प्यार का भूखा
प्यार का भूखा


मोहन लाल सोलंकी सामाजिक न्याय और कल्याण विभाग में उच्च अधिकारी थे। सरकारी बंगले में अपनी पत्नी सुरभि के साथ रहते थे। घरेलू काम- काज के लिए एक नौकर रामू था। इकलौती बेटी सोनालिका की शादी को तीन साल हो गए थे। वह अपने डॉक्टर पति के साथ कनाडा में रहती थी।
मोहन लाल सुबह जाते तो फिर शाम को ही आना होता था। दफ़्तर घर से दूर होने के कारण दोपहर का टिफ़िन साथ ले जाते थे।
रोज की तरह दफ़्तर के लिए निकले तो सड़क के बीचों बीच एक कुत्ता पड़ा मिला। बंगले से मुख्य मार्ग तक सड़क बहुत तंग थी। हॉर्न बजाकर हटाने की कोशिश व्यर्थ हो गई तो गाड़ी से निकल कर उसके पास पहुंचे। देखते ही चीख निकल गई
" अरे ,यह तो भूरा है मित्तल साहब का चहेता क्या हुआ इसे? "
मोहन लाल की पुरानी यादें चलचित्र की भाँति सजीव हो उठीं
उमेश मित्तल का बंगला पास में ही था। दोनों सहकर्मी होने के साथ घनिष्ठ मित्र भी थे। भूरा छोटा था ,तभी घर लाये थे।
वे भूरा को बहुत प्यार करते थे। रोज़ अपने हाथों नहलाते और खाना खिलाने के बाद ही खाते थे। भूरा भी उनके स्नेह का कायल था। पर उनकी पत्नी को भूरा से अत्यधिक लगाव अच्छा नहीं लगता था। बराबर टोकतीं, "जानवर है कहीं काट न ले कोई रोग न पकड़ ले।" ,पर हँसी में टाल देते।
उनका बेटा ,सौरभ ,पढ़ने जाता तो भूरा स्कूल बस तक छोड़ने जाता । छुट्टी के वक्त बस- स्टैंड में इंतज़ार करता और साथ लेकर हीं वापस लौटता। सोनालिका, सौरभ की सहपाठी थी। लिहाजा उसकी भूरा से अच्छी बनती थी। सोनालिका जब सौरभ के घर जाती तो दौड़कर उसे बुला लाता। मोहन लाल भी मित्तल साहब के घर अक्सर शतरंज खेलने जाते थे । भूरा ,शतरंज के खेल को बड़ी तन्मयता से देखता , मानो हर चाल से वाक़िफ़ हो।
अंजान लोगों की मजाल थी, मित्तल साहब के घर बिना अनुमति घुस जाये। एक बार रामू ,मित्तल साहब के पसंद की सब्जी लेकर गया था। उल्टे पाँव हांफते हुए आकर कहने लगा, "साहब, आज भूरा जान ही ले लेता लाख कोशिश की कम्बख्त घुसने नहीं देता मुझे नहीं जाना उनके घर भले आप मुझे नौकरी से निकाल दो
पिछले साल गर्मियों की बात है। मित्तल साहब अपने परिवार सहित देर रात सिनेमा देखने गए थे। तब चोरों ने हाथ साफ करना चाहा । अपने घर की रक्षा में खुद घायल हो गया ,पर एक तिनका तक उठने न दिया। आते हीं मित्तल साहब ने मरहम पट्टी की थी। भूरा का साहस मुहल्ले में कई दिनों तक चर्चा का विषय बना रहा ।
पंद्रह दिनों पहले, मित्तल साहब का तबादला दूसरे जिले में हो गया था। नई जगह जल्द- से- जल्द रिपोर्ट करना था। दो दिन हुए,अपना कार्यभार और जरूरी कागजात मोहन लाल को सौंपकर, नये शहर को निकल पड़े थे। घर का पूरा सामान पहले ही भेज चुके थे।भूरा उनके साथ गाड़ी में बैठने की जिद पर अड़ा रहा, लेकिन पत्नी के आगे वेवस मित्तल भूरा को छोड़कर आगे बढ़ चले। मीलों पीछे बेतहासा भागा, पर गाड़ी के आगे उसकी रफ़्तार धीमी पड़ गई। थक - हारकर वापस उसी गली में आकर मित्तल साहब के इंतज़ार में आ बैठा। दो दिन से भूखा अब बेज़ान हो चला था।
मोहन लाल की आवाज़ सुनकर अपनी जगह से थोड़ा हिला।
" शुक्र है जिंदा है "
मोहन लाल ने टिफ़िन भूरा के आगे रख आवाज़ लगाई खा ले बेटा चल,मैं तुझे घर ले चलता हूँ
भूरा भोजन नहीं, प्यार का भूखा था। सिर पर मोहन लाल के हाथ फेरते उठ खड़ा हुआ। जैसे -तैसे आधा खाया। फिर बैठकर रोने लगा। कभी इधर- उधर, तो कभी मोहन लाल को निहारता। मानों पूछ रहा हो आप भी मुझे छोड़ तो न दोगे?
मोहन लाल की आँखें सजल हो उठीं। भूरा को देर तक प्यार करते रहे। आज दफ़्तर जाने का ख्याल त्याग वापस बंगले की ओर चल पड़े। घर पहुँचते आवाज़ लगाई, "सुरभि, देखो कौन आया है। " एक सांस में सारा वृतांत सुना डाला। सुनकर सुरभि ने भूरा को पास बुलाया। पालतू जानवर प्यार और दुत्कार की भाषा इंसानों से बेहतर समझते हैं। नई मालकिन की आँखों में अपनापन देख खुशी से झूम उठा। उसकी दुनिया फिर से आबाद हो गई थी । सुरभि ने सोनालिका को कनाडा फोन लगाया। हेलो की आवाज़ आते भूरा के घर आने की कहानी बता डाली। सोनालिका और सुरभि के आँखों से आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। भूरा अपने नये मालिक से खेलने में व्यस्त था।