Gaurav Chhabra

Tragedy

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Gaurav Chhabra

Tragedy

दशहरे का दर्द

दशहरे का दर्द

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अपनों का साथ होने के बावजूद भी यदि हमारे पास एक अलग खालीपन या अकेलापन संग रहता हो तो आस-पास मंडराता हुआ सन्नाटा, जो किसी और को शायद ना दिखे मगर आपको बार-बार घेर ही लेता है| फिर हम उसे दूर करने के लिए ना जाने कितनी और कैसी कोशिशें करते रहते है| और हो सकता है कि हम आगे चलकर भयंकर मनोविकारों या अवसादों के बीच फंस जाए जिनसे निकलना हर किसी के बस के बात नहीं| उन अवसादों से उबरने के लिए लिए इंसान के पास सकारात्मक सोच एवं प्रबल इच्छाशक्ति का होना अनिवार्य है| और यह भी सच है कि ये दोनों चीजें एकाएक नहीं मिलती, इसके लिए लगत प्रयास करने पड़ते है| सोचिए दुनिया में ऐसे कितने लोग होंगे जिन्होंने बहुत ही छोटी उम्र में इस तरह अनुभव किये होंगे| जो होंगे तो अपनों के बीच पर कितने अकेले, कितने असमंजस और किस पशोपेक्ष में जीते होंगे| हम यूँ सोचें तो वे क्या तो जीवन में कर पाएंगे, और क्या तो अपना भविष्य बनायेंगे? 

खून के रिश्तों में, गरीबी में, अपनों के बीच यदि कोई आपको खुशी से बाँटकर केवल दिन की दो सूखी रोटी पानी के साथ भी दे तो शायद उसकी कीमत बहुत ज़्यादा होगी और उस देने वाले की आपकी नज़रों में इज्ज़त बहुत ज़्यादा होगी| मगर यदि कोई आपको रोटी दे, एहसान जताए और आपके पीठ पीछे आपको बोझ समझा जाए और ये बात आपके कानों में पड़े तो उस उस दर्द के साथ जीना कितना मुश्किल होता होगा| ऐसे दर्द का एहसास मात्र हमारे रोंगटे खड़े कर देने में सक्षम है| यदि हमें अपने बचपन में खुद को पालना-पोसना पड़े और अपने बड़ों की आर्थिक मदद भी करनी हों, उनके कर्जे भी चुकाने पड़े तो शायद एक बार तो हम यह सोचने पर मजबूर हो जायेंगे कि यह जीवन किस काम का? मैं पैदा ही क्यों हुआ या हुई? खैर भावनाओं में बह जाऊँगा तो कलम की दिशा कहीं और चली जायेगी, अब सीधे अपनी बात करता हूँ|

दशहरे का दिन था, एक बड़े त्यौहार का दिन, दिवाली नज़दीक थी| शर्णार्थियो कि तरह टपरों की छतों के नीचे छोटे मकान में गुज़र-बसर हो रही थी| उन कच्ची दीवारों और फर्शिओं की डब-खढ़ब ज़मीन पर सिर्फ ज़रूरत पूरी करते गादी और कम्बल में खुद को समेटे हुए ८-१० साल का एक बच्चा सो रहा था| अल-सुबह नींद से जागा ही था की कुछ फुसफुसाती आवाज़ कानों में पड़ी| पड़ोस के परदे में लेटे हुए बड़े भाई से भाभी कह रही थी कि “अब तुम्हारा भाई बड़ा हो रहा है, उसकी भी खुराक बढ़ रही है, इतनी सी आमदनी में गृहस्थी चलाना बहुत मुश्किल है, खर्चे पुरे नहीं होते, हमारे अपने बच्चे भी हैं|” उस अबोध बालक के बाल मन ने सोचा, क्यों न मैं भी कुछ कमाने की सोचूं और भाई की मदद करूँ| उठा भाई को प्रणाम किया और निकल पड़ा काम की तलाश में| “अरे बेटा आज दशहरा है, छुट्टी का दिन है आज बाजार बंद है तु घर जा”| बहुत से काम देने वाले दरवाज़ों से यही जवाब मिला| फिर कहीं दूर कोई मिला जिसने कहा कि डम्बर से खम्बे पोतना है तु पोतेगा क्या? आस जगी, उस लड़के ने हामी भरी| उम्र छोटी थी, काम मुश्किल था, थकाने वाला, मगर इरादे मजबूत| खूब गन्दा हो गया, कपडे खराब हो गए| दिन भर काम किया सवा रुपये मिले, शाम घर आया, चार आने में साबुन ख़रीदा, डबल रोटी लाया, नहाया, जैसे भी धो सका कपडे धोए, मगर डम्बर था, तो पूरा साफ़ तो होना था ही नहीं| इस बीच नज़रों ने अपनों को तलाशा तो मालुम चला कि भाई, भाभी और अपने बच्चों को लेकर दशहरा दिखने ले गए हैं| खुद को संभाला, और एक प्रश्न खुद से किया “मुझे याद भी नहीं किया भाई ने?” आंसू पोछते हुए आँगन में बैठा और मोहल्ले की गली पर नज़रें टिकाये अपनों का इन्तेज़ार करने लगा| भाभी जैसे ही घर आई ना जाने क्यों मुंह चढ़ गया उस लड़के को देखते ही, और फिर जब उसके गंदे कपडे देखे तो अपने पति पर बहुत भडकी “देखो दिन भर घूमता रहता है, कपडे धोए तो कैसे धोए, अब मैं इसके गंदे कपडे भी धोऊं? क्या यह ही बचा है मेरे जीवन में? किसी ने दशहरे की मुबारकबाद नहीं दी, यह नहीं पुछा, कहाँ था दिन भर, कुछ खाया की नहीं, गन्दा कैसे हुआ? और तेरे पास १ रुपया कहाँ से आया? उस बाल मन का अंतर्मन कितनी बार रोया होगा| उस छोटे से दिल को कितना आघात पहुंचा होगा इस बात का अंदाज़ा ऐसे लगाया जा सकता है कि उस दशहरे को बीते अब करीब ८१ साल हो गए है मगर उस दिन से जुडी हर याद उस दिल, मन और आत्मा में अब भी ताज़ा हैं|


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