नहीं था तब तक.

शाम करीब 4 बजे शव उनके बेटों को सौंपा गया जिसे वे लोग अपने घर ले आये. घर पर ज़रूरी रिवाज इस्लामी तौर तरीके से विधिवत पूरे किये गये जिसके बाद मिर्ज़ा का शव प्रजा समाज पार्टी और तिरंगे झंडे में लपेटकर खुली हुई फूलों से लदी, पुलिस की ट्रक पर रखा गया, और मिर्ज़ा का आखिरी सफर शुरु हुआ. शहर का ट्रैफिक बिल्कुल थम-सा गया था. सड़क के दोनो ओर बड़ी तादात में लोग मौजूद थे जो ट्रक पर फूल बरसा रहे थे. ट्रक के साथ साथ ग़मज़दा कार्यकर्ताओं और समर्थकों का बड़ा भारी हुज़ूम चल रहा था. शहर के लाडले थे मिर्ज़ा, हर कोई उन्हें आखिरी दफा देखना और छूना चाहता था. रास्ते की दोनों तरफ मौजूद इमारतों की छतों और ऊपर अपनी बालकनियों में भी लोग खड़े थे और अपने प्यारे मिर्ज़ा के शरीर पर फूल बरसा रहे थे. पुराने लोगों को याद भी नहीं आ रहा था कि किसी की अंतिम यात्रा पर इतना बड़ा हुज़ूम शहर ने आखिरी दफा कब देखा था? घर से कब्रिस्तान की दूरी महज़ 3 किलोमीटर ही थी मगर तय करने में 4 घण्टे का वक़्त लग गया. कब्रिस्तान में मिर्ज़ा के चारों लड़कों ने धीरे-धीरे मिर्ज़ा के शरीर को कब्र में उतारा और और फिर वहाँ मौजूद लोगों ने शरीर को दफन करना शुरु किया. पुलिस की बटालियन भी मौजूद थी जिसने बंदूकों से आसमान में गोलियाँ चलाकर लोकप्रिय नेता को श्रद्धांजलि अर्पित की. उत्तर प्रदेश समेत 4 राज्यों के सी.एम., गवर्नर, सूबे की काबीना के कई मंत्री और भारत सरकार के कई मंत्री, हज़ारों की संख्या में समर्थकों, किसानों व पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ इस अद्भुत क्षण के गवाह बने.

मिर्ज़ा का भरा-पूरा परिवार था. तीन शादियाँ की थी उन्होने ज़ीनत महल, कुलसूम बानो, नूर बानो से और इन से उन्हे कुल 6 बच्चे हुए थे, 4 लड़के और 2 लड़कियाँ, और अल्लाह के फज़ल से सभी अपनी-अपनी ज़िंदगी में खुश थे. ज़ीनत महल अपने परिवार के साथ सौघरा में मिर्ज़ा के रानी की मंडी वाले पुश्तैनी घर में रहती थी और वहीं पर आखिरी साँस ली, जबकि कुलसूम बानो, वहीं से कुछ दूरी पर स्थित मिर्ज़ा के दूसरे घर जो भयाना में था, वहाँ रहती थी. उनका इंतक़ाल वहीं हुआ. तीसरी बीवी नूर के साथ मिर्ज़ा के सम्बंध काफी समय तक तल्ख़ ही रहे थे और वह सौघरे से दूर लखनऊ में मिर्ज़ा के एक अन्य बड़े से घर में रहती थी. मिर्ज़ा कड़वाहट के बाद भी नूर और उनके परिवार की ओर अपनी पूरी ज़िम्मेदारी समझते थे, और ईमानदारी से निभाते भी थे. लखनऊ में नूर और उनके बच्चों को कोई कमी या परेशानी न हो, मिर्ज़ा इसका पूरा खयाल करते थे और महीने में 2-3 चक्कर लखनऊ के भी लगा आते थे. इस बात के लिये मिर्ज़ा को कभी उनकी बाकी दोनों बीवियों ने टोका भी नहीं था. वे लोग इसे बेहतर समझती थीं कि मर्द और औरत में क्या फर्क होता है. अपने आखिरी वर्षों में तो मिर्ज़ा और नूर बानो के बीच के रिश्ते काफी ज़्यादा सुधर गये थे. हाँलाकि अब नूर बानो की तबियत भी ज़्यादा खराब रहने लगी थी. अच्छी बात यह थी कि मिर्ज़ा के इंतकाल की खबर मिलते ही उनके सभी बच्चे, अपने परिवारों के साथ रानी की मंडी, सौघरा आ पहुँचे थे. मिर्ज़ा के अंतिम संस्कार के लगभग एक हफ्ते बाद तक इस्लामी तौर-तरीकों से बाकी के रिवाज़ निपटाये गये, और अब घर आये लोगों ने जाना शुरु कर दिया था.

नूर बानो का 33-34 बरस का लड़का, शफाक़त अली, अपने अब्बा के इंतक़ाल की खबर सुनकर अपनी बीवी और बच्चे के साथ सौघरा आया हुआ था. शफाक़त, बेहद खूबसूरत नौजवान था जो बेहतरीन पढ़ायी-लिखायी के बाद हैदराबाद में एक बड़ी आई.टी. कम्पनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर के तौर पर काम करता था. सौघरा में उसे शाम को थोड़ी सी फुरसत मिली तो वह यमुना नदी के किनारे की ओर घाट की तरफ घूमने निकल गया. वहाँ जाकर वह नदी के किनारे बैठा. शाम की ठण्डी-ठण्डी हवा यमुना के पानी को छूकर आ रही थी और शफाक़त के चेहरे से खेल रही थी. उसे वहाँ बड़ा अच्छा लग रहा था. उसकी सारी थकान जैसे उतरती जा रही थी. अपने मोबाइल फोन को स्पीकर मोड पर किया उसने और नुसरत फतेह अली खान की सुंदर सी कव्वाली लगा दी. पहली बार उसके अब्बू ने ही उसे यह कव्वाली सुनाई थी. उनको भी और शफाक़त को भी वह कव्वाली बड़ी पसंद थी. हार्मोनियम, तबले और ढोलक की थाप पर कव्वाली चल रही थी--

“कभी यहाँ तुम्हें ढूंढ़ा, कभी वहाँ पहुँचा;

तुम्हारे दीद की खातिर, कहाँ-कहाँ पहुँचा,

फक़ीर लुट गये, पा’माल हो गये लेकिन;

किसी तलक आज तक न तेरा निशाँ पहुँचा,

हो भी नहीं, और हर जा’ हो.....

हो भी नहीं, और हर जा’ हो.....

हो भी नहीं, और हर जा’ हो.......तुम एक गोरख धंधा हो......तुम एक गोरख धंधा हो....”

वह पूरी मस्ती से नदी के किनारे यह कव्वाली सुन ही रहा था कि सहसा उसे लगा कि उसे कोई बड़े प्यार से बुला रहा है “...शफाक़त!...ओ शफाक़त!”. किसी महिला की आवाज़ थी वह. उसने फिर ध्यान देकर सुनने की कोशिश की. उसे फिर से किसी महिला की आवाज़ सुनाई दी “...शफाक़त!...ओ शफाक़त!”. उसने अपने मोबाइल पर चल रहा गाना अचानक रोक दिया.

उसने कहा “कौन है यहाँ?.....मुझे कौन बुला रहा है?” उस महिला की आवाज़ ने हँसते हुए उत्तर दिया “अरे...तुम मुझे नहीं देख पा रहे?....अरे मैं हूँ भई!...देखो तो!”. शफाक़त ने खड़े होकर, चिढ़कर कहा “कौन हैं आप?....सामने क्यों नहीं आतीं?...मुझे परेशान ना कीजिये, मैं वैसे ही परेशान हूँ....मेरे अब्बू का इंतक़ाल हो गया है.....घर के ग़मगीन माहौल से वक़्त निकालकर थोड़ी राहत लेने यहाँ आया हूँ. या तो मुझे आराम से बैठने दीजिये यहाँ और मुझसे बात न कीजिये, या फिर आप कौन हैं. मुझे यह बतायें.”

महिला की आवाज़ ने हँसकर कहा “हाँ....यमुना के किनारे राहत लेने सभी आते है, लेकिन यमुना को राहत कैसे मिले यह कोई नहीं बताता”.

शफाक़त ने हैरानी से कहा “क्या मतलब?....यमुना को राहत?.....पहले तो बताइये कि आप हैं कौन?.....और इस तरह के वाहियात सवाल क्या कर रही हैं आप?.....कम से कम सामने तो आइये आप!”

महिला की आवाज़ ने हँसकर कहा “अरे!...अब कैसे आऊँ सामने?......इतनी देर से ठीक तुम्हारे सामने ही तो हूँ, देखो तो मुझे तुम!!.......60-70 बरस इंसान ज़िंदा रहता है, और कितनी तरह के रूप धरता है......मैने तो इतने हज़ार सालों के अपने जीवन में कोई भी रूप नहीं धरा है....जो रूप मेरा पहले था, आज भी तो वही है....फिर तुम मुझे क्यो देख नहीं पा रहे?.....क्या मुझसे भी ज़्यादा साफ, और ईमानदार होगा कोई?”

शफाक़त ने हैरान होकर फिर पूछा “कौन हैं आप?....मैं सच में आपको नही देख पा रहा हूँ.”

महिला की आवाज़ ने ताना दिया “अरे शफाक़त!....क्या पढ़ायी-लिखायी की है तुमने?......मैं हूँ तुम्हारे सामने…..मैं यमुना हूँ”.

“क्या?”

“हाँ....मैं ही तो हूँ यहाँ.....तुम्हारे-मेरे अलावा और कौन है यहाँ?.....मैं बोल तो रही हूँ कि मैं बिल्कुल सामने हूँ तुम्हारे. इतने हज़ारों सालों से यहीं तो बह रही हूँ मैं.....निरंतर, शांत-चित्त....मुझमे तो कोई बदलाव नहीं हुआ आज तक.....फिर मुझे क्यों देख नहीं पा रहे तुम?”

शफाक़त हैरानी से नदी को देख रहा था, और चुपचाप खड़ा था. यमुना बोली “बैठो शफाक़त....और बताओ, तुम लखनऊ से आये हो ना?....मेरी बहन गोमती कैसी है वहाँ?”

“वैसे तो मैं हैदराबाद में रहता हूँ लेकिन घर मेरा लखनऊ में है....अम्मी से मिलने जाता हूँ मै वहाँ.....अब आपकी बहन गोमती के बारे में क्या कहूँ?....बुरी हालत है उनकी....मरने के करीब हैं वह वहाँ पर”.

“हाँ, तुम इंसानों ने ऐसा ही किया है......पहले हमें बोला कि यह नदी इस देवता की बेटी है, वह नदी उस देवता की बेटी है....और फिर हमारी ऐसी हालत कर दी है.....और फिर हमारे किनारे राहत लेने आ गये हो. क्या हुआ गोमती को?.....सुना सरकार ने बड़ा काम कोई शुरु किया है उसके किनारे?”

“हाँ, सरकार एक रिवर फ्रंट बना रही थी गोमती के किनारे.....मगर वो पिछली सरकार थी. नई सरकार ने उस पर काम रोक दिया है, ये बोला है कि यह रिवर फ्रंट गोमती की सेहत के लिये ठीक नहीं है, इसलिये नहीं बनेगा”.

“तुम्हें क्या लगता है?”

“बात तो सही है....रिवर फ्रन्ट तो सही नहीं था....लेकिन फिर ऐसा ही एक रिवर फ्रंट अहमदाबाद में साबरमती नदी के किनारे बना है, उसके बनते वक़्त तो यह बात नहीं आयी कि रिवर फ्रंट नदी की सेहत के लिये ठीक नहीं है. अगर वहाँ रिवर फ्रंट सही था, तो यहाँ लखनऊ में भी सही था. अगर लखनऊ में गलत था, तो अहमदाबाद में सही कैसे हुआ?....बात तो दोनो जगह एक ही है आखिर?”

“यह सब तुम इंसानों की कारस्तानी है. एक ही बात को कभी कहीं सही बताते हो, फिर उसी बात को कहीं और जाकर गलत बताते हो. हम नदियों को तो वैसे भी बरबाद कर रख छोड़ा है तुम लोगों ने. बोलो....क्या सही नहीं कहा मैंने?

शफाक़त चुप था.

यमुना ने फिर कहा “खैर....वह सब छोड़ो. यह बताओ, घर में कैसे हैं सब?.....अब तो जा रहे होंगे सभी एक-एक करके?”

“हाँ, ऐसा ही है.....जा ही रहे हैं सब”.

“तुम्हारी वापसी कब है?”

“2-3 रोज़ में ही”.

“भले ही मेरी हालत कैसी भी हो....लेकिन मैं तो नदी हूँ.....हज़ारों सालों से सब को पाल पोस कर बड़ा किया है.....सभी मेरे बच्चों जैसे ही तो हैं.....तुम्हारे अब्बा का इंतक़ाल हुआ, दुख की इस घड़ी में मैं तुम्हारे साथ हूँ शफाक़त....तुम्हारी तक़लीफ का अंदाज़ा है मुझे”.

“जी...शुक्रिया”

“अम्मी क्यों नहीं आयीं?”

“तबियत काफी नासाज़ है उनकी”.

“वैसे शफाक़त, किसी घर में शादी के बाद एक मौत ही ऐसा मौका होता है जहाँ इंसान सभी गिले-शिकवे छोड़कर अपने सभी लोगों से मिल लेता है जिन से वह लम्बे वक़्त से नहीं मिला होता है. तुम भी तो अपने सभी बड़े भाई-बहनों से तो मिले ही होगे.”

“हाँ.....मिला मैं सभी से.....बस दोनों ताऊजी और चाचा के यहाँ से नहीं आया कोई भी”

“उनके यहाँ से कोई क्यों आयेगा?”

“क्यों?...आप ने ही तो कहा अभी कि गिले-शिकवे भूल जाते हैं लोग खानदान में किसी की मौत पर, और आ कर मिलते हैं?”

“शायद उनके मन में तुम्हारे अब्बा के प्रति कड़वाहट काफी ज़्यादा होगी...मुमकिन है, कि इस वजह से न आये हों?”

“वैसे देखिये तो कड़वाहट तो हमारे मन में भी थी ही.....फिर भी हम तो आये ही”.

“तुम्हारी कड़वाहट और उनकी कड़वाहट में फर्क है बेटा.....उनकी कड़वाहट बहुत ज़्यादा है....वह कभी, किसी भी तरह से दूर नहीं हो सकती है.” यमुना ने मुस्कुरा कर कहा.

“क्यों?”

इसके बारे में जानने के लिये तुम्हें यहाँ देर तक मेरे पास बैठना होगा....ये बड़ी लम्बी दास्तान है. इतनी आसानी से समझ में नहीं आयेगी. मैंने सब देखा है शफाक़त.....मैं तो दिल्ली में भी बहती हूँ, और सौघरा में भी.....पिछले हज़ारों सालों से बिना कुछ बोले, बस बहती ही आ रही हूँ…….और देखती आ रही हूँ वह सब कुछ जो भी मेरे सामने हो रहा था. मगर कभी कुछ बोल नहीं सकी....यहाँ तक कि जब बोलना चाहा तभी भी नहीं....क्योंकि विधाता ने मेरे भाग्य में सिर्फ शांत, मौन होकर बहना ही लिखा है....तो मै सिर्फ शांति से बह ही रही हूँ.....लेकिन मैं एकलौती चश्मदीद गवाह, मूकदर्शक हूँ शफाक़त जिसने सब कुछ देखा है, जो सब कुछ जानती है....कहने को सौ लोग, सौ बातें बोलते होंगे, लेकिन मैंने यह सब होते देखा है, अपनी आँखों के आगे....मुझसे नहीं छुपा है कुछ भी”.

“हाँ....मेरे पास वक़्त है आज शाम....आप खुलकर बताइये, कि क्यों मेरे ताऊ और चाचा के परिवारों को मेरे अब्बा के परिवारों से इतनी रश्क है, कि वह उनकी मौत पर ग़म जताने भी नहीं आ सके. वह भी जबकि आज एक हफ्ता हो चला है तभी भी.......मैं जानना चाहता हूँ, आप बताइये”.

“तो सुनो शफाक़त, ये कहानी शुरु होती है आज से लगभग 70 बरस पहले, यानि इस मुल्क की आज़ादी के तुरंत बाद 1950 से.....” और यह कहकर यमुना यादों के समंदर में डूब गयी.

“…1950 ई. इसलिये कहा क्योंकि उस साल 2 बड़ी बातें हुई थीं. एक, कि इस मुल्क का आईन, यानि संविधान जिसको कहते हैं, तक़सीम हुआ था, और दूसरी, कि उसी बरस तुम्हारे अब्बू यानि मिर्ज़ा हैदर की ग्रेजुएशन, मतलब बी.ए., अव्वल दर्जे में पूरी हुई थी. 20-21 के रहे होंगे तब वो. तब के हिंदुस्तान में वह वक़्त था जबकि पढ़ना-लिखना सभी के बस की बात नहीं थी,….और बी.ए. की डिग्री तो बहुत बड़ी चीज़ समझी जाती थी.....आज की तरह हालात नहीं थे, जब हर कोई लिख-पढ़ के, बड़ी-बड़ी डिग्रीयाँ लेकर तैयार बैठा हुआ है. मिर्ज़ा हैदर के अब्बू, यानि तुम्हारे दादा, सैयद सरफराज़ बेग़ अपने बेटे की इस कामयाबी पर बड़े खुश थे और अपने घर पर एक शाम एक जलसा रखा था. बड़ी चहल-पहल थी रानी की मण्डी वाली उनकी कोठी पर. सैयद बेग़ और उनकी शरीक़-ए-हयात, मतलब तुम्हारी दादी चाँदनी बेग़म, अपनी औलाद की इस कामयाबी पर इतरा रहे थे, फूले नहीं समा रहे थे, और आने वालों को बड़ी खुशी से बता रहे थे “...हमारी ये औलाद तो सबसे बढ़कर निकली...बी.ए. पास कर लिया उसने वह भी अव्वल दर्जे में!! ढूंढ़ के देख लो.....किसी भी मोहल्ले भर में कोई एक-दो ही मिलेगा बी.ए. पास....और वो भी अव्वल दर्जे में तो कतई नहीं. हमारा बेटा तो दसवीँ, बारहवीं के बाद लगातार तीसरी डिग्री अव्वल दर्जे में लेकर आया है.....हमारे पूरे खानदान का नाम ऊँचा कर दिया मिर्ज़ा हैदर ने.....कारोबारियों के बच्चे पढ़ने-लिखने में कहाँ अच्छे निकलते हैं?....और वह भी हम मुसलमानों में?.....सवाल ही नहीं उठता जी!!....लेकिन एक तो हमारी दोनो बेटियाँ बहुत अच्छी निकलीं और उनके बाद अब मिर्ज़ा तो उनसे भी आगे निकल गया.....अल्लाह अपना रहम-ओ-क़रम बनाये रखे बस!!...” आने-जाने वाले ज़्यादातर मेहमान भी मजबूरी में, ज़बरदस्ती हँसने और खुश होने का बहाना करते और चाँदनी बेग़म और सैयद बेग़ से यही कहते थे “...ज़रूर कोई अच्छे क़रम किये होंगे आपने....जो ऐसी औलाद मिली....अल्लाह खूब बरक़त दे मिर्ज़ा को!!” अब ऐसा तो होता ही है, हर कोई चाहता है कि उसकी औलाद बहुत आगे निकले, उसका नाम ऊँचा करे, लेकिन सबके नसीब में ऐसी खुशी नहीं आती. लिखायी-पढ़ायी करना सबके बस की बात नहीं है, फिर लगातार अव्वल दर्जे में डिग्रीयाँ लेते जाना मज़ाक नहीं है. ज़्यादातर की तो लिखायी-पढ़ायी तो बीच में छूट जाती है. फिर मुसलमान क़ौम को शुरु से इस बात का गिला रहा था कि उनके बच्चे पढ़-लिख कर आगे नहीं निकल पाते थे. मेहमानों के आगे माँ-बाप फूले नहीं समाते थे और जलसे में आने वाले मेहमानों को चाँदनी बेग़म और सैयद बेग़ का अपने बच्चे की जी खोल कर तारीफ करना बुरा ज़रूर लगता था, लेकिन बात भी सही बोल रहे थे वह”.

यमुना ने बोलना जारी रखा “तुम्हारे अब्बू मिर्ज़ा हैदर, अपने वालदेन की पाँचवीं औलाद थे. सैयद सरफराज़ बेग़ और चाँदनी बेग़म की सबसे पहली और हर-दिल अज़ीज़ औलाद थी तुम्हारी सबसे बड़ी फुफी यानि जहाँआरा बेग़, दूसरी औलाद थे तुम्हारे बड़े ताऊ, और खानदान के सबसे बड़े लड़के यानि सैयद फरीद अली बेग़. तीसरी औलाद थी तुम्हारी छोटी फुफी रुखसार अली बेग़ जबकि चौथी औलाद थे तुम्हारे मँझले ताऊ सैयद शाह शुज़ा बेग़. पाँचवीं औलाद और तीसरे बेटे थे तुम्हारे अब्बू यानि मिर्ज़ा हैदर बेग़ और भाई-बहनों में सबसे छोटे थे तुम्हारे चाचा यानि सैयद मुराद अली बेग़. फरीद अली, शुज़ा, और मुराद अली से तुम्हारे अब्बू के रिश्ते काफी खराब हैं, जिसकी वजह से तुम्हें आज उनके परिवारों का आया हुआ कोई भी नहीं दिख रहा है....जबकि मिर्ज़ा का इंतक़ाल हुए हफ्ता भर बीत चुका है.”

फिर यमुना ने एक-एक करके मिर्ज़ा के भाई-बहनों के बारे में बताना शुरु किया “सबसे बड़ी बेटी थी जहाँआरा बेग़, और क्या इंसान थी वह शफाक़त!!....बला की खूबसूरत, और बेहद तेज़ दिमाग लड़की थी वह. सैयद सरफराज़ और चाँदनी बेग़म जान छिड़कते थे उस पर, सिर्फ इसलिये नहीं कि वह इनकी सबसे पहली औलाद थी, बल्कि इसलिये क्योंकि वह थी ही ऐसी. जहाँआरा से मिलने वाला कोई भी शख्स बिना उसकी तारीफ किये नहीं रहता था. अज़ीम और हैरान कर देने वाली खूबसूरती के साथ साथ ऊपर वाले ने निहायत ही खूबसूरत दिल भी अता फरमाया था उसको, और इस से जहाँआरा की पूरी शख्सियत और भी निखर जाती थी. बड़ों को भरपूर इज़्ज़त और छोटों को बेपनाह प्यार देने वाली इंसान थी वह. अपने भाई-बहनो के साथ खेलते समय वह जानबूझकर खुद हार जाती थी जिस से उसके छोटे भाई-बहन जीत कर खुश हो सकें. उसके छोटे भाई-बहनों का जब कभी किसी बात पर झगड़ा होता था तो वह एक-दूसरे से यही कहते थे “चलो जहाँआरा आपा के पास.....जो वो कहेंगी वही सही होगा...उन्ही की बात मानी जायेगी” और वो इंसाफ करने की फरियाद लेकर जहाँआरा के पास वैसे ही आते थे, जैसे कोई फरियादी अपने शहंशाह के पास. जब वह छोटी थी तभी से उसके दिल में खास तौर पर गरीबों और बच्चों के लिये बड़े जज़्बात उमड़ते थे. छोटी उमर में ही स्कूल से वापस आते वक़्त, या अपने घर पर भी, किसी गरीब, मज़लूम, बेसहारा या अपंग महिला व बच्चों को देखकर वह बड़ी दुखी हो जाती थी और हर तरीके से उसकी मदद करती थी जैसे अपना टिफिन का खाना उसे देकर, या अपना पानी का थरमस उसे देकर, बिना उनके बोले उन लोगों को सड़क पार करवा देना आदि. जैसे-जैसे वह बड़ी होती गयी, जहाँआरा की तारीफें भी बढ़ती चली गयीं.

लिखने-पढ़ने में भी जहाँआरा काफी अच्छी थी और इस बात के लिये उसके माँ-बाप की तारीफ करनी होगी कि उस ज़माने में जब लड़कियों का पढ़ना-लिखना, वो भी मुस्लिम समाज में, अच्छा नहीं समझा जाता था और उन्हे हमेशा परदे में रहने को ही कहा जाता था, सैयद सरफराज़ और चाँदनी बेग़ ने अपनी बेटियों की बेहतर पढ़ायी-लिखायी के हर मुमकिन इंतज़ामात किये. जहाँआरा ने भी अपने वालदेन को मायूस नहीं किया और अच्छी पढ़ाई-लिखायी की. दसवीं तो नहीं लेकिन बारहवीं उसने अव्वल दर्जे में पास की थी. उन दिनों ये बहुत बड़ी बात थी कि कोई लड़की बारहवीं अव्वल दर्जे में पास करे और सौघरा कॉलेज में बी.ए. में दाखिला ले ले. उस समय शहर में यह एक बड़ी खबर थी कि सैयद सरफराज़ की बेटी अव्वल दर्जे में बारहवीं पास हो गयी है और अब बी.ए. करने जा रही है. सैयद साहब और चाँदनी बेग़म के यार-दोस्तों ने उन्हे काफी समझाया कि “लड़कियों को ज़्यादा पढ़ाना-लिखाना ठीक नहीं है....उनको करना क्या है लिख-पढ़ कर? बारहवीं पास कर ली….चिट्ठी-पत्री लिखना आ गया.....बस बहुत है. शौहर और सास-ससुर को खुश रखना और औलाद की देखभाल करना, इसके लिये लिखने-पढ़ने की कोई ज़रूरत नहीं है....आखिर हमारे घरों में भी तो लड़कियाँ हैं?....कौन सी ज़्यादा लिखी-पढ़ी हैं, मगर देखिये, कितने शानदार तरीके से अपना घर सम्भाल रही हैं...” लेकिन सैयद साहब और चाँदनी बेग़म सबकी बात सुनते और बड़ी शाइस्तगी से कहते “अब बेटी पढ़ना चाहती है तो उसको क्यों मना करें?......फिर जब माँ लिखी-पढ़ी होगी तो उसके बच्चे भी अच्छे लिख-पढ़ जायेंगे....उसका खानदान, जहाँ कहीं भी वह जायेगी, सुधर ही जायेगा.....अब हम लोग तो ज़्यादा लिखे-पढ़े नहीं, मगर बेटी अगर चाहती है पढ़ना तो पढ़ाने में कोई हर्ज़ नहीं है....फिर बारहवीं में तो अच्छी मेहनत भी करी है उसने....इसलिये पढ़ने देते हैं उसको.....फिर हम मुसलमान तो वैसे ही न पढ़ने-लिखने के लिये बदनाम हैं, अच्छा ही है अगर बेटी पढ़-लिख जाये तो”. लोग कहते “फिर उसके लिये लड़का मिलने में बड़ी मुश्किल पेश आयेगी सैयद साहब”, इस पर सैयद साहब और चाँदनी बेग़म मुस्कुरा कर जवाब देते “अब लड़कियाँ तो नसीब से अपने घर जाती हैं जनाब!....अल्लाह पर पूरा यकीन है हमें....उसने जहाँआरा के लिये कोई अच्छा लड़का ही खोज के रखा होगा”. और फिर सामने वाला चुप हो जाता था.

जहाँआरा ने इतिहास, उर्दू और हिंदी से अव्वल दर्जे में बी.ए. पास किया. माँ-बाप अपनी बेटी की इस कामयाबी पर बड़े खुश थे लेकिन समाज और लोगों के ताने भी सुन-सुन कर आज़िज़ आ गये थे. उन्होनें इसी के चलते जहाँआरा की शादी करने की सोची और उस से इस बारे में बात भी की. जहाँआरा अपने वालदेन को दुखी नहीं देखना चाहती थी इसलिये उसने शादी करने के लिये ‘हाँ’ कर दी मगर यह ज़रूर कहा “अब्बू, अम्मी....मुझे उर्दू बहुत पसंद है....मै इस में एम.ए. भी करना चाहती हूँ. शादी से मुझे इंकार नहीं है लेकिन आपसे एक इल्तजा है कि मेरी शादी वहाँ करें जहाँ वो लोग मुझे उर्दू में एम.ए. करने से ना रोकें”.

सैयद साहब और चाँदनी बेगम ने इस बात की खुशी-खुशी हामी भर दी कि उसकी शादी ऐसे ही किसी घर में करेंगे. काफी जगहों पर बात चलायी गयी, मगर शादी के बाद लड़की को पढ़ाने पर लोग तैयार नहीं हो रहे थे. अंत में सौघरा शहर में एक पढ़े-लिखे घर में जहाँ लड़का खुद ही सरकारी हाई-स्कूल में टीचर था और लड़के के अब्बा पोस्ट-ऑफिस में दफ्तरी थे, जहाँआरा की बात चलायी गयी और अल्लाह के फज़ल से यहाँ बात बन गई. लोगों की माने तो लड़का जिसका नाम कामरान था, वह खुद ही काफी खुश था कि उसकी बीवी पढ़ने-लिखने वाली है. इस तरह से कामरान और जहाँआरा की शादी हो गयी. शादी के बाद की जहाँआरा की ज़िंदगी और भी अच्छी निकली. ससुराल वाले सबसे बड़ी बहू होने के नाते उसको बहुत प्यार करते थे और उसके शौहर तो उस पर जान छिड़कते थे. ऐसा होता भी क्यों नहीं?....सूरत और सीरत से इतनी खूबसूरत बीवी हर किसी को नहीं मिलती. अपने शौहर की रज़ामंदी से जहाँआरा ने फिर उर्दू में एम.ए. किया. एम.ए. करने के दौरान ही जहाँआरा को शेर-ओ-शायरी का भी शौक लगा. हिंदी और उर्दू दोनो पर अच्छी पकड़ होने की वजह से वह काफी उम्दा और मुतासिर कर देने वाली शायरी और नज़्म लिखा करती थी और सबसे पहले अपने शौहर को सुनाती थी जिसकी वजह से वह उसके और भी दीवाने हुए जाते थे. उसके शौहर उसकी नज़्में और शायरी अखबारों में छपवाने में भी काफी मदद करते थे और अगले दिन जब वह छप कर आती थी, तो उसे पूरे घर में और अपने दोस्तों में खुशी से दिखाते फिरते थे “ये देखो, जहाँआरा ने लिखी है ये नज़्म...आज के अखबार में छपी है”. ससुराल के सभी छोटे बच्चे और जहाँआरा की हमउम्र, उसकी भतीजियां और ननदें भी उसे घेरे रहती थी और उस से शायरी और नज़्म सुना करती थी. कामरान भी उसकी नज़्में और शायरी अखबारों से काटकर एक फाईल में लगाते जाते थे. जहाँआरा और उसके वालदेन हमेशा ऊपर वाले का शुकराना करते थे कि उसे एक बहुत अच्छा शौहर और ससुराल मिला है.

इन सभी के बीच जहाँआरा अपनी ससुराल की ज़िम्मेदारियाँ भूली नहीं थी. अपने शौहर से वह बहुत प्यार करती थी, और अपने सास-ससुर का बिल्कुल अपने माँ-बाप की तरह ही खयाल रखती थी. उनकी दवा, तबियत से लेकर खाने-पीने, कपड़ों आदि तक का पूरा ध्यान देती थे वह. उसे इस बात का बखूबी इल्म था कि सबसे बड़ी बहू वही है. ऐसी बेटी जैसी बहू पाकर उसके सास-ससुर भी काफी खुश थे. वक़्त गुज़रने के साथ-साथ अल्लाह ने कामरान और जहाँआरा को तीन प्यारे बच्चे, दो बेटियाँ और एक बेटा अता फरमाया था”.

फिर यमुना ने शफाक़त को घर के सबसे बड़े बेटे यानि उसके सबसे बड़े ताऊजी, के बारे में बताना शुरु किया “तुम्हारे दादा-दादी की दूसरी औलाद और इस खानदान के सबसे बड़े बेटे थे तुम्हारे बड़े ताऊजी सैयद फरीद अली बेग़. सूरत और सीरत में उन्हे वैसा ही समझ लो जैसे जहाँआरा ने ही एक साल बाद दोबारा लड़के के तौर पर जनम ले लिया हो. सीधे कहूँ तो फरीद इस खानदान की सबसे ज़हीन शख्सियत थे जिने कोई भी बहुत आसानी से पसंद कर लेता था. फरीद हमेशा इस बात का पूरा खयाल रखते थे कि उनकी वजह से किसी का दिल ना दुखे, किसी को ठेस न लगे. शराब-सिगरेट को आज तक उन्होने हाथ भी नहीं लगाया था और अपने भाई-बहनों में वह इकलौते थे जो गोश्त नहीं खाते थे. उन्हे यह सोच कर बुरा लगता था कि अपनी भूख मिटाने और अपनी ज़बान का स्वाद बदलने के लिये इंसान किसी दूसरे जानवर को जान से मारता है. कई बार मज़ाक में उनके अब्बा कहते थे “यह पठान के घर में ब्राह्मण पैदा हो गया है”. लेकिन एक बात यह भी थी कि खुद गोश्त न खाने के बावजूद फरीद कभी किसी को भी , यहाँ तक कि अपने बच्चों को भी कभी गोश्त खाने से मना नहीं करते थे. घर में सबसे ज़्यादा पसंद वह अपने अब्बा और अपनी जहाँआरा आपा को करते थे, और हमेशा उन्ही के साथ रहते थे. अपने अब्बा और आपा से ही उन्होने रहमदिली और इंसानियत, नेकनीयती के सबक सीखे और इसी वजह से ही वह गरीब, बेसहारा और मज़लूम लोगों की काफी मदद किया करते थे. पढ़ाई-लिखायी में भी वह अच्छे थे मगर आपा जहाँआरा जितने नहीं. दसवीं, बारहवीं में मेहनत के बावजूद वह दोयम दर्जे में ही पास हो पाये, लेकिन बी.ए. में उन्होने काफी मेहनत की और अव्वल दर्जे में पास हुए थे. फिर इतिहास में उन्होनें अपनी एम.ए. अव्वल दर्जे में पूरी की. नौकरी करने का उन्हे कभी भी मन नहीं हुआ था, और एम.ए. के बाद सीधे वह अपने अब्बू के कारोबार में हाथ बँटाने लगे.

जो बात फरीद को बाकी लोगों से अलग करती थी वह थी उनकी शाइस्ता सोच और दूसरे की बातों को अच्छी तरह सुनने-समझने की उनकी अच्छी आदत. यही वजह थी कि उनके कारखाने में काम करने वाले मजदूर और मामूली से ट्रक ड्राइवर से लेकर उनके अब्बा के अमीर कारोबारी दोस्तों तक, फरीद सभी के अज़ीज़ थे. अपने दफ्तर के स्टाफ का फरीद पूरा ध्यान रखते थे, और स्टाफ में किसी को, कोई भी मुश्किल हो, यहाँ तक कि अगर किसी के घर-परिवार में भी कोई समस्या है, तो फरीद उसको सुनते भी थे, और हो सकता था तो सुलझाते भी थे. दफ्तर का स्टाफ भी इसलिये उन्हे पूरी इज़्ज़त दिया करता था. मुसलमान होने के बावजूद दफ्तर के हिंदू स्टाफ के लिये फरीद के मन में खास जगह थी.

फरीद मंदिरों में भी खूब जाया करते थे. नवरात्रों में पूरे परिवार के साथ फरीद को शहर भर के दुर्गा पंडालों में रात में घूमते देखा जा सकता था जहां वे अपने और अपने भाई-बहनों के बच्चों को बड़े प्यार से देवी दुर्गा की मूर्तियाँ दिखाते थे और लोगों से मिलते थे. लोग जब भी उनको माता के जगराते आदि मौकों पर बुलाते थे तो फरीद पूरी खुशी से वहाँ जाया करते थे. उनका मानना था कि हम सभी एक ही खुदा की औलाद हैं, कोई उसको अल्लाह बुलाता है, तो कोई राम या कृष्ण. ठीक रमज़ान की तरह ही, हिंदू त्योहारों पर भी फरीद अपने अब्बू की मंज़ूरी लेकर मंदिरों के आस-पास गरीब, मज़लूम, बेसहारा लोगों को खाना खिलाते थे, और कपड़े वगैरह बाँटते थे. कई बार उनके अब्बा के कारोबारी दोस्त मज़ाक में सैयद साहब से कहते थे “सैयद साहब, आपका बेटा फरीद तो दरवेश है.”

लेकिन फरीद की इस नेकनीयती, दरियादिल, शाइस्ता शख्सियत का एक स्याह पहलू भी था. कारोबार में फरीद अक्सर सही वक़्त पर सही फैसले नहीं ले पाते थे. वे अक्सर फैसले लेने और उनको अमल में लाने में काफी वक़्त लगा देते थे. सख्त फैसले करने में वह अक्सर हिचक जाते थे क्यूंकि वह उनके नतीजों को लेकर काफी ज़्यादा सोच-विचार किया करते थे. सीधे तौर पर कहा जाये, तो फरीद कारोबारी दुनिया के लिये कम और दीनी दुनिया के लिये ज़्यादा बने थे.

फरीद की शादी, सैयद साहब के अलीगढ़ के एक कारोबारी दोस्त मंज़ूर आलम की बेटी नादिरा आलम से हो गयी थी, जिन से उन्हे एक बेटा सुलेमान बेग़ था. नादिरा अपने शौहर से बहुत प्यार करती थी और बड़ा नाज़ किया करती थीं. अपने बीवी, बच्चों और अपने माँ-बाप से फरीद बे-इंतेहा मोहब्बत किया करते थे और उनकी खुशी के लिये कुछ भी करने को तैयार थे. चाँदनी बेग़म और सैयद साहब भी फरीद को बहुत प्यार करते थे और फरीद की कुछ कारोबारी कमज़ोरियों के बाद भी उसी को आने वाले वक़्त में अपने कारोबार की बागडोर सौंपने के ख्वाहिशमंद थे क्योंकि सैयद साहब का तजुर्बा यही कहता था कि “पैसा ज़रूर अपनी जगह अहमियत रखता है, लेकिन लोगों और उनके प्यार की कीमत पैसे से कहीं ज़्यादा है”. वह हमेशा फरीद को यही सिखाते थे और फरीद ने भी न केवल यह सबक याद कर लिया था, बल्कि अपनी ज़िंदगी में उतारा भी था”.

फिर यमुना ने कहा “तुम्हारे खानदान की तीसरी औलाद और अपने वालदेन की दूसरी बेटी थी तुम्हारी छोटी फुफी यानि रुखसार अली बेग़. खूबसूरती में तो बेशक वह अपनी आपा जहाँआरा को टक्कर देती थी लेकिन सीरत जहाँआरा जैसी नहीं मिली थी उनको. बचपन से ही उनके मन में, पता नहीं खुद से ही या किसी और ने यह काम किया, लेकिन न जाने कैसे यह बात बैठ गयी थी कि घर-परिवार के लोग जहाँआरा को कहीं ज़्यादा प्यार करते हैं, और घर की छोटी बेटी यानि रुखसार को कम, जबकि उन दोनों में अंतर केवल 2 बरस का ही था. इस बात से उनके मन में अनजाने में ही जहाँआरा के प्रति नफरत का जनम हुआ. वह हमेशा ही उस से झगड़ा किया करती थी, और यहाँ तक कि उसके आगे जब कोई जहाँआरा का नाम भी लेता था तो रुखसार को बुरा ही लग जाता था. जहाँआरा इस बात को नहीं समझती थी बल्कि उल्टे अपनी छोटी बहन को बड़ा दुलार करती थी, और उसकी हर गलती को हँस कर टाल देती थी. जहाँआरा यह समझती थी कि घर में केवल दो ही बहनें हैं, और एक बहन की बात केवल दूसरी बहन ही समझ सकती है, यहाँ तक कि भाई भी नहीं समझ सकता, इसलिये जितना भी वक़्त रहें, प्यार से रहें. रुखसार इस बात को नहीं समझती थी बल्कि हर वो मुमकिन कोशिश करती थी जिस से जहाँआरा के सामने हमेशा कठिनाइयाँ पैदा होती रहें. बचपन से पैदा हुई यह जलन जवानी तक आते-आते कम होने की बजाय और भी बढ़ गयी थी. ये तब था जबकि दोनों बहने जानती थीं कि इन दोनों को एक वक़्त के बाद घर से चले जाना है, फिर भी रुखसार जहाँआरा को अच्छा नहीं समझती थी.

रुखसार का दिमाग भी बद्किस्मती से जहाँआरा जितना तेज़ नहीं था. दसवीं दोयम दर्जे से पास होने के बाद वह बारहवीं में एक साल फेल हो गयी थी, फिर जाकर अगले बरस दोयम दर्जे में ही बारहवीं की. किसी तरह से बी.ए. भी पास कर ही लिया रुखसार ने जिसके बाद उनके अब्बू ने सौघरे में ही अपने एक कारोबारी दोस्त के लड़के कामबख्श से उसकी शादी कर दी थी. शादी से भी रुखसार खुश नहीं थी क्योंकि वह वहाँ भी छोटी बहू ही थी. उसकी जेठानी कोई और थी और इस वजह से यहाँ, ससुराल में भी रुखसार खुद को कमतर ही महसूस करती थी. यहाँ भी वह यही सोचती थी कि घर वालों ने जहाँआरा की शादी ऐसी जगह की जहाँ वह बड़ी बहू थी जबकि उसकी शादी ऐसे घर में की जहाँ वह छोटी बहू थी. जबकि ऐसा कुछ था नहीं. कामबख्श अपने घर का अच्छा कमाने वाला लड़का था और घर के सभी लोग, अपनी छोटी बहू को काफी प्यार करते थे, जेठानी भी उसको अपनी बहन जैसे ही मानती थी, लेकिन जब इंसान के दिमाग में ही एक कीड़ा बैठ जाये तो क्या किया जा सकता है? उसे हर जगह केवल कमियाँ ही नज़र आती है. वह अक्सर कामबख्श से बहसबाज़ी करके अपने मायके आयी रहती थी जहाँ से फिर उसे चाँदनी बेग़म और घर की दूसरी बड़ी औरतें समझा-बुझा कर वापस भेजती थीं. रुखसार के भी 2 बच्चे, एक बेटा और एक बेटी थी”.

“घर की चौथी औलाद थे तुम्हारे मँझले ताऊजी यानि सैयद शाह शुज़ा बेग. शाह का दिमाग शुरु से ही लिखाई-पढ़ाई में कम और कारोबारी बातों में ज़्यादा लगता था. अच्छी बात यह थी कि शाह में कोई ऐब नहीं था या उन्हे कोई बुरी लत नहीं लगी थी. नेकदिल इंसान भी थे वह. दसवीं, बारहवीं दोयम दर्जे में पास करने के बाद उन्होने आगे पढ़ने से मना कर दिया था और इसलिये सैयद साहब ने उनको अपने साथ कारोबार में ले लिया था. शुरु में ऐसा लगा ज़रूर कि शाह कारोबार को काफी अच्छी तरह सम्भाल रहे हैं, लेकिन बाद में ऐसा लगने लगा कि कारोबार भी शाह उस ढंग से सम्भाल नही पा रहे थे जैसी उम्मीद थी. अब अच्छे पढ़े-लिखे इंसान और न पढ़े-लिखे इंसान में फर्क तो होता ही है. कारोबार में भी फरीद अली और शाह में फर्क साफ दिखता था. खैर, अब औलाद तो औलाद ठहरी….फिर पाँचों उंगलियाँ बराबर भी कहाँ होती हैं?.....बहरहाल, आगे चलकर शाह की शादी, यहीं सौघरे के एक ताजिर घराने में कर दी गयी. अपनी बेग़म शगुफ्ता अहमद से शाह को तीन औलादें हुई, 2 बेटे, और एक बेटी. अपने बीवी-बच्चों और अपने घर के बड़े कारोबार के चलते शाह भी अपनी ज़िंदगी आराम से बिता रहे थे.”

“तुम्हारे इकलौते चाचा और इस घर के सबसे छोटे बेटे थे सैयद मुराद अली बेग़. तुम्हारे अब्बू मिर्ज़ा हैदर से वह दो बरस के छोटे थे. बचपन से शिकार खेलने और निशानेबाज़ी का बड़ा शौक था मुराद अली को. मुराद एक ऐसे शख्स थे, जिनकी वजह से सैयद साहब और चाँदनी बेगम कुछ परेशान रहा करते थे. उनके आगे मुश्किल यह नहीं थी कि मुराद लिखाई-पढ़ाई में काफी कमज़ोर थे, और एक बार दसवीं, फिर एक बार बारहवीं फेल हो गये थे, और उसके बाद लिखना-पढ़ना छोड़ दिया था. ऐसा तो देखा जाये तो शुज़ा के साथ भी था कि वह बारहवीं से आगे नहीं पढ़ सके, लेकिन उनके आगे असल मुश्किल यह थी कि बचपन से ही मुराद की दोस्ती-यारी गलत लोगों से हो गयी और शुरु से ही उनके अंदर कई बुरी आदतें पनप गयी थीं. दसवीं के दौरान ही मुराद सिगरेट पीने लगे थे और तम्बाकू, पान मसाला वगैरह खाने लगे थे और बारहवीं आते-आते चोरी-चोरी शराब भी पीनी शुरु कर दी थी. थोड़ा और बड़े हुए तो शर्म-लिहाज़ भी मर गया, और फिर घर भी शराब पीकर आने लगे जिसकी वजह से माँ-बाप से उनके झगड़े वगैरह भी होने लगे. कई दफा दूसरे लोग भी मुराद को उठा कर घर ले आते थे जब वह इतनी पी लेते थे कि चल भी नहीं सकते थे. सैयद साहब ने कारोबार में भी उनको लगा कर व्यस्त करने की कोशिश की लेकिन वह कारोबार भी सही ढंग से नहीं सम्भाल पा रहे थे. आगे जाकर सैयद साहब ने उनकी शादी भी सौघरे में ही एक अपने एक दोस्त की लड़की रुबैदा से तय कर दी थी, कि शायद शादी के बाद, बीवी के डर से मुराद की आदतें सुधर जायें. शादी के बाद शायद ज़रूर मुराद की हरकतों पर कुछ लगाम लगी थी, और शराब, सिगरेट पीना उन्होने कम कर दिया था. अब वो कभी-कभी ही पीते थे और ध्यान रखते थे कि घर पर बीवी या माँ-बाप को पता न चलने पाये. लेकिन अभी भी उनकी ये बुरी आदतें जारी थी, और कारोबार सम्भालने में भी वह बार-बार नाकाम हो रहे थे. सैयद साहब उन्हें एक शहर में कोई काम देते, जहाँ का नतीजा सिफर आने के बाद फिर वह उनको किसी और काम से किसी और शहर भेज देते थे. इसी तरह से वह अपनी कारोबार के लिये घाटा उठाकर भी किसी तरह अपने बेटे को बुरी आदतों से बचाने की कोशिशें करते रहते थे”.

यमुना ने हँसकर कहा “एक तरह से अपने इस बेटे को व्यस्त रखने के वास्ते सैयद साहब अपनी प्राइवेट कम्पनी को भी आज की किसी सरकारी कम्पनी जैसे बी.एस.एन.एल. की तरह चलाने को भी तैयार थे”. फिर यमुना ने कहा “आगे चलकर रुबैदा से मुराद को एक बेटा मुज़फ्फर अली बेग़ और एक बेटी निगार पैदा हुई थी”.

“इन सबसे अलग और शायद तुम्हारे दादा-दादी की सबसे क़ाबिल और कामयाब औलाद थे तुम्हारे अब्बू यानि मिर्ज़ा हैदर बेग़” अब यमुना शफाक़त को मिर्ज़ा के बारे में बता रही थी. “...यह उस इंसान की बात है, जिसकी वजह से तुम आज यहाँ बैठे हो और मैं तुमको यह दास्तान सुना रही हूँ. सैयद सरफराज़ बेग़ और चाँदनी बेग़म की पाँचवीं औलाद थे मिर्ज़ा. कुछ बातों को छोड़ दिया जाये, तो शायद मिर्ज़ा अपने भाई-बहनों में सबसे ज़्यादा क़ाबिल थे...”

शफाक़त ने मुस्कुराते हुए बीच में टोका “कुछ बातों को छोड़ दिया जाये तो.......इस बात का क्या मतलब है? ये बात समझ नहीं आयी”.

 यमुना भी हँसने लगी “इसका मतलब ये कि तुम्हारे अब्बू बचपन से ही बिल्कुल जुदा किस्म के इंसान थे, बनिस्बत अपने भाई-बहनों के. मिर्ज़ा की सबसे खास बात थी उनकी हिम्मत और जोखिम उठाकर काम करने की आदत. वह शुरु से ही बड़े निडर बच्चे थे. यह वह बात थी जो उनके किसी भाई-बहन में नहीं थी. बचपन में खेल-खेल में ही अगर बाकी के भाई-बहन कहते कि फलाँ काम उनसे नहीं हो पायेगा या ये काम बहुत कठिन है, तो मिर्ज़ा गुस्से में बोल पड़ते “कौन सा काम है जो नहीं हो पायेगा?...मुझको बताओ, कैसे नहीं होगा काम?...मैं करूँगा वह काम. वह इंसान कभी ज़िंदगी में कुछ नहीं कर सकता जो हमेशा डरता रहता है और यही कहकर जोखिम नहीं लेता कि फलाँ काम कठिन है, और नहीं हो पायेगा.....तुम लोग बहुत ज़्यादा डरते हो.....हमें डरना नहीं चाहिये”, और मिर्ज़ा वह कठिन काम करने की पूरी कोशिश करते भी थे, बिना इसकी परवाह किये कि अंजाम क्या होगा. कई बार वह जीत जाते थे, कई बार वह हार भी जाते थे, कई बार उनको चोट भी लग जाती थी, मगर मिर्ज़ा की फितरत में कोई बदलाव नहीं आया था. उनके भाई-बहन भी इस बात को मानते थे कि अगर उनमें से फलाँ काम कोई नहीं कर पाया, तो मिर्ज़ा ज़रूर कर देगा, और इसीलिये उनके भाई-बहन मिर्ज़ा की बहुत क़द्र करते थे, और उन्हे बहुत प्यार करते थे”.

“अपने नाम का बड़ा गुरूर था तुम्हारे अब्बू को” यमुना हँसते हुए बता रही थी. “वह अपने भाई-बहनों और अपने अम्मी-अब्बू से कहा करते थे कि “मेरा नाम हैदर है.....हिस्ट्री में पढ़ा है?....वह मैसूर वाला हैदर अली?....कितना बहादुर था वह और कैसे उसने अपने सभी दुश्मनों अंग्रेज़ों, मराठों और निज़ाम को हराया था!!....मैं भी ऐसे ही किसी दिन अपने सभी दुश्मनों को हरा दूँगा” नन्हे से मिर्ज़ा हैदर खुद को हैदर अली से कम नहीं समझते थे. इस बात पर उनके अम्मी-अब्बू उनसे खूब ठिठोली करते थे”.

 “बचपन के मिर्ज़ा हैदर की यही हिम्मत और जोखिम उठाकर काम करने की आदत उनकी ज़िंदगी के आखिरी पलों तक बरकरार रही. 35 साल तक पूरी धमक से सरकारी नौकरी करना, एक आला दर्जे के कारोबारी साबित होना, 90 साल तक उनका जीना और लगातार इतने एलेक्शन जीतते जाना क्या इसकी तस्दीक नहीं करता है?”

अपने अब्बू की तारीफ सुनकर शफाक़त को काफी अच्छा लग रहा था.

यमुना ने बोलना जारी रखा “पढ़ाई-लिखाई में वाकई मिर्ज़ा बेजोड़ निकले. हर बार अपनी क्लास में अव्वल आये, और इसलिये उनके सभी अध्यापक भी उन्हे बहुत पसंद करते थे. अब ऐसा तो होता ही है, किसी भी टीचर को हमेशा मेहनत से पढ़ने वाला बच्चा ही पसंद आता है. सैयद साहब जब भी मिर्ज़ा के किसी टीचर से मिलते थे, अपने बेटे की तारीफ सुनकर खिल जाया करते थे. दसवीं और बारहवीं मिर्ज़ा ने बड़े अच्छे नम्बरों से पास की और फिर सौघरा कॉलेज में बी.ए. में दाखिला लिया. बी.ए. भी अव्वल दर्जे में पास करके उर्दू में एम.ए. की और फिर 2-3 साल जम के मेहनत करने के बाद आई.ए.एस. का इम्तेहान पास किया था. उस समय शहर के सभी नामी अखबारों में बड़े-बड़े शब्दों में मिर्ज़ा और उनके अब्बा हुज़ूर की फोटो के साथ मिर्ज़ा की इस कामयाबी की खबर छपी थी. मुस्लिम क़ौम जो न पढ़ने-लिखने के लिये तंज़ झेलती थी, उसका एक बच्चा आई.ए.एस. बना था, यह कोई आम बात नहीं थी. सैयद सरफराज़ और चाँदनी बेग़म अपने मिर्ज़ा की इस कामयाबी से फूले न समाते थे. आई.ए.एस. बनने के ठीक बाद ही, मिर्ज़ा का निकाह सैयद साहब के फिरोज़ाबाद के एक कारोबारी दोस्त अकरम खान की बेटी ज़ीनत महल से हो गया था”.     

      

      

      

            

  


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