जीवन में रिश्तें और सुख
जीवन में रिश्तें और सुख
इंदौर शहर की एक कॉलोनी में हाउसिंग बोर्ड द्वारा बनाये गए उम्रदराज़ हो चले एक घर के सामने से यदि आप अल-सुबह गुज़रेंगे तो घर में बने मंदिर से आती घंटी की आवाज़, अगरबत्ती की खुशबू, लोबान से निकलने वाले धुएँ से बना पावन बादल और आम, अमरूद तथा अशोक के गगनचुंबी पेड़ों से आती चिड़ियों और गिलहरियों की आवाज़ आपको अपनी तरफ आकर्षित कर ही लेंगी। छोटी कद की ईंटों से बनी बाहरी दीवार से जब आप अंदर झाँकेंगे तो पाएंगे एक चमकता हुआ घर का आँगन, साफ़ सुथरे रंगीन गमले और उन गमलों में लगे खूबसूरत पौधे जिन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि इन पौधों को अभी-अभी किसी ने अपने बच्चों की तरह नहलाकर और सजाकर खेलने भेजा हो। ज़ाहिर सी बात है मन में ख्याल आएगा कि जिस घर की बाहरी सुंदरता इतनी अद्वितीय एवं कलात्मक है, माहौल इतना प्यार भरा प्रतीत होता है उस घर में रहने वाले लोग कितना सुकून भरा जीवन जीतें होंगे।
किसी ने ठीक ही कहा है जो जैसा दिखता है कभी-कभी वैसा होता नहीं है। यह घर है श्री अथर्वेद गुप्ता जी का। चलिए थोड़ा पीछे ले चलता हूँ। गुप्ता जी की पत्नी का स्वर्गवास हुए काफी साल गुजर गए थे, हम दो हमारे दो की नीति पर चलते हुए उनके दो लायक पुत्र थे, अपनी ३४ साल की नौकरी में गुप्ताजी ने पैसा तो ठीक-ठाक कमाया पर मान-सम्मान और इज्ज़त अच्छी संजोयी थी। नाम के अनुरूप वेद पुराणों के अध्ययन से निकले ज्ञान के भंडार के कुछ मोती भी प्राप्त किये थे। रिटायरमेंट के बाद हवन, कीर्तन, भजन में रूचि दिखाई और सात्विक जीवन जीने का प्रण किया।
गुप्ताजी ने अपने दोनों बेटों को अपनी नज़रों के सामने रखा था और कड़े अनुशान में उन्हें स्नातक करवाकर आगे पढने के लिए महानगर भेजा था। बड़ा लड़का, लायक निकला, उसे अच्छी नौकरी लगी और एक दिन उसने अपनी सह-महिला कर्मचारी के साथ ब्याह रचाने की इच्छा जाहिर की। गुप्ताजीथोड़े पुराने ख़यालात के थे, खैर शादी हुई, लड़का अपनी पत्नी के साथ महानगर में रहने लगा, एक साल बाद उसे पुत्र धन की प्राप्ति हुई। समय बीता गुप्ताजी का पोता 3 साल का हो गया, यदा-कदा लड़के की छुट्टियों में वो अपने पोते का दीदार कर पाते थे, छोटा बेटा भी अपने भाई की तरह पढ़ लिखकर दूसरे महानगर में नौकरी पर लग गया।
गुप्ताजी अकेले जीवन व्यापन कर रहे थे। सुबह योग साधना, मंदिर में भजन, बाई के हाथ का बना खाना, थोड़ी मधु मेह की तकलीफ, थोडा हल्का ब्लड प्रेशर, शाम को चाय की चुस्की तथा अपने हम उम्र साथिओं के साथ घर पर शतरंज की बाज़ियाँ, यह उनकी दिनचर्या थी।
इसी बीच बड़े लड़के का तबादला अपने ही शहर में हुआ, गुप्ताजी बड़े खुश, पर लड़के की पत्नी ना खुश, उसे महानगर छोड़ने का मन नहीं था, खैर बड़ा लड़का सह-परिवार घर आ गया, घर का माहौल बदल गया, पोते के साथ खेलने की तम्मना पूरी हुई, पर बहु को गुप्ताजी के दोस्तों का आना-जाना ज्यादा रास नहीं आ रहा था, उसे अब ज्यादा काम करना पड़ रहा था। गुप्ताजी को बहु के हाथ का खाना खाने का सुख तो प्राप्त हुआ लेकिन ज़्यादा दिन नहीं, जानियें क्यों?
एक शाम अपने पोते को श्लोक सुनाने लगे, पोते को समझ तो नहीं आता था क्योंकि उसने तो ए फॉर एय्प्पल ही सुना था, पर वो इस बदलाव को खुशी-खुशी पसंद करने लगा यह उसके लिए ये नया अनुभव जो था। पोते ने ज़िद की, दादाजी “गोदी में उठाओ”, गुप्ताजी क्या करते ज़िद के आगे उठा लिया, तभी मेज़ पर रखा पानी का गिलास पोते के पैर लग कर गिरा पड़ा, पानी से छड़ी फिसली, पैर फिसला, पोते समेत ज़मीन पर गिर गए, भगवान की कृपा थी, किसी को ज्यादा चोट नहीं लगी। पोता ज़ोर-ज़ोर रोने लगा। बहु किचन में खाना बना रही थी, माथे पर आटा, हाथ में बेलन, साड़ी कमर में खोस्ती हुई भागते हुए बाहर आयी और बिना सोचे समझे गुप्ताजी पर चिल्लाना शुरू कर दिया। शाम को जब बड़ा लड़का घर आया उसकी श्रीमती जी ने सारा वृतांत उसे अपनी ज़बानी सुनाया। शायद अब आप समझ ही गए होंगे कि घर में क्या हुआ होगा, शिकायतों का दौर शुरू हुआ, छींटा-कशी हुई, वाद-विवाद प्रतियोगिता हुई, लड़के ने भी पुरे प्रकरण में गुप्ताजी की ही गलती निकाली। मामला तो ख़त्म हो गया पर क़रीब दो महीने बाद एक दोपहर, सरकारी डाक से एक पत्र घर आया, गुप्ताजी ने पत्र पढ़ा और बहुत मायूस हुए, यह पत्र उनके लड़के के नए तबादले का था। अब गुप्ताजी इस तबादले को लड़के की मज़बूरी समझे या उसकी नौकरी की ज़रूरत? उन्हें फिर से अकेलापन और खालीपन दस्तक देने के लिए द्वार पर दिखाई देने लगा।
इस पुरे घटनाक्रम में गलती किसकी ये तो शोध का विषय है, कुछ मतभेद हो सकते है, क्योंकि हम सभी का देखने, समझने, सोचने का नजरिया अलग-अलग हो सकता है, पर रिश्तों की अहमियत क्या होती है इसे तो हम जरुर महसूस कर सकते है। आशा करता हूँ कि हम सभी अपने जीवन में हर रिश्ते को थोड़ी मज़बूती ज़रूर दे पाएंगे।