जितेन्द्र सिंह जीत

Drama Classics Inspirational

4.5  

जितेन्द्र सिंह जीत

Drama Classics Inspirational

दशहरे के दिन

दशहरे के दिन

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 2015 की बात है। दुर्गा पूजा समारोह की जिम्मेवारी मेरे लाख मना करने पर भी मुझपर डाल दी गई। मुझे सचिव बनाया गया और सहकर्मी विनोद को कैशियर। बाकी समिति के सदस्यों का चयन हमदोनों पर छोड़ दिया गया। चंदा एक दिन का मूलवेतन तय हुआ। दूसरे दिन दुर्गापूजा समिति की अधिकारिक सूची बड़ी मशक्कत के बाद हमने सूचनापट्ट पर डाली। तीसरे दिन से हम काम पर लग गए क्योंकि नवरात्री शुरू होने में सिर्फ बीस दिन ही बचे थे।

समिति के सदस्यों की रायशुमारी के लिए मैंने बैठक बुलाई। किसी ने रामलीला तो किसी ने महाप्रसाद ,पंडाल के बारे में अपने सुझाव रखे। कोई देवी जागरण, रावण दहन तो कोई भंडारे के बारे में बोला। सभी के सुझाव आपसी सहमति से स्वीकृत हुए और आयोजन का खाका तैयार कर लिया गया। हम उठने ही वाले थे कि मनीष ने अपनी बात रखने की अनुमति चाही। मेरे बुलाने पर सबसे मुखातिब हुआ ,

" इस बार दशहरे के दिन क्यों न हम गरीब असहायों को कपड़े बांटें ?"

"सुझाव अच्छा है, लेकिन फंड कहां से आएगा ?",

विनोद ने जवाबी प्रश्न किया। उसका कहना भी जायज था। कैश की जवाबदेही उसी की थी। मनीष ने पूरी योजना रखी ,

" हमारे कालोनी में लगभग हजार लोग रहते हैं। हम घर -घर से मांगकर उपयोगी कपड़े इकठ्ठा करेंगे। ज़रूरत पड़ी तो क्लीनर से सफ़ाई करवायेंगे। अच्छे से पैकिंग करके टैग लगाकर पहचान सुनिश्चित करेंगे। जो नए कपड़े या पैसे देना चाहे , स्वीकार करेंगे। कैलाश भाई से भी मदद मांग सकते हैं। रकम कम पड़ने पर समिति कुछ सहयोग कर ही सकती है।"

सभी ने ताली बजाकर प्रस्ताव का समर्थन किया। मैंने मनीष के नेतृत्व में एक पांच सदस्यीय उपसमिति गठित कर दी।

अगले दिन वॉट्सएप नंबर जारी कर अपील की गई। नोटिस बोर्ड पर भी सूचना लगाकर मदद मांगी गई।

उसी दिन शाम 6 बजे मैं और मनीष कैलाश भाई से मिलने गए। वे हमारे शहर के जाने माने कपड़ा व्यापारी हैं। हमेशा नेक कार्यों में आगे रहते हैं। 

मैंने उन्हें सारी बात बताई।

पूछ बैठे," कितने लोग आएंगे?"

"लगभग दो सौ "

"उनके भोजन का क्या इंतज़ाम है ?"

मैं निरुत्तर था। इस बारे में तो हमने सोचा ही नहीं था।

उन्होंने हमें डांटते हुए तीन सौ लोगों के राशन की लिस्ट मांगी। मैंने महाप्रसाद बनाने वाले मिस्त्री भरत भाई को सूचना दी। आधे घंटे में वे अपनी लिस्ट के साथ हाज़िर थे। कैलाश भाई ने लिस्ट पर निगाह डाली और बोले,

" ठीक है, इतना राशन , पचास साड़ी और तीस छोटे बच्चों के कपड़े समय से पंडाल में पहुंच जायेंगे। तुमलोग बाकी व्यवस्था करो।"

उनकी बात सुनते भरत भाई से भी रहा न गया। कहने लगे,

" साहब, मेरी टीम को मुफ्त खाना बनाकर पुण्य कमाने का मौका दीजिए।"

हमारे नज़रों में दोनों के लिए श्रद्धा के सागर उमड़ पड़े।

।शुरुआती सफलता ने हमें जोश से भर दिया। कालोनी के लोगों ने भी कपड़े देने के लिए संपर्क करना शुरू किया। कोई खुद दे जाता तो किसी के घर से मनीष की टीम ले आती। नवरात्री शुरू होने से पांच दिन पहले हमारे पास दस हज़ार रुपए और उम्मीद से अधिक कपड़ों के भंडार थे। कपड़ों की सफ़ाई , पैकिंग और पहचान के लिए टैग लगा दिए गए। सभी संपर्कसूत्रों के माध्यम से कार्यक्रम के समय और स्थान की सूचना लगातार प्रचारित की गई।

दुर्गापूजा तय कार्यक्रम के अनुसार निर्विघ्न चल रही थी। देखते-देखते दशहरे का दिन आ गया। इसी दिन माता की बिदाई और शाम में रावण, मेघनाद और कुंभकरण के पुतले का दहन की प्रथा वर्षों से चली आ रही थी। हमने भी तैयारी कर रखी थी।

माता के बिदाई का मुहुर्त पुरोहित जी ने दोपहर दो बजे के उपरान्त बताया था। हमने जरुरतमंदों को कपड़े और भोजन देने का समय साढ़े बारह रखा था। ग्यारह बजे तक बच्चे, बूढ़े और जवान मिलाकर लगभग तीन सौ लोग पंडाल में पहुंच गए। भोजन भी तैयार था। बारह बजे तक झंडा पूजा, माता को महाभोग प्रसाद अर्पण के बाद सिंदूरदान सम्पन्न हुआ। उसके बाद पूजा समिति के अधिकतर सदस्य बच्चों को मेला घुमाने के बहाने धीरे-धीरे खिसकने लगे। बचे उपसमिति के हम पांच लोग।

माता के पंडाल के बगल में रामलीला मंच था। वहीं पर कपड़े और भोजन रखे गए। इस काम में भरत भाई और उनके कारीगरों ने बड़ी मदद की। उर्मिला बहन समाजसेवा के कार्यों में हमेशा अग्रणी रहतीं थीं। उनको हमारे कार्यक्रम की जानकारी मिली तो अपनी टीम लेकर लगभग बारह बजे मंच पर आ पहुंची। उर्मिला बहन को पाकर हमारी जान में जान आई। उनको कपड़ों की जिम्मदारी सौंपकर हम उस तरफ से निश्चिन्त हुए। खाने के पैकेट बांटने के लिए भरत भाई को लगाया गया।

मैंने सबसे पहले बुजुर्गों को क्रमबद्ध मंच पर आमंत्रित किया। तकरीबन पचास लोग रहे होंगे, जिनमें अधिकतर महिलाएं थीं।सबको नए वस्त्र और भोजन के पैकेट देकर हम धन्य हुए। उसके बाद मैंने बच्चाें को पंक्तिबद्ध मंच पर आने की घोषणा की, लेकिन कुछ माता - पिता छोटी उम्र का हवाला देकर मंच पर आ पहुंचे। उर्मिला बहन ने आपत्ति करनी चाही, लेकिन मैंने आंखो-आंखों में मौन स्वीकृति दी। बच्चाें के साथ आए माता- पिता को भी कपड़े और भोजन के पैकेट दिए जाने लगे। यह देखकर बाकी लोग भी मंच की तरफ लपके। धैय रखने का मेरा आग्रह बेअसर रहा। देखते - देखते भीड़ बेकाबू हो गई। एक आठ वर्ष का बच्चा, जिसका नाम राहुल था, बार -बार मंच पर चढ़ता और बोलता ," अंकल,मेरे लिए एक जींस दे दो।"

जब तक हम उसके साइज की पैंट ढूंढ़ते, भीड़ उसे मंच से नीचे गिरा देती। उसने कई बार कोशिश की। अंततः उसे पसंद की जींस पैंट मिल ही गई लेकिन भीड़ की चपेट में उसका पावर वाला चश्मा टूट गया। बड़ी मशक्कत से कार्यक्रम संपन्न हुआ। हमें एहसास हुआ कि हमारी व्यवस्था समुचित नहीं थी। हम फ़ुरसत होते पानी पीने बैठे ही थे कि भरत भाई की आवाज़ आई,

"साहब, राहुल का चश्मा टूट गया।"

" कौन राहुल ?", मैंने पूछा

" वहीं जींस वाला लड़का", भरत भाई ने जवाब दिया।

मंच के बगल में वह एक हाथ में जींस और दूसरे हाथ में टूटा चश्मा लिए खड़ा था। बहुत खुश दिख रहा था। तभी उसकी मां आ गई। मां को देखते पीटने के डर से रोने लगा। इसके पहले कि उसकी मां कुछ कहती , हम सभी ने अपने जेब के पैसे उसकी मां के हाथों में रख दिए। लगभग एक हज़ार थे।

"आप दूसरा चश्मा बनवा लेना "

मेरी आवाज़ पर उसने सिसकते हुए कहा,

" इसका चश्मा साधारण नहीं है ,साहब। दूसरा बनाने के लिए चेन्नई जाना पड़ेगा। कहां से लाऊंगी पैसे?"

"कितना खर्च आएगा ?"

" लगभग पांच हजार"

मैंने मनीष को इशारा किया। मनीष ने पांच हजार राहुल की मां के हाथों में रख दिए।उसने आंसू पोछते आशिर्वाद दिया और राहुल को ले अपने घर चल पड़ी।

 बाकी लोग भी धीरे -धीरे अपने घर जाने लगे लेकिन सभी बुजुर्ग इंतजार में थे। जब मैंने कारण पूछा तो बोले,

"आशिर्वाद देने के लिए रुके हैं।"

उनके आंखो में गजब की चमक थी। यही हमारे महीने भर की मेहनत का पारितोषिक थी। एक अंधे बुजुर्ग ने कहा,

" बेटा, भविष्य में अगर हमारे घर तक कपड़े और भोजन पहुंचा सको तो आने -जाने की परेशानी दूर हो जायेगी।"

मैंने कहा, " अब ऐसा ही होगा, बाबा।"

हमने उन्हें गाड़ी से घर पहुंचाया। जब चलने लगे तो सभी के आंखों से स्नेह की बूंदे टपकने लगीं। हम भी भावविभोर हो उठे।

आज भी हमारे यहां दशहरे के दिन जरूरतमंदों तक कपड़े और भोजन पहुंचाने की परंपरा कायम है। उसके बाद ही माता की बिदाई होती है।


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