@Aaraadhyaa .

Inspirational

4.5  

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दरकने से पहले सिमेंटिंग

दरकने से पहले सिमेंटिंग

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~मानसी जब शादी करके आई थी तो सब कुछ कितना अच्छा था। उसकी सास उस पर जान छिड़कती थी। घर में रमेश के अलावा एक छोटा देवर सुरेश था जो उसके आगे पीछे भाभी भाभी कहकर डोलता रहता था। एकमात्र बड़ी ननद आरती थी जिसकी शादी बहुत साल पहले हो गई थी और वह भी गाहे-बगाहे मायके आती रहती थी तो वह उसे अपनी बड़ी बहन की तरह ही लगती थी।


अब वक्त के साथ बहुत कुछ बदलने लगा था। जबसे मानसी ने इस घर में अपने मुताबिक कुछ बदलाव करने की कोशिश शुरू की थी। तब पता नहीं क्यों यह सब ना तो सास को पसंद आ रहा था और ना ही रमेश मानसी के प्रयास की तारीफ कर पा रहा था।

उसका कहना था कि,


"जिस काम को करना घर के सारे लोगों को पसंद नहीं आता है और घर की शांति नष्ट हो रही है, उस काम को करना ही क्यों है ?"


अब मानसी उन्हें कैसे समझाए कि भले ही उनका घर बहुत अच्छा है और वास्तु के हिसाब से बहुत अच्छा बनाया गया है लेकिन अब बदलते समय के साथ उसमें भी कुछ बदलाव की जरूरत है। इसलिए उसने पुराने ज़माने की छोटी खिड़की को बड़ा करवा दिया था। जो उसके सास ससुर को बहुत पसंद आया था। विशेषकर उसकी सास को उसके द्वारा किया हुआ बदलाव बहुत पसंद आया था।

पर... आज जबकि मानसी ने किचन के पुराने डिब्बे हटाकर जब नए डब्बे रखवा दिए तब उसकी सास कल्याणी जी को बिल्कुल पसंद नहीं आया था। दूसरे दिन जब मानसी ऑफिस से आई तो उसने देखा...

सारे डब्बे फिर से पहले की तरह रख दिए गए थे और सास ने कहा था कि,


"बहू! मुझे उन पुराने डिब्बों से लगाव है । और इन नए प्लास्टिक के डब्बों से मुझे कुछ प्लास्टिक की बदबू आती है। समझ नहीं आता है कि....एक तरह से उन्होंने यह भी कह दिया था कि उन्हें प्लास्टिक के डब्बे बिल्कुल पसन्द नहीं। जबकि वो पुराने स्टील के डब्बों में कुछ डब्बे ऐसे भी थे जिसमें जंक लग गया था।


लेकिन बात यहाँ पर सास का दिल दुखने की थी और उस वजह से घर का वातावरण बड़ा बोझिल हो गया था इसलिए मानसी ने कुछ नहीं कहा।


मानसी ने गौर किया कि यह सब बदलाव अभी पिछले कुछ महीनों से ही आया है। जबकि रत्ना बुआ आकर गई हैं। रत्ना बुआ मानसी की शादी के समय नहीं आ पाई थी, क्योंकि उनकी बहू तभी गर्भवती थी। शादी के छः महीने बाद आई थी तो पता नहीं अपनी भाभी के कान में क्या कह गई थी।


कुछ असर तो मानसी ने भी सुना था कि,


"देखिए भाभी! बहू पढ़ी-लिखी है और नौकरी भी करती है। कदाचित हमारे घर से थोड़े ऊपर घर से आई है। अभी से अगर तुम उसकी सारी बात मानोगी तो कल को तुम्हारी कोई बात नहीं मानेगी। और आपलोगों की इज्जत भी नहीं करेगी। बेहतर है उसे दबाकर रखो और उसे उसकी मनमानी ना करने दो! "



उस रात लगभग ग्यारह बजे मानसी पानी लेने के लिए रसोई की तरफ जा रही थी, तभी उसने यह बात सुनी। अगर उसे यह बात नहीं सुनी होती तो उसे अपनी सास कल्याणी जी ही गलत लगती।पर उसकी भोली भाली सास कान की कच्ची निकली। उन्होंने अपनी बड़ी ननद की बात को बहुत ही गंभीरता पूर्वक ले लिया। और उसके बाद से तो मानसी की जैसे शामत ही आ गई। उसकी किसी भी बात में मीन मेख निकालना उसके किए की तारीफ नहीं करना एक तरह से कल्याणी जी की आदत बन गई थी।

अब रसोई के डब्बे बदलने की बात इतनी बड़ी नहीं थी लेकिन कल्याणी जी को इस बात की तकलीफ थी कि,


अगर रसोई में बदलाव करना ही था तो मानसी ने मुझसे पूछा क्यों नहीं ?


और साथ में वह रत्ना बुआ की बात का मिलान करती तो उन्हें यह बात सही लगती कि अब इस घर में मानसी अपने मन की करने लगी है और अपनी सास की बात ही नहीं पूछती है। इससे उनका कोमल ह्रदय आहत भी हुआ था और जो चुंकि वह दिल की भोली थी। इसलिए बार-बार नाराजगी दिखाकर मानसी को का ध्यान अपनी और करने की कोशिश कर रही थी।


और इधर मानसी बहुत उलझन में थी और परेशान भी। क्योंकि उसपर हमेशा प्यार लुटाने वाली वह प्यारीसी सासू मां बहुत याद आती थी जो जो उसके साथ मिलकर सब्जियों में मेथी बिनती और फिर दोनों ढेर सारी बातें किया करती थी। साथ में खाना बनाती, बाकि सारे काम करती एकदम माँ बेटी की तरह रहती थी।


दोनों ज़ब कभी कभी पार्क घूमने निकल जाती या मार्केट तो अक्सर लोग उन्हें माँ बेटी ही समझते थे।

घर पर भी दोनों कोई टीवी के सीरियल पर कटाक्ष करतीहँसती रहती थीं।

पर... जबसे रत्ना बुआ कल्याणी जी के कान भरकार गई थी तबसे दोनों बिल्कुल शांत रहती थी। टीवी अभी भी चलता था लेकिन मांजी सीरियल देखते हुए कुछ नहीं बोलती थी। और अगर मान लो...मानसी कभी चैनल बदल देती तो कल्याणी जी फिर से दोबारा वही चैनल लगा देती थी। जैसे कि वह मानसी को दिखाना चाहती थी कि इस घर में सिर्फ मेरा ही राज चलेगा मेरा ही अधिपत्य रहेगा।


अब भी पार्क जरूर जाती थी कल्याणी जी... लेकिन अकेले। सब्जियां भी कभी लाती थी थी तो अपनी पसंद की लाती थी।मानसी को तो पूछती भी नहीं थी कुछ अलग सा कुछ बदल सा गया था घर में।


अब मानसी को ससुराल सच में ससुराल लगने लगा था। वह जब शादी करके आई थी तब सब कुछ इतना अच्छा था कि उसने अपने मायके में और अपनी सहेलियों को यही बताया था कि


"मुझे वह ससुराल लगता ही नहीं है… वह तो मुझे अपना घर लगता है!'



पर अब धीरे-धीरे कल्याण जी के व्यवहार से उसे लगने लगा था कि हर सास माँ नहीं हो सकती और ससुराल ससुराल ही रहता है वह मायका कभी नहीं बन सकता।


अब के होली पर मानसी की छोटी भाभी ने बहुत आग्रह से बुलाया था। वैसे यह मानसी की पहली होली थी। कायदे से उसे यह होली ससुराल में अपने पति के साथ मनाना था पर अब पिछले कुछ समय से घर का बोझिल वातावरण और सास के बदले हुए व्यवहार की वजह से मायके जाना चाह रही थी।


कुछ निश्चय करके मानसी ने अपनी मां शोभा जी को फोन लगाया और उनसे बात करके उसका मन बहुत हल्का हो गया था और वह अपनी मां की बातों को मन में रखते हुए सास के पास गई और उनसे कहा,

"माँजी मैं होली पर अपने मायके जाना चाहती हूँ! अगर आप कहें तो मैं हो आऊँ?"

"हूम्म....! कल्याणी जी ने लंबी सांस छोड़कर कहा,

"और.....अगर मैं ना बोलूंगी तो नहीं जाओगी?"

"नहीं जाऊँगी माँजी! अगर आप मना कर देंगी तो मैं नहीं जाऊंगी। क्योंकि मुझे पता है.... होली में दीदी भी आएंगी और सुरेश भी आएंगे ऐसे में आप पर काम का बोझ बढ़ जाएगा। लेकिन मैं इस साल होली में मायके जाना चाहती हूं क्योंकि मेरी नई भाभी आई है और इसी बहाने थोड़ा बदलाव भी हो जाएगा। ऑफिस में भी फिर बाद में छुट्टी नहीं मिलती है लेकिन आप नहीं बोलेंगी तो सच में मैं नहीं जाऊंगी!

कह कर मानसी ने कल्याणी जी के चेहरे की तरफ देखा। वह सोच कर आई थी अगर कल्याणी जी मना कर देगी तो वह नहीं जाएगी... क्योंकि अब वह इस घर में नाराजगी नहीं चाहती थी और ना ही चाहती थी कि कल्याण जी किसी बात पर नाराज रहे और दुखी रहे।

जैसे ही मानसी ने कल्याणी जी के चेहरे की तरफ देखा

यह क्या...?

मानसी यह क्या देख रही थी कि सच में कल्याणी जी की आंखों में आंसू था। डबदबाई आंखों से उन्होंने कहा कि ,

 "बहू... क्या मैं तुम्हें मायके नहीं जाने को बोलूं तो सच में अगर मैं मना कर दूंगी तो तुम नहीं जाओगी? तुम तो मेरी इतनी बात नहीं मानती हो? "


" जी... माँजी!मैं नहीं जाऊंगी मैं आपकी बात टाल कैसे सकती हूँ ?"

मानसी के इतना कहते ही कल्याणी जी ने उसे आगे बढ़ कर गले लगा लिया और भावविभोर कहा,

" मेरी बेटी तो मेरी इतनी बात मानती है। मैं ही तुम्हें गलत समझती थी। मुझे माफ कर दो बेटा ! पिछले दिनों जो मेरा व्यवहार था वह तुम्हारे साथ अच्छा नहीं था। मुझे लगने लगा था कि तुम नौकरीपेशा मॉडर्न बहू हो, कल को ऐसा ना हो कि तुम मेरी बात ना मानो मेरी इज्जत करना छोड़ दो। इसलिए मैं तुम्हारी हर बात को काटकर अपना आधिपत्य जमाने की कोशिश कर रही थी। क्या करूं रत्ना दीदी ने मुझे ऐसा ही कुछ कहा था कि तुम बहुत तेज तर्रार हो और कल को इस घर पर अपना अधिकार जमा कर मुझे और बाबूजी को सताओगी और ननद और देवर को भी इस घर से आना जाना बंद करा दोगी!

बच्चे की तरह कल्याणी जी अपने मन की बात कहे जा रही थी और मानसी उनके गले से लिपट कर सोच रही थी कि, सच में यह कितनी भोली है। इन्हें तो पता भी नहीं कि बोलते बोलते उन्होंने रत्ना बुआ का नाम ले लिया था जिन्होंने उन्हें भड़काया था।

"मैं सोच रही हूँ....अब इस बार मैं होली यहीं मनाऊंगी। मैं होली के बाद मायके चली जाऊंगी। अब जल्दी उठकर गुजिया बनाते हैं, और कुछ नमकीन भी बनाएंगे। क्योंकि हर बार हम बाजार से नमकीन मंगाते हैं जिससे पेट खराब हो जाता है। इसी बहाने आपसे मैं नमकीन बनाना सीख लुंगी और होली पर जो मैंने दो दिन एक्स्ट्रा छुट्टी ली है वह मैं घर पर रहूंगी और आपके साथ पकवान बनाना सीखूंगी!"

मानसी ने कहा तो कल्याणी जी ने प्यार से उसका गाल सहलाया और कहा,

"वाह बहू!अब तो होली में बड़ा मज़ा आएगा!"

फिर कुछ सोचकर ठाकुर जी के कमरे में गई और वहां से काला धागा लाकर मानसी की कलाई पर बांधते हुए बोली,


 "मैं अपनी प्यारी बहुरिया के हाथ में डिठौना बांध देती हूं ताकि उसे किसीकी नज़र ना लगे। ऐसी सुगढ़ और समझदार बहू तो किस्मतवालों को ही मिलती है!"


मानसी अपनी सास का इतना सारा प्यार पाकर अभिभूत हुई जा रही थी

अब आज की बातचीत के बाद मानसी तो खुश थी ही। कल्याणी जी भी खुद को बहुत हल्का समझ रही थी। उनका मन बच्चों की तरह निश्छल था । वह सोच रही थीं कि खामखा अपनी बड़ी ननद की बातों में आकर अपनी प्यारी सी बहू मानसी को गलत समझने लगी थीं।

पर.... अब..

गलतफहमी के बादल हट चुके थे… धुंध छंट चुकी थी। उस रोशनी में सारे रिश्ते और प्यार परिलक्षित हो रहे थे। मानसी की जरा सी समझदारी ने घर की खुशियां वापस लौटा दी थी।

आज मानसी अपनी मां को भी बहुत धन्यवाद कह रही थी जिन्होंने उसे फोन पर समझाया था कि

"हर बात पहले सास से पूछ लो। और बुजुर्ग है तो वह कोई अच्छी सलाह देंगी। और अगर तुम्हें लगेगा कि वह बात नहीं मानने लायक है या उस बात में कुछ और जोड़ना है तो बाद में जोड़ देना। लेकिन उनसे जरूर पूछ कर काम करना।

शोभा जी ने अपनी बेटी को आपसी रिश्तों में प्रेम और सौहार्द को बनाए रखने के लिए कुछ अनमोल टाइप दे दिए थे। जिससे मानसी और उसकी सास का रिश्ता और भी बेहतर हो सकता था

उन्होंने लाड़ जताते हुए कोमल से कहा था,


"देखो बेटा!जैसे-जैसे हमारी उम्र बढ़ती है तो हमें लगता है रिश्ते और लोग साथ छोड़ रहे हैं। ऐसे में हमें बुजुर्गों को उनकी अहमियत याद दिलाने पर उन्हें खुशी भी मिलती है और उनका प्यार और आशीर्वाद हम पर बरसता है!"

आज मानसी अपनी माँ की बात का असर देख रहे थे और देख रही थी कैसे कल्याणी जी फिर से पहले की तरह उसे प्यार करने लगी है और घर में अब सास बहू नहीं रहती बल्कि मां बेटी रहती थी।

वैसे मानसी ने एक बात अपनी सास को नहीं बताई कि वह उनके व्यवहार से तंग आकर होली में मायके जाना चाह रही थी नहीं तो उसे ससुराल की पहली होली में रहने का बहुत मन था क्योंकि बड़ी ननद भी आने वाली थी जो उसे बहुत प्यार करती थी और देवर भी सुरेश भी उस पर जान छिड़कने था कुल मिलाकर यह होली मानसी के जीवन की सबसे खूबसूरत और सबसे प्यारी होली थी।

उस दिन कल्याणी जी रत्न बुआ को फोन पर कह रही थी,

" ना.... ना..

जिज्जी! हमारी बहू वैसी नहीं है। सबसे अलग है। अरे... वह तो बहू नहीं बेटी है बेटी!"

रसोई में गुझिया का भरावन भरते हुए मानसी के हाथ रुक गए और उसने मुस्कुराकर अपनी सास को देखा तो उन्होंने भी उसे एक प्यारी सी मुस्कुराहट से जवाब देते हुए रत्ना बुआ को फोन पर कहा कि,

" जिज्जी! आप भी होली में आ जाना। इस घर की प्यार से भरी हुई होली में आपको बहुत अच्छा लगेगा!"

उधर से रत्ना बुआ ने क्या कहा पता नहीं.....

लेकिन कल्याणी जी वापस आकर मानसी के गाल पर एक प्यारी सी चपत लगा कर बोली,

" बहू! चलो जल्दी से गुजिया भरते हैं। कुछ पकवान ज्यादा बना लेंगे क्या पता रत्ना जिज्जी सच में आ जाए!"

मानसी ने भी चुटकी लेते हुए कहा और

उन्होंने आप को फिर से भड़का दिया तो....? "

तो....?

तो क्या.....?

कल्याणी जी ने कहा,

" तो मैं नहीं सुनूंगी उनकी बात। और अगर मैं भड़क जाऊंगी तो मेरी बेटी आगे बढ़कर मुझे समझा देगी ना। हमारे प्यार को किसी की नजर नहीं लगेगी!"

मानसी बड़े ही प्यार से सास की बात सुन रही थीं।

तभी ...मानसी के मन में पता नहीं क्या आया कि वह उठी और भगवानघर के पास गई ठाकुर जी के सामने से धागे उठाकर एक काला धागा अपने सास की हाथ में बांधा दिया।

और बोली"माँजी!अब मैं आपकी नज़र उतार देती हूँ ताकि आप को किसी की नजर ना लगे।आप इतनी भोली और प्यारी हो ना कि आप ऐसी रहना किसी की बातों में मत आना!


कहते-कहते मानसी बहुत भावुक हो गई थी और यह दृश्य देखकर उसके ससुर दीनानाथ जी बोले,

" यह क्या बात है?आज सास बहू रो रही हैं… ऐसा लग रहा है कि बेटी ससुराल जा रही है और माँ रो रही है!"

कल्याण जी ने कहा,

"आज हम दोनों एक दूसरे को बुरी नजर से बचा रहे हैं!

आप भी हमारे प्यार को नजर मत लगाइए!"

इतना कहकर दोनों हंसने लगी। तब तक रमेश भी आ गया था और गुजिया बनता हुआ देखकर कह रहा था कि,


" इस बार होली की गुजिया में प्यार का रंग मिला हुआ है। लगता है बहुत ही स्वादिष्ट बनेगा!"

क्योंकि इसके पहले कि रिश्ते दरक जाते उनकी सिमेंटिंग हो चुकी थी।

और..... इस बार......

सच में इस घर की खुशियां होली के रंगों के साथ बहुत रंगीन हो गई थी। जहां प्यार बसता हो उसमें अगर रंगों का त्योहार आ जाए तो प्यार कर रंग और रंगों से प्यार मिलकर एक हो जाता है।

आज मानसी और कल्याणी जी ने मिलकर इस होली को और भी रंगीन बना दिया था

आपसी प्यार और समझ ने रिश्ते को और भी खुबसूरत बना था।



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