दशांश
दशांश
भारती बचपन से ही माँ-पिताजी को दान के लिए दशांश निकालते हुए देखती आ रही थी। घर में चाहे खर्चे-पानी की कितनी भी किल्लत हो जाती, लेकिन आमदनी से दशांश निकालना तथा जरूरतमंदों की मदद करना परिवार का परम धर्म था। वहीं संस्कार लेकर डोली में विदा होकर ससुराल आ गई। अच्छा-खासा घर परिवार था। पति का कारोबार बहुत अच्छा था तथा दिन-ब-दिन ऊँचाइयों की चरम सीमा को छू रहा था। आँगन में दो बच्चों की किलकारी गूँजने लगी। घुट्टी में मिली दशांश की आदत बरकरार रही। व्यापार में जितना भी मुनाफा होता, ईमानदारी से दशांश निकाल दिया जाता तथा जरूरतमंदों तक पँहुचा भी दिया जाता था।
सितारे पलटते देर नहीं लगी, व्यापार में बहुत ज्यादा घाटा हो गया। देनदार पैसा देने का नाम नहीं ले रहे थे तथा लेनदार किसी भी कीमत पर मानने को तैयार नहीं थे। बात थाने तक पहुँच गई। घर में खाने के लाले पड़ गए। भारती ने सोचा दशांश के पैसे जरूरतमंदों के लिए निकाले थे, इस समय हमारे से ज्यादा कोई भी जरूरत नहीं हैं। भूख से बिलखते बच्चों को ध्यान में रख कर, भगवान से क्षमा माँग कर, दशांश के कुछ पैसों से भोजन का इंतजाम करने की सोचती है। लेकिन तभी घर पर पुलिस आ पहुचँती है पति को मारने-पीटने तथा प्रताड़ित करना शुरू कर देती हैं। भारती पति को छोड़ने की याचना करती है तथा आश्वासन देती है कि हालात ठीक होते ही हम लेनदारों का पैसा लौटा देंगे। लेकिन तभी किसी भ्रष्ट अधिकारी की कुदृष्टि भारती पर पड़ती है। भारती उसकी कामुक नजरों की पीपासा को भाँप जाती है तथा दशांश का सारा पैसा उसे देकर अपनी तथा अपने पति की रक्षा करती है तथा मन ही मन सोचती है, अपनी रक्षा से ऊपर कोई भी सदकर्म नहीं तथा जरूरतमंदों की मदद के लिए निकाले गए दशांश के लिए, इससे बड़ा और कोई भी जरूरतमंद भिखारी नहीं हो सकता।