दर्द
दर्द
कुछ खोने का दर्द और कुछ पाने की ख़ुशी। दोनों ही विपरीत प्रतीत होते है। पर रहते दोनों साथ ही हैं। हमेशा ख़ुशी दर्द को साथ ले कर आती है , जैसे इनका कोई साझा हो। दोस्त तू आगे आगे जा मैं तेरे पीछे ही आती हूँ।
एक बरसात की शाम मैं बालकनी में बैठी गरमा गरम चाय का मज़ा ले रही थी, तभी मेरी नज़र बारिश में भीगते एक बच्चे पर पड़ी। वो अपने आप और अपने साथ एक नन्हे से मेमने को बारिश से बचाने को कोशिश में लगा था। पर जहाँ वो खड़ा था वो जगह दो प्राणियों को सुरक्षित रख सकने में समर्थ नहीं थी। वो बहुत असमंजस में फंसा दिख रहा था। मैंने उसे आवाज़ दी " अरे ! ओ बच्चे हमारे घर के बारमदे में आ कर खड़े हो जाओ। इतना सुनकर उसे जैसे खजाना मिल गया। चेहरे पर एक बड़ी सी मुस्कान लिए हुए उसने हमें गेट में प्रवेश किया। और वो छोटा मेमना एक आज्ञाकारी बालक की तरह उसके पीछे पीछे। मेरी आवाज़ माँ ने भी सुनी। वो गुस्सा करती हुई बालकनी में आई, और मुझसे बोली " क्यों किसी अनजान को अंदर बुला रही है ?" मैंने बस इतना ही कहा " माँ आने दो ना, एक छोटा बच्चा ही तो है " माँ बोली " अरे ! तू नहीं जानती आज तूने बुलाया है कल को खुद घुस आएगा, और दोस्तों , रिश्तेदारों को भी लेता आएगा। ऐसे लोग ऐसे ही होते हैं। " मैंने कहा " क्या माँ आपकी तिल का ताड़ बनाने की आदत गई नहीं। ऐसा कुछ नहीं होगा। चलो तुम अपनी चाय ख़तम करो नहीं तो ठंडी हो जाएगी। " माँ बड़बड़ाती हुई अंदर चली गई।
तभी मुझे जोर से छींकने को आवाज़ आई, आवाज़ नीचे से आई थी। "ओह ! बेचारे बच्चे को लगता है ठंड लग गई " ऐसा मन में सोच कर नीचे जा कर देखा तो सच में वो बेचारा ठंढ से काँप रहा था। मैंने ऊपर आ कर माँ से कहा "छोटू का कोई कपड़ा है पुराना तो दे दो ना, वो बेचारा ठंड में काँप रहा है। कहीं बीमार न पड़ जाये।" पहले तो माँ ने गुस्से में घूरा फिर जा कर दो जोड़ी कपड़ों की ला कर दी साथ में बिस्कुट और चाय भी दी। बोली उससे दे दे। कुछ खा लेगा और चाय पी लेगा तो बीमार नहीं पड़ेगा। मैंने माँ को एक जोर की झप्पी दी और सब ले कर नीचे भागी। वो अभी भी बरामदे के कोने में बैठा बारिश के बंद होने का इन्तजार कर रहा था।
मैंने आवाज़ दी " बच्चे इधर आना। ये लो कपड़े बदल लो। नहीं तो ठंड लग जाएगी।" और ये चाय पी लो। उसने मेरी तरफ देखा और ना में सर हिलाया। बोला मैं ठीक हूँ। मैंने कहा " बच्चे ज़िद नहीं करते। देखो कैसे काँप रहे हो। कहीं बीमार हो गए तो इस मेमने का ध्यान कौन रखेगा " बच्चे ने कहा "माँ मना करती है किसी से ऐसे कुछ नहीं लेते।" मैंने उसे समझते हुए कहा "नहीं गुस्सा करेगी, बोल देना वो लाल घर वाली दीदी ने दिया है। " उसने मेरी तरफ देखा और झट से बोला " आप मेरी माँ को जानती हैं ?" मैंने सोचा हाँ कहने से अगर ये कपड़े बदल लेता है तो ये छोटा सा झूठ बोलने में क्या जाता है। मैंने भी उसी की अंदाज़ में जवाब दिया " हाँ जानती हूँ । और जब माँ को पता चलेगा की तुमने मेरी बात नहीं मानी तब वो ज़रूर गुस्सा करेगी " उसने कहा " अच्छा तो बताओ वो दिखती कैसी है " मैंने कहा " पहले कपड़े बदलो तब बताती हूँ । देखो ये चाय भी ठंडी हो रहे है। " उसके चेहरे पर एक जिज्ञासा भरी मुस्कुराहट देखी मैंने। उसने जल्दी से कपड़े बदले और चाय और बिस्कुट खा लिया। फिर बोला " अब बताओ माँ कैसी दिखती है मेरी ?" मैंने कहा " माँ, माँ जैसी दिखती है, बहुत ही सुन्द । और मुझे पता है वो तुम्हें बहुत ही प्यारी है और तुम भी उसे।
"दीदी अगर मैं उसे इतना ही प्यारा हूँ तो वो मुझे अकेला छोड़ कर चली क्यों गई ?" उसने मुझे डबडबाई आँखों के साथ ये प्रश्न किया। "चली गई? पर कहाँ ?" मैंने पूछा। उसने कहा " दो दिन पहले ही मैं जब सो कर उठा तो बाबा और सब लोग उन्हें ले गए। और दादी बोलती है कि माँ अब कभी नहीं आएगी। वो भगवान के घर चली गई है। ऐसा कैसे की वो नहीं आएगी? अभी पिछले साल जब वो नानी के घर गई थी तो वापस आ गई थी, तो भगवान के घर से क्यों नहीं वापस आएगी ?" उसके इस भोले से सवाल का मेरे पास कोई जवाब नहीं थ । उसने फिर कहा " दीदी आपको भगवान के घर का रास्ता पता है ? मुझे बता दो मैं खुद जा कर उनको वहां से ले आऊंगा। माँ ने जाने के एक दिन पहले ही मुझे कहा था की मैं अब बड़ा हो गया हूँ और मुझे ही सब का ध्यान रखना होगा "
मैं मौन उसकी बातें सुन रही थी, उससे क्या समझाती कि उसकी माँ सच में कभी नहीं आएगी।
मैने बातों का रुख मोड़ने के लिए उससे पूछा " अरे! देखो इतने देर से हम तुम बातें कर रहे हैं और मैंने तुमसे नाम तो पूछा ही नहीं । क्या नाम है तुम्हारा ?" उसने बोला " वैसे तो नाम है भोलू पर स्कूल जाऊंगा तो सिद्धार्थ नाम रखूँगा। " मैंने पूछा " सिद्धार्थ ही क्यों ?" उसने कहा "माँ कहती थी कि सिद्धार्थ भगवान बुद्ध का नाम है और वो बहुत ही ज्ञानी थे। और मुझे भी उनकी ही तरह खूब ज्ञानी बनना है इसलिए । मेरी माँ मुझे बहुत से अच्छे अच्छे लोगों की कहानियां सुनाती थी " उस भोलू की बात सुनने में मुझे मज़ा आ रहा था। जब तक मैं उससे कुछ और पूछती उसकी नज़र बाहर गई। बारिश रुक गई थी। उसने देखते ही कहा " दीदी बारिश रुक गई , अब मैं जाता हूँ, धन्यवाद सब के लिए " मैं कुछ बोलती उससे पहले वो उठा और भाग खड़ा हुआ। और उसका वो मेमना भी उसके पीछे। मैंने जोर से बोला " भोलू फिर आना " उसने भागते हुए ही कहा " ठीक है " और वो दूर गली में मुड गया ।
मैं ऊपर आ कर फिर से बालकनी में बैठ गई। मेरी सोच में अभी भी भोलू ही घूम रहा था। रात को खाने की मेज पर मैंने पिता जी से उसके बारे में बात की । पूछा की क्या हम कुछ उसके लिए कर सकते हैं। पिता जी ने सोचा और कहा " पहले ये तो पता चले की वो रहता कहाँ है ? किसका बच्चा है ? पता चले हमने कुछ करने का सोचा भी और उसके घर के लोगों ने मदद लेने से इंकार कर दिया। कल मैं पता करवाता हूँ। फिर बात करेंगे। जाओ अब सो जाओ। चिंता मत करो" इतना कहकर पिता जी कमरे में चले गए। मैंने देर रात तक भोलू के बारे में सोचती रही और पता नहीं कब आँख लग गई।
नींद खुली तो दिन चढ़ आया था। आज मैं देर तक गई। आज तो कॉलेज के किये लेट हो जायेगा। तैयार हो भागती भागती कॉलेज पहुंची। परीक्षा सर पर थी तो सब कुछ भूल पढ़ने में लग गई । २-३ दिन बीत गए । भोलू दिमाग से निकल गया था मेरे। तभी शाम में एक दिन घंटी बजी मैंने नीचे जा कर देखा भोलू था। देखते ही मैंने पूछा " कहाँ थे दिखे नहीं इतने दिनों से? और वो तेरा मेमना कहाँ है ? " उसने कहा " घर पर ही था। मैं आपके लिए कुछ लाया हूँ "
मैंने कहा " क्या लाया है, दिखा तो ?"
उसने अपने पीछे हाथों में एक झोला पकड़ा हुआ था उसने वो आगे कर दिया। मैंने उसमे झाँक कर देखा बहुत से अमरुद थे। उसने कहा मेरे बगीचे के हैं । बाबा मेरे अमरूद और सब्ज़ियाँ बेचते हैं। आज हाट जाने से पहले उन्होंने मुझे दिए कहा की दीदी को दे आ। उसने तेरी बहुत मदद की। और लो मैं आ गया तुम्हारे से मिलने। दीदी आप मुझे बहुत अच्छी लगी।
वो अब लगभग रोज आने लगा। कभी मेरे लिए केले, कभी शहतूत तो कभी जंगली जलेबी। उसकी झोली हमेशा भरी रहती। वो और उसके घर वाले ग़रीब जरूर थे, पर थे बड़े दिलवाले। उसके ये छोटे छोटे उपहार मुझे बहुत अच्छे लगते। मैंने उसको कुछ किताबें और कापियां ला दी और रोज उसे पढ़ा देती।
वो अब घर हिस्सा बन गया था। माँ को भी उसका इंतजार रहता। कभी मैं नहीं रहती तो वो ही उसको पढ़ा दिया करती। भोलू पढ़ने में बहुत अच्छा था कुछ भी बहुत जल्दी सीखता था।
कुछ साल बीत गए। भोलू अब बड़ा हो गया था। पिता जी ने उसका दाखिला एक अच्छे स्कूल में करवा दिया था। तब भी रोज मेरे पास आता और अपनी ख़ुशियों की भरी पोटली साथ लाता। जिसमे से रोज नया उपहार निकलता मेरे लिए।
ख़ुशियों के दिन हमेशा नहीं रहते, समय ने करवट लिया और एक दिन अचानक मैं बीमार हो गई। मुझे बहुत तेज बुखार हुआ इतना की मुझे हॉस्पिटल में एडमिट करना पड़ा। बुखार इतना तेज था कि उसने मेरे दिमाग और पूरे शरीर पर बहुत बुरा असर डाला था। काफी दिन अस्पताल में रही। ठीक हुई तो पता चला कि बुखार के कारण सबसे ज्यादा मेरी आँखो पर असर हुआ है। जिससे मेरी आँखें कमजोर हो गई हैं। अब मुझे बहुत धुँधला दिख रहा था। और डॉक्टर कहना था कि धीरे धीरे मेरे आँखों रौशनी चली जाएगी। सारा घर उदास था। मेरे सामने सब सामान्य बने रहते पर अकेले में सिसकने की आवाजें मुझे अक्सर सुनाई देती।
माँ पिताजी सब परेशान थे। इसमें भोलू जब आता ख़ुशी की लहर बन कर आता । वह अब रोज में मेरे पास आता। रोज का अख़बार पढ़ कर सुनाता। कभी कहानियाँ सुनाता। फिर उन कहानियों पर मुझसे चर्चा करता। वो मेरा चलता फिरता रेडिओ बन गया था ।
दिन बीते, फिर साल। धीरे धीरे मुझे पूरी तरह दिखना बंद हो गया। माँ पिताजी ने कितने डॉक्टर से मुझे दिखाया पर कुछ नहीं हुआ।
फिर जिंदगी ने करवट ली और एक दिन अचानक कुछ ऐसा हुआ जिसने मेरी पूरी जिंदगी फिर से बदल दी। अस्पताल से फ़ोन आया कि किसी ने नेत्र दान किया है जल्दी से अस्पताल आ जाइये, ऑपरेशन करना है । माँ पिताजी मुझे जल्दी जल्दी अस्पताल ले गए। मेरा ऑपरेशन हुआ। और मेरी आँखों की रौशनी वापस आ गई। सब बहुत खुश थे। सब ने उस नेत्र दान करने वाले के परिवार को खूब सारी दुआ दी। कुछ दिनों में डॉक्टर ने मुझे घर भेज दिया। हम सब ख़ुशी ख़ुशी घर वापस गए। मेरी जिंदगी का एक अंधेरा अध्याय ख़तम हो गया था।
इतना सब कुछ हो गया और भोलू एक बार भी नहीं आया यही सोच कर कुछ दिन घर पर आराम करने के बाद एक दिन मैंने सोचा, भोलू से मिल आती हूँ। यही सोच कर उसके घर पहुंची। वहां पहुंच कर आवाज़ लगाई भोलू। उसकी दादी माँ बाहर आई और मुझे गले लगा लिया। घर के अंदर ले जा कर मेरी आरती उतरी। मैंने पूछा भोलू कहाँ है ? तब वो मुझे भीतर के कमरे में ले गई वहां भोलू की सुन्दर सी तस्वीर दीवार पर उसकी माँ की तस्वीर के साथ लगी थी, जिसपर माला टंगी थी और तारीख वही लिखी थी जिस दिन मेरा ऑपरेशन हुआ था। मैं वही गिर पड़ी। होश आया तो मैं अस्पताल में थी। मुझे पता करना था कि हुआ क्या था ? डॉक्टर से बहुत मिन्नते की तब उन्होंने बताया। स्कूल से आते हुए भोलू का एक ट्रक से एक्सीडेंट हो गया था। और अस्पताल पहुंचने के कुछ देर बाद वो नहीं रहा। पर जाने से पहले वो डॉक्टर से अपनी आँखें मुझे देने को बोल गया। मैं स्तब्ध सी रह गई। ये क्या किया भगवान आपने ? भोलू ही क्यूँ ? वो छोटे छोटे उपहार देते देते जिंदगी का सबसे बड़ा तोहफ़ा मुझे दे गया जो ख़ुशी नहीं दर्द बनकर सीने में ठहरा है।