Moumita Bagchi

Drama

0.6  

Moumita Bagchi

Drama

देवदासी

देवदासी

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यह कहानी कोई सौ साल पुरानी है। बात उस समय की है जब हमारे देश में देवदासी प्रथा प्रचलित थी। हालांकि आज भी कुछ एक जगहों में छुप-छुपकर यह प्रथा चला करती है। लेकिन यह प्रथा अब कानूनी तौर पर अवैध घोषित हो चुकी है। देव=देव+दासी अर्थात देवताओ की दासी, महिलाओं के उस संप्रदाय का नाम है जो मंदिरों में देव-मूर्तियों के आगे देवताओ को रिझाने के लिए नृत्य-गीत प्रस्तुत करते हैं। भरतनाट्यम और ओडिशी दोनों ही शास्त्रीय-नृत्य इसी 'टेम्पल-डांस'( मंदिर में प्रस्तुती जाने वाली नृत्य) की श्रेणी में आते हैं।

आज की कहानी की मुख्य पात्रा अनुसूइया ( अनु) है। उसका जन्म ओडिशा के मयूरभंज जिले के एक छोटे से गाॅव नृसिंहपूर में हुआ था। उसकी माॅ इसी गाॅव की एक सुप्रसिद्ध देवदासी थी। देवदासियों के पिता नहीं हुआ करते इसलिए अनुसूइया के बाप का नाम कोई नहीं जानता था। उसकी माॅ अत्यंत रूपवती होने के साथ-साथ नृत्यकला में निपुण थी। इसलिए उसपर गाॅव के जमींदार की विशेष कृपादृष्टि थी।

परंतु अनु जब दो साल की बच्ची थी तभी एक रात को उसकी माॅ का किसी ने रात के अंधेरे में हत्या कर डाला था। इस घटना को गांव में किसी कारणवश जल्द दबा दिया गया था। अब देवदासियों का कोई परिवार तो होता नहीं जो कोई इसकी छानबिन करता। खैर, तब से मंदिर के पुजारी ओमप्रकाश मिश्रा के घर में अनु का पालन-पोषण हुआ। पुजारी का बेटा वेदप्रकाश उर्फ वेदू उसी का हम उम्र था और दोनों की आपस में खूब बनती थी। वे गाॅव में घूम-घूमकर खेलते थे और इस खेल में उनको किसी दूसरे साथी की जरूरत नहीं थी, वे दोनों ही काफी होते थे। अनु वेदू के पिताजी को उस दिन तक अपना बापा समझती थी जब तक कि वह भी माॅ की तरह देवदासी न बना दी गई।

अनु अपनी माॅ से भी ज्यादा खूबसूरत थी और नृत्यशास्त्र में भी उससे कहीं ज्यादा पारंगत थी। उन्होंने गाॅव के शिवनाथ शास्त्री जी से आठ साल तक तालिम ली थी। रजस्वला होने के कुछ समय बाद से ही उसे अपनी माॅ का देवदासी पद संभालना पड़ा था और गांव नृसिंह मंदिर अब उसका स्थायी आवास बन गया। वह केवल तेरह साल की थी परंतु जब भी मंदिर की मूर्ति के आगे नाचती तो एकदम अपने-आपको भूल जाती और अपने नृत्य में पूरी तरह से तल्लीन हो जाती थी उस समय उसे अपना दर्द भी याद न रह जाता। उसे अपने आगे तब सिर्फ ईश्वर ही नजर आता था और एक दिव्य आभा उसके शरीर से निकलने लगती। ऐसा मालूम होता था कि मानों वह किसी और लोक में पहुंच गई हो! देखने वाला उस समय बिलकुल मंत्रमुग्ध -सा हो जाता था। दूर-दूर के गाॅव से लोग उसका नाच देखने आते थे। मंदिर की उन दिनों अच्छी कमाई हो जाया करती थी।

परंतु रात को नृत्य खतम होने के बाद जब वह बहुत थक जाती थी तो उसके कमरे में उसका भयानक शोषण होता था। कभी पुजारी या नृत्य में संगत करने वाले गायनदार तो कभी मंदिर के ट्रस्टी । और विशेष अवसरों पर जमींदार भी उसके कमरे में रात बिताने के लिए आते थे। सिर्फ रात भर की ही बात थी। सुबह सबकुछ फिर सामान्य जैसा हो जाता था। और किसी को कानोकान कोई खबर न होता था। यही था देवदासियों का जीवन।

इन सब में अगर कुछ अच्छा था तो वह था वेदू का साथ। वेदू ने जब से अनु का नृत्य देखा तब से उसे उससे बेइंतहा इश्क हो गया। दोस्त तो वह पहले से ही था अब उसका दुख बांटने वाला सखा भी हो गया था। उसे हंसाने का ,खुश रखने की वह जब-तब कोशिश किया करता था और कभी-कभी उसे नदी किनारे घूमाने भी ले जाता था। सिर्फ दिन का समय उन दोनों का होता था जब वे बैठकर आपस में ढेरो बाते करते परंतु हर रात को अनु मंदिर की संपत्ति हो जाया करती थी। वेदू पढ़ा-लिखा था। वह अकसर अनु को इन सब से दूर किसी अन्य राज्य में भाग चलने का सलाह देता था। परंतु अनु की हिम्मत न होती थी। वह जानती थी कि जमींदार के प्यादे उसे यमलोक से भी ढूंढ निकालेंगे। अनु को वेदू में अपना सच्चा हित्येषी नजर आता था। वह भी उससे मोहब्बत करती थी। थोड़े से खुशनुमा पल वेदू के साथ बिताकर उसे इतना अच्छा लगता कि रात को उसपर होनेवाली पाशविक अत्याचार को भी वह झेल जाती।

पर कहते हैं न इशक और मुश्क छुपाए न छुपता ? तो इनका इश्क भी समाज के ठेकेदारों से ज्यादा दिन तक न छुप पाया।

पुजारी ओमप्रकाश को सबसे पहले इस बात की भनक लगी। वेदू उसी का बेटा जो ठहरा उसने वेदू का घर से निकालना और अनु से मिलने-जुलने में रोक लगा दी। वेदू को अपनी चिंता न थी। वह अब किसी तरह अनु को इस गांव से निकाल ले जाना चाहता था। उसे इस नरकवास से मुक्ति दिलाना चाहता था। इसके लिए घर बैठे योजना बनाने लगा। बंद कमरे में बैठकर उसे सोचने का काफी अवसर मिल गया था अब। आखिर उसे एक तरकीब सूझी। परंतु समस्या यह थी कि अनु तक यह बात कैसे पहुचाई जाए?।उसने एक चिट्ठी लिखी और खाने के डिब्बे में छुपाकर अपनी छोटी बहन के हाथों अनु के पास भिजवा दिया। चिट्टी में उसने सारी बातें सांकेतिक शब्दों में एक कविता के रूप में लिख दिया था। कब और कहाॅ मिलना था यह सब भी उसमें व्यौरेवार लिखा था। अनु कुछ-कुछ पढ़ना जानती थी। बचपन में वेदू के साथ वह पढ़ी थी। 

अब सबसे कठीन काम था वेदू का घर से निकलना। पर कहते हैं न लोग इश्क के खातिर कोई भी जोखिम उठा लेते हैं। वेदू ने अपनी माॅ को किसी तरह समझा-बुझाकर अपने तरफ कर लिया और पिताजी की धोती में बंधी उसके कमरे की कुंजी को चुराने में वे दोनों सक्षम हो गए। वेदू की मां ने ही अनु का बचपन में परवरिश किया था इसलिए अनु उनकी बेटी समान थी। फिर वह भी एक नारी थी। औरत का दर्द एक औरत ही भली भांति समझ सकती है। फिर क्या था, अपनी माता का चरण स्पर्श कर वेदू घर से भाग निकला । पूर्व निर्धारित स्थान में उसे अनु भी तैयार मिली और दोनों नदी मार्ग से रात के अंधेरे में उस राज्य से निकल जाने में कामयाब हुए। गांव में जबतक लोगों को पता चला दोनों बंगाल राज्य में पहुंच गए थे। 

नए स्थान पर वेदप्रकाश और अनसुइया दोनों ने अपने नाम बदल लिए और शादी कर ली। वेदू को यहाॅ एक मंदिर में पूजा करने का काम मिल गया। अपने खाली समय में वह अड़ोस-पड़ोस की बच्चों को पढ़ाया भी करता था। अनु अब उसका घर संभालती थी। वेदप्रकाश के प्यार और उचित देखभाल से धीरे-धीरे वह अपने अतीत को भूलकर गृहिणी के गौरवपूर्ण जिन्दगी जीने लगी। कुछ दिनों के बाद उन दोनो के घर में एक फूल सी बच्ची ने जन्म लिया। वेदप्रकाश ने अपनी बेटी का बहुत अच्छे से पालन पोषण किया और उसे विधिवत शिक्षा भी दिलाई। इस प्रकार वह अपने प्यार और बेटी दोनों को एक सम्मानपूर्ण जिन्दगी देकर अपने पिता द्वारा किए हुए पाप का कुछ सीमा तक प्रायश्चित्त कर पाया।


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