Harish Sharma

Drama

5.0  

Harish Sharma

Drama

दोस्त और बेंच

दोस्त और बेंच

8 mins
532


गांव के सरकारी स्कूल से लेकर शहर के कॉलेज और फिर यूनिवर्सिटी में पढ़ने तक बहुत कुछ बदलता है। जो कहते है कि आदत नहीं बदलती उन्हें ज़रा अपने पुराने दिनों को याद करते हुए समझना होगा कि आदतों के ढंग बदलते है, वे अल्हड़पन से आगे बढ़कर जवान और प्रौढ़ हुआ करती है। खैर अब बात चली ही है तो मुझे अपने स्कूल के बेंच और उन पर बैठते और उनके लिए झगड़ते दोस्त याद आते है। मुझे लगता है कि अधिकार जमाने की पहली सोच यही से विकसित हुई थी। क्लास रूम में घुसते ही अपने मनपसंद बेंच माने जिस पर आप अपने हमख्याल दोस्त के साथ रोजाना बैठते है, उसके साथ अपना टिफिन, बातें, शरारते और खेल योजनाएं शेयर करते है, बड़ी अहम चीज थी। मुझे याद है कि हम प्राइमरी स्कूल में तीन दोस्त एक बेंच पर बैठा करते थे। तमाम बातें, चाचा चौधरी के किस्से और अपने मुहल्ले के बच्चों को लूडो में हराने के बातें रोचकता से हुआ करती थी हमारे बीच। पराठा, आचार, आमलेट और मठरी की महक हमारे बीच होती, हमारे बस्तों में पड़ा ये खजाना हमें आधे दिन की छुट्टी तक जैसे रोमाँचित रखने का एक हिस्सा रहा। मैंने घरवालों से चोरी छिपे जितने आमलेट अपने दोस्त के टिफिन से उन दिनों खाये उन्हें अब तक नहीं भूला। दोस्त ने मेरे पराठे और खट्टा मीठा नीबूं का अचार उड़ाया, जिसकी माँग वे हमेशा करते थे। इस तरह का आदान प्रदान हमारे संबंध की एक महत्वपूर्ण कड़ी था। लोग कहते है कि आदमी को आपस में इक्कठा रहना नहीं आता। आता है जनाब पर आपकी नीतियां और नए प्रयोग इकठ्ठा रहने दें तब न। आप सोचिये सबसे बुरी बात इस पूरे गठबंधन के लिए क्या होगी?


माँ बाप और स्कूल मैनेजमेंट बच्चों की दोस्ती और आपसी प्यार को कुछ नहीं समझते। ये बात में अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ। मर्यादा, स्कूल और शिक्षा की नीतियां गई तेल लेने अगर वो हमें हमारे दोस्तों और बेंच से अलग करने की कोशिश करती है। ठीक है कि बच्चे शरारती होते है, वे भजन करने से तो रहे। अब आप अपना बचपन तो खूब मस्ती से जी चुके, हमारे समय आपको अनुशासन और न जाने क्या क्या याद आ गया कि आप हमें एक जगह इकट्ठे भी बैठने नहीं देते। हमें वाकई उस दिन बहुत बुरा लगा जिस दिन हम दोस्तों को हमारे प्रिय बेंच से जुदा किया गया। हमें अलग अलग बेंचों पर नए बच्चों के साथ बिठा दिया गया। हमारा प्यारा बेंच जिस पर हमने अपने नाम बड़ी खूबसूरती से रंग बिरंगे स्केच से लिखे थे। पतंग उड़ाते और खेलते अपने कार्टून उस पर बनाये थे। हमारे आम के आचार के तेल के दाग, नीली लाल स्याही के दाग और बेंच के साथ सटी किनारे वाली दीवार पर पड़ा दोस्त किशन के सिर पर लगे तेल का दाग कितना कुछ हमसे छिन गया था। क्या इस बात को कोई शिक्षा विद कभी महसूस कर पायेगा। इन्हें बस विज्ञापन में चिल्लाना आता है 'दाग अच्छे है'। मैं पूछता हूँ कि हमें इन दागों के साथ रहने क्यों नहीं दिया जाता और एक बात, क्लासरूम में लगे पंखों में से एक के बिल्कुल नीचे था हमारा बेंच। कितनी बार सजा मिलने पर इस प्यारे बेंच के ऊपर हम दोस्त इक्कठे खड़े हुए है। उस समय किसी क्रांतिकारी से कम फीलिंग नहीं रही होगी। हाँ कई बार अकेले खड़े होने पर जरूर अजीब लगता था। बड़ी वी वी आई पी सीट छिन गई थी हमसे। उफ्फ, अब भी याद करता हूँ तो दुखी हो जाता हूँ। बहुत मिन्नत की क्लास टीचर की, बहुत सुंदर और प्यारी क्लास टीचर थी हमारी। हमारी दोस्ती की पूरी समझ थी उन्हें, पर वो नया हेडमास्टर, जाने कहाँ से नए नए प्रयोग करता रहता। एक दिन सुबह ही प्रार्थना सभा के दौरान बम फोड़ दिया कि सभी क्लास टीचर अपनी क्लास के बच्चों का कम्फर्ट जॉन तोड़ेंगे। उनके बेंच बदलेंगे, उनके साथ बैठने वाले बच्चों को बदलेंगें और तो और उसने सभी क्लास टीचर को भी एक से दूसरी क्लास में बदल डाला। खैर जो हुआ सो हुआ, पर हमारे साथ बुरा हुआ। हम रिसेस के दौरान एक दूसरे से ऐसे मिलते जैसे कोई जेल से छूटकर मिलता हो। फिर धीरे धीरे बात अपने आप सेट हो गई। बेंच और साथ बैठने वाले बदले जाते रहे, पर दोस्त हम तीनों पक्के रहे।


हाई स्कूल और कॉलेज में स्थिति कुछ अलग रही। टीनेजर हुए तो बेंच पर बैठने के कई किस्से याद आते है। अब लड़का या लड़की के साथ बैठने के अपने नए मायने थे। दोस्ती से ज्यादा ग्रुप की अहमियत भी थी। कालेज के पहले ही दिन बहुतों ने फैसला कर लिया था कि किसे किसके साथ बैठने का जुगाड़ करना है। खूबसूरती, सहमति और आपसी आकर्षण ने बहुत कुछ बदल दिया था इस दौरान। बेंच पर दिल का चित्र बड़ी तफसील से बनाया जाता और फिर उसके अंदर दो नाम जो ज्यादातर एक मेल और एक फीमेल होते, उकेरा जाता। ये काम बड़े चुपके से किया जाता। अक्सर जो प्रेमी जन जहाँ बैठता, उसी बेंच पर अपनी इस हस्तकला का नमूना चेप दिया करता। फिर एक साल के भीतर भीतर पचास फीसदी अधिकार क्षेत्र मतलब कि कौन कहाँ, किस बेंच पर किसके साथ बैठेगा, तय हो जाता। यहाँ तक कि कॉलेज की कैंटीन, पार्क और लाइब्रेरी में पड़े बेंच पर भी हस्तकला के प्रेम भरे नमूने जहाँ तहाँ चित्रित होते। आप कभी कभार जब अपने पुराने कालेज में चक्कर लगाने जाते है तो एक बार जरूर कोशिश करते है, उन चित्रों को खोजने की, जिनमें आपका अल्हड़ समय चुप होता है। अक्सर की बार इन सभी इमारतों की समय, पेंट और नए नामों का नवीनीकरण निगल जाता है। आप समझ ही गए होगें कि आप की तरह कितने नए मानव अपनी सभ्यता की छाप आप ही कि तरह छोड़कर जाने का प्रबन्ध किये होगें। खाली पीरियड के दौरान बेंच के ऊपर बैठे अपने दोस्त के कंधे पर बांह टिकाये हमने कितनी ही बाते की है, दूसरों के मजाक उड़ाकर, ताड़ी मारकर हँसे है। बेंच बड़ी कमाल की चीज है क्लास में इसके नीचे से छात्र कागज की पर्ची से बिना शोर किये कितनी सूचनाएं साझा करते है, ये तो आप जानते ही होंगे। मुझे याद है अपना मित्र विकास और उसकी मित्र अंजना। आज दोनो विवाहित है। क्या आप मानेंगे कि बेंच का बड़ा योगदान रहा दोनो को इस रिश्ते तक लाने में। क्लास में मैं बीच वाले बेंच पर बैठा होता। मेरे दायें बांये वाले बेंच पर विकास और अंजना। दोनो अपरिचित। परिचय हुआ तो बेंच की बदौलत। हुआ ये कि एक दिन विकास भाई को प्यार का बुखार चढ़ा और क्लास लगने से पहले ही क्लास में जाकर सारे बेंचों पर महाशय ने अंजना अंजना चाक से लिख डाला। अंजना आई तो, सभी बेंचों पर अपना नाम देखकर थोड़ा परेशान हो गई। अपनी कॉपी से कागज का टुकड़ा फाड़ कर अपना नाम मिटाने लगी। विकास ने सोचा था लड़की खुश होगी, यहाँ उसे परेशान देखकर वो पसीज गया। इससे पहले कि टीचर आता, विकास महाराज खुद भी सभी बेंचों से अपनी रचना को मिटाने लगे। अंजना को भी पता चल गया कि ये करतूत इन्ही महाशय की है।


"ऐसी हरकत दोबारा न करना, समझे" अंजना ने गुस्से से विकस के पास आकर कहा। वो दो दिन विकास को अनदेखा करती रही। विकास मॉफी माँगने के मंसूबे बनाता रहा। आखिरकार साझा आदमी उनके बीच मैं था, दोनो से बातचीत होती रहती।


विकास ने मुझसे मिन्नत की, 'भाई अब इस तल्खी को तू ही खत्म करवा यार। मैं बहुत परेशान हूँ, मुझसे उसकी नफरत देखी नहीं जाती" मैंने उसे हफ्ता दस दिन ठहर जाने की बात की, इस दौरान वो क्लास का शरीफ बच्चा बन कर रहा। पढ़ाई में वो तेज था ही, दूसरों को नोट्स देकर हेल्प भी करता। मतलब क्लास के बाकी लोगों के बीच वो एक स्याना पठ्ठा था।


हफ्ता गुजर जाने के बाद मैंने उससे एक माफीनामा अंजना के नाम लिखवाया। उससे पहले क्लास और केंटीन में अंजना के सामने उसे हर एंगल से शरीफ लड़का साबित करने की भरपूर कोशिश की। माफीनामा क्लास में विकास के हाथों लेकर बेंच के नीचे से अंजना तक पहुंचाया। उसे इस बात पर राजी किया कि मेरे खातिर एक बार उसे पढ़ लेना फिर जो मन में आये, उसके लिए विकास सुनने को तैयार होगा।


अंतिम फैसले यानी कि माफीनामें पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए कालेज कैंटीन का एक कोना निश्चित किया गया। जहाँ विकास अपनी रोनी सूरत लेकर बैठे। अंजना सामने थी और मैं उन दोनों के बीच बैठकर एक औपचारिक भूमिका निभा रहा था। अपनी संक्षिप्त भूमिका निभाने के बाद मैंने वह से जाना ठीक समझा ताकि वे अपने मन की भड़ास खुल कर एक दूसरे के सामने निकाल सकें। मैं लगभग आधा घण्टा कैंटीन के बाहर पेड़ के नीचे लगे बेंच पर अंजना की दोस्त के साथ बैठा अपनी चाय पीता रहा और सब कुछ सही हो जाने के लिए उसके साथ अच्छी अच्छी बातें करता रहा। फिर देखा कि विकास और अंजना हँसते मुस्कुराते हमारी तरफ आ रहे है। मामला सुखद समाप्ति पर निपट गया था। पांच साल का प्रेम उन्हें विवाह तक ले गया।


मुझे याद है हमारे एक प्रोफेसर ने एक बार उन लड़कों के बारे में जो डेस्क या बेंच पर दिल बनाकर अपनी प्रेमिका का नाम लिखा करते थे, " यहाँ लिखने का मतलब है कि तुम लोग सिर्फ दूसरों की पीठ पर लिख रहे हो, जो वी पढ़ ही नहीं सकता"


उनकी बात सुनकर मैंने भी कभी अपने मेज या बेंच पर लिखना छोड़ दिया था।


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