दिल्ली की वो राहें
दिल्ली की वो राहें
यह बात है निर्भया की जंग खत्म होने के बाद। दिल्ली में नई सुबह हुई, लोग अपने अपने कामों में व्यस्त हों गए। सब कुछ पहले जैसा ही था, बस लोग दिल्ली में नया सवेरा देख रहे थे। एक नई किरण के साथ, और एक नई आशा के साथ कि दिल्ली ऐसा जंग कभी नहीं देखेगा।
कहानी है लक्ष्मी की जो अपने माता-पिता के साथ दिल्ली में रहती थी। दिल्ली का माहौल देखने के बाद लक्ष्मी के माता-पिता उसे कहीं नहीं जाने देते। लक्ष्मी घर में रहकर अपनी मां का हाथ बंटाती और घर के चार दिवारी में ही रहती। लक्ष्मी बाहर की दुनिया देखना चाहती थी, पर उसके पिताजी के डर से वह अपने कदम घर से बाहर नहीं रखती। लक्ष्मी पढ़ लिख कर कुछ बनकर अपने माता-पिता का नाम रोशन करना चाहती थी। उसे अपने देश के लिए नाम कमाना था। इन सभी इच्छाओं को पूरा करने के लिए उसे अपने पिता की अनुमति चाहिए थी। लक्ष्मी के पिता उसके सपनों के आड़े नहीं आना चाहते थे। वह खुद चाहतें थे कि लक्ष्मी पढ़ लिख कुछ बन जाए।
लेकिन दिल्ली की सभी बातों को ध्यान में रखकर वह लक्ष्मी के सपनों के आड़े आ रहे थे। क्योंकि उन्हें लक्ष्मी की बहुत चिंता थी। लक्ष्मी के पिताजी की हालत बहुत गंभीर हों गई थी जब उन्होंने ने निर्भया कांड के बारे में सुना। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे और कैसे अपनी बेटी को बचाए इस दलदल में फंसने से। सारी जनता जब एक होकर आगे आए और उन्होंने ने निर्भया के लिए इंसाफ मांगा।
तब लक्ष्मी के पिताजी को लगा कि वह अकेले नहीं हैं और उन्होंने भी इंसाफ मांगी उस बेटी के लिए। इंसाफ मिलने के बाद यह पहली सुबह थी दिल्ली की और नया सवेरा था लक्ष्मी के जीवन में। लक्ष्मी के पिताजी ने खुद जाकर उसका दाखिला अच्छे महाविद्यालय में कराया। लक्ष्मी ने अपने पिता का आशीर्वाद लिया और चल पड़ी, दिल्ली की उन राहों पर जो उसके लिए बहुत अनजान हैं। उसे नहीं पता था कि वह क्या करेगी ? कैसे शुरुआत करेंगी अपने नए जीवन का। बस आगे बढ़ती गई।
