दोतरफा एहसास
दोतरफा एहसास
सुबह जब अंशुमान की नींद खुली तो उसने अपने आपको होटल के नरम गद्दे वाले बिस्तर पर लेटे हुए पाया। गद्दे इतने नरम थे कि आँखे खुल जाने के बाद भी उसका कुछ देर तक वहीं पड़े रहने का मन किया। मोबाइल निकालकर समय देखा तो सुबह के साढ़े-सात बज रहे थे। आज नौ बजे उसकी क्लाइंट के साथ मीटिंग थी। सर थोड़ा भारी भारी लग रहा था। फिर भी, उठना तो पड़ेगा ही।
इच्छा के विरुद्ध जाकर भी उसने बिस्तर से उठने की कोशिश की। इसी प्रक्रिया में उसकी नजर जैसे ही ज़रा दाहिनी ओर मुड़ी तो उसने सोफे पर बैठी कविता को वहाँ देखा। वह टकटकी बाँधे उसे ही देखे जा रही थी। उठ तो शायद वह पहले ही गई थी लेकिन अभी तक अपना रात्रि पोषाक उसने न बदला था।
परंतु कविता यहाँ कैसे? अंशु ने जब उस सुसज्जित होटल के कमरे के चारों ओर अपनी नजरें दौड़ाई तब उसे यह कमरा थोड़ा अलग लगा। यह वह कमरा नहीं लग रहा था जिसमें उसने कल शाम को चेक-इन किया था! फिर वह यहाँ कैसे?उसने दिमाग पर जोर डालने की कोशिश की। पर कुछ याद न आया। बल्कि क्षणभर के लिए भूला हुआ सिरदर्द वापस आ गया था!
" गुड मार्निंग, अंशु---
अब जल्दी से उठकर तैयार हो जाओ! नौ बजे की तुम्हारी मीटिंग है न?"
" सच, सच बताओ, कविता, कल रात को क्या हुआ?"
"कल? ज्यादा कुछ नहीं। तुमने मेरे लिए पहली बार काॅकटेल बनाया था! " कविता ने एक फीकी सी मुस्कान के साथ कहा।
" और उसके बाद?" अंशु उसके बाद की घटनाओं को जानने के लिए उतावला हो रहा था।
" उसके बाद?"
" उसके बाद?" एक तेजी से आनेवाली रुलाई को कोशिश के साथ परे ढकेलकर कविता बोली--
" उसके बाद हम दोनों ने कुछ देर तक ड्रिंक किया और फिर तुम सो गए।"
" इस तरह बैठकर बातें करते रहोगे तो आज मिटिंग में तुम समय से पहुँचने से तो रहे।
अब उठो भी!"
अंशुमान अविश्वास भरी नजरों से कविता को देखता हुआ बिस्तर से बाहर निकल आया और कुछ सोचते हुए उसने टाॅयलेट की ओर रुख कर ली। वहाँ अकेले में दिमाग पर जोर डालकर सोचने लगा कि कल रात को इस कमरे में आने के बाद ठीक क्या-क्या हुआ था?
कुछ धुंधला-धुंधला सा उसे याद आने लगा था --पीली नाइट लैम्प, गुलाबी अंतरावस्त्र--- फिर सब खाली!! लगता है, इसबार हैंगओवर कुछ ज्यादा ही हो रहा है।
इधर, अंशु के आँखों से ओझल होते ही कविता बहुत देर तक अपने अवरुद्ध क्रंदन के भार को संभाल न सकी। सोफे के आगे मेज पर सर रखकर निःशब्द आँसू बहाने लगी। निःशब्द इसलिऐए कि कहीं अंशु उसे सुन न लें!
कुछ देर बाद जब अंशु नहाकर बाहर निकला तो देखा कि कविता उसका काला कोट पहनकर आइने के सामने खड़ी तरह-तरह की मुखमुद्रा बनाकर अपने आप पर हँस रही है। उसे देखकर अंशु की भी होंठों पर हँसी खिल गई। कविता की बेफिक्री की ऐसी ही कुछ अदाएं थी जो उसे बहुत भाती थी। उसे काॅलेज के दिनों का स्मरण हो आया।
अंशु ने पीछे से जाकर कविता को बाहों के घेरे में ले लिया और धीरे से कोट उसके कंधों से उतार लिया।
घड़ी में अब साढ़े आठ बज चुके थे। अंशु को मीटिंग में जाने हेतु हड़बड़ाहट महसूस होने लगी।
" नाश्ता करने चलोगी?" उसने कविता से पूछा।
" तुम चले जाओ,अंशु। मुझे तैयार होने में ज़रा समय लगेगा।
फिर दस बजे से पहले मुझे आज ऑफिस नहीं पहुँचना है। इसलिए आज कोई जल्दी नहीं है। फिर, इस वक्त भूख भी नहीं लगी है मुझे।"
" ठीक है, फिर, शाम को मिलते है।" इसके बाद हाथ हिलाकर अंशुमान कमरे से बाहर चला गया।
अंशु के जाने से कविता अब थोड़ी सहज महसूस कर रही थी। अंशु की उपस्थिति से मानो वह जल्दी निजात पाना चाहती थी।
अब एकांत में वह कुछ सोच सकती थी।
कविता कल शाम से हुई अब तक की सारी घटनाओं को याद करने लगी!
कल काॅन्फरेन्स के बाद जब कविता होटल में चेक-इन करने को आई तो उसकी लाॅबी में अचानक अपने काॅलेज के पुराने दोस्त अंशुमान रस्तोगी से टकरा गई। दिल्ली में चाणक्यपुरी के इस पाँच सितारे होटल में जब वह पिछली बार ठहरी थी तो उसे काफी अच्छा लगा था। इसलिए इसबार उसने स्वयं ही ऑफिस को लिखकर इसमें अपने रुकने की व्यवस्था करवायी थी। परंतु उसे क्या मालूम था कि यहाँ आकर यूँ अचानक अंशु से इतने वर्षों बाद मुलाकात हो जाएगी!! अंशु भी काम के सिलसिले में दिल्ली आया था। वह भी उस समय होटल चेक-इन की औपचारिकताओं को पूरी कर रहा था।
यूनिवर्सिटी से निकलने के बाद कोई बारह वर्ष पश्चात् दोनों ने यूँ एक-दूसरे को आमने सामने पाया था। दोनों गले लगकर मिले। फिर काॅफी शाप में दो कप काॅफी लेकर थोड़ी देर तक बैठ गए। यद्यपि फेसबुक के जरिए उन्हें एक दूसरे का हालचाल कुछ-कुछ मालूम था, फिर भी वे एक-दूसरे के बारे में और जानने के कौतुहल को न रोक पाए थे।
डीनर करने के थोड़ी देर बाद अंशु के कमरे से काॅल आया था कि उसके कमरे में शाॅर्ट सर्किट की वजह से आग लग गई है। होटलवालों को जब फोन किया तो उनका कहना था कि शादी के सीजन की वजह से कोई दूसरा कमरा खाली नहीं है। यदि वह चाहे तो चेक आउट करके दूसरे होटल पर जा सकता है। लेकिन इतनी रात को वह कहाँ जाए?
कविता को लगा जैसे वह मजाक कर रहा है। इसलिए उसने भी मजाकिया लहजे से कह दिए--" चाहो तो आज रात के लिए मेरे साथ कमरा शेयर कर सकते हो।"
परंतु जब अंशु सचमुच अपने सारे सामान के साथ उसके कमरे के सामने आकर उपस्थित हुआ तो कविता को अपने कहे हुए शब्दों पर पछतावा हुआ। परंतु अब पीछे हटना मुमकीन न था। एक तो अंशु को रात को ठहरने के लिए कमरा चाहिए था। फिर वह उसी का दोस्त भी था।
फिर भी कविता ने कई बार रिसेप्शन को कल करके अंशुमान की मदद करनी चाही ,परंतु उनसे उसे भी वही जवाब मिला।
अंशुमान काॅलेज के दिनों में बड़ा कैसानोवा टाइप का लड़का था।स्वाभाविक रूप से उसकी गर्ल -फ्रेडों की फेहरिस्त इसलिए काफी लंबी थी। और उसका कोई भी रिश्ता तीन महीने से ज्यादा नहीं चल पाता था। कविता से उसकी केवल दोस्ती थी। इसलिए शायद वह पाँच साल से भी कुछ अधिक दिनों तक टिक गई थी।
कविता की मन की भावनाएँ यद्यपि अंशु से भिन्न थी। क्योंकि वह एक लड़की थी। परंतु फिर भी वह अंशु को दोस्त से भी ज्यादा कुछ समझती थी। लेकिन अपनी मन की भावनाओं को उसने कभी प्रकट न होने दिया था। उसे डर था कि सब कह देने पर कहीं वह भी उन लड़कियों की तरह अंशु को खो न दे।
कविता अंशु के साथ बहुत कम्फर्टेबल महसूस करती थी। शायद अंशु भी ऐसा ही महसूस करता होगा। अंशु में सबसे अच्छी बात यह थी कि उसमें आरोपित कुछ भी नहीं था। वह जैसा महसूस करता था उसके भाव उसके चेहरे पर साफ दिख जाते थे। शायद इसलिए लोग उसे समझ न पाते थे। परंतु कविता उसे ठीक-ठीक समझती थी। कविता अंशु के बिना कहे भी इन भावों को समझ जाया करती थी।
आज पता नहीं कैसे उसकी बातों को मजाक समझने की भूल कर बैठी थी।
अब तक दोनों की शादियाँ हो चुकी थी। दोनों अपनी -अपनी जिन्दगियों में खुश थे। फिर भी जाने क्यों कल विस्तर में घुसते ही अंशु ने उसे अपनी ओर खिंच लिया था। कविता यद्यपि ऐसी लड़की न थी, लेकिन वह अंशु के प्रति शुरु से ही थोड़ी दुर्बल होने के कारण उसे रोका नहीं।
लेकिन, उसके बाद। उसके बाद एक लेकिन की एक बड़ी सी दीवार दोनों के बीच में आकर खड़ी हो गई थी, जिसको कविता न लाँघ पाई।
इसके बाद रात भर वह सो न पाई। उधर अंशुमान के खर्राटे सुनाई दे रहे थे।
"अरे पौने दस बज गए!"
इसके बाद कविता अपनी स्थान से ऊठी और फ्रेश होकर ब्रेकफास्ट करके ऑफिस के लिए निकल गई।
शाम को दफ्तर के सारे काम निपटाकर अंशुमान होटल आकर जब रिसेप्शन से चाबी लेने लगा तो रिसेप्शनिष्ट महिला ने उसे एक लिफाफा थमाया, जो उसी के नाम का था। हस्ताक्षर कविता के थे। देखकर वह ज़रा मुस्कुराया और कविता के बारे में पूछा।
इस पर रिस्पशनिष्ट बोली,
" मैम, तो आपके आने से ज़रा देर पहले ही चेक-आउट करके चली गई। उन्हीं के रिक्वेस्ट पर तो हमने उनका कमरा आज रात के लिए आपके नाम से बुक करा दिया है।"
" इतनी जल्दी चली गई? पर ऐसी तो बात न थी। कल दोपहर की फ्लाइट है न उसकी?" अंशुमान खुद से प्रश्न पूछने लगा।
बहरहाल, अंशु रिसेप्शनिष्ट को धन्यवाद बोलकर जल्दी जल्दी लिफ्ट की ओर चला गया। आज वह शीघ्र ही होटल के कमरे में पहुँचना चाह रहा था।
कमरे में पहुँचकर चाबी से दरवाजा खोलकर उसने सबसे पहले लिफाफा फाड़कर कविता की चिट्ठी पढ़ी।
छोटा सा पत्र था, जिसमें लिखा था,
प्रिय अंशु,
तुम जानना चाहते थे न कि कल रात को हमारे बीच क्या हुआ था? उस समय नहीं बता पाई थी तुम्हें, इसलिए पत्र में लिखना रही हूँ।
कल तुम्हारे बहुत करीब जाकर मुझे तुम्हारी आँखों में अचानक व्याप्त अपराध-बोध की भावना की झलक दिखाई दे गई थी। फिर मैंने तुम्हारे शराब की गिलास में निंद की गोलियाँ मिला दी थी। जिसे पीकर तुम रातभर के लिए बेखबर सो गए थे।
तुम्हें मेरे इस आचरण पर शायद बहुत आश्चर्य हो रहा होगा। वह इसलिए कि तुम नहीं जानते कि हम सिर्फ दोस्त ही नहीं है, उससे बढ़कर भी कुछ हैं। तुम्हें तकलीफ हो ऐसा काम मैं कभी नहीं कर सकती।
मीता जरूर भाग्यशाली होगी तुम जैसा पति पाकर
इसलिए, आजरात के लिए दूसरे होटल में शिफ्ट हो रही हूँ।
तुम्हारी,
कविता।
चिट्ठी पढ़ने के बाद अंशुमान सीधे विस्तर पर जाकर लेट गया। सीलिंग पर नज़र गढ़ाए वह सोचने लगा--
" हमें प्यार एक से नहीं कई लोगों से हो सकता हैं। जब जब हमें जरूरत होती है हम अपने लिए प्रेम का सृजन कर लेते हैं । उसी के अनुसार प्रेम-पात्र भी हमारे बदल जाते हैं। मगर जिसे हम सोलमेट कहते हैं, वह शख्स अकसर एक ही होता है। जिनके साथ दिल का कोई तार जुड़ा हुआ होता है। और इसलिए वह सोलमेट बिना कहे ही सबकुछ समझ जाता है। ऐसा सोलमेट केवल भाग्यशाली लोगों के ही नसीब में मिलता है।"