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Archana Saxena

Inspirational

4  

Archana Saxena

Inspirational

देर आये दुरुस्त आये

देर आये दुरुस्त आये

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जो खुशियाँ मिल जाती अक्सर छोटी छोटी बातों में।

कब मिल पाती हैं वह हमको बड़ी बड़ी सौगातों में।।


इस सच्चाई को समझने में जानकी ने बहुत समय लगा दिया। उसकी जिन्दगी में जो सबसे अहम चीज थी वह थी शिकवे शिकायत। फिर चाहे शिकायत इन्सान से हो या स्वयं भगवान से।

जानकी लगभग पचास वर्ष की आत्मकेंद्रित महिला थी। विवाह उपरांत जो ससुराल मिला वह आम भारतीय ससुराल जैसा ही था, परन्तु जानकी की अपेक्षाओं से परे था। सास के तानों से लेकर काम के बोझ तले दबे रहना सब कुछ था वहाँ। ऐसा नहीं था कि वहाँ प्यार नहीं था, सास के अतिरिक्त घर के अन्य सदस्यों का सम्मान भी प्राप्त था उन्हें और पति का भरपूर प्यार भी परन्तु जिम्मेदारियों के बोझ तले दबी जानकी को अपनी दुर्दशा के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं पड़ता था।

सास परलोक सिधारी तो पारिवारिक निर्णय लेने की जिम्मेदारी भी जानकी के नाजुक कन्धों पर आ पड़ी। यद्यपि पति का पूर्ण समर्थन प्राप्त था उन्हें।

 बच्चे पढ़ लिख कर मनपसंद जीवनसाथी चुन कर बड़े शहरों में बस गये। मनपसंद बहुयें न चुन पाने का मलाल भी जानकी को परेशान करता था। ऐसा भी नहीं था कि बेटों की पसन्द उन्हें नहीं भायी थी वरन कभी कभार वह दिमाग से सोचती तो पाती कि बेटों ने अच्छे जीवनसाथी चुन कर उनका काम आसान कर दिया था। परन्तु वह दिमाग से सोचती ही कभी कभार थीं लिहाजा यही मानती थीं कि उन्हें यह सौभाग्य बेटों ने नहीं दिया। किसी तरह जिन्दगी की गाड़ी घिसट रही थी परन्तु सबसे बड़ा आघात तब लगा जब उनके पति जगन उनका साथ छोड़ गये। किसी एक बेटे के साथ जाकर रहना उनकी मजबूरी बन गया। दोनों बेटे उन्हें साथ रखना चाहते थे । बहुओं को भी कोई आपत्ति नहीं थी। तय हुआ कि पहले वह बड़े बेटे के परिवार के साथ वक्त बितायेंगी। पोते पोती दादी के आने से खुश थे। अक्सर कहानी सुनाने से लेकर होमवर्क करवाने की जिद पकड़ लेते। प्रारंभ में उन्हें भी अच्छा लगा। कभी कभी बहू सब्जी काटने के लिये उन्हें पकड़ा देती। ऑफिस जाते समय कामवाली पर नजर रखना जैसी हिदायतें भी दे जाती। जानकी का आत्मकेंद्रित स्वभाव इसको अन्यथा लेने लगा। उन्हें लगता कि बहू बेटे ने अपने स्वार्थवश अपने बच्चों व घर की देखभाल के लिये वहाँ रखा है। जो बच्चे स्कूल के बाद क्रेच जाते थे वह भी अब स्कूल से सीधे घर आने लगे थे। इसके पीछे बेटा बहू की सोच यद्यपि यह थी कि माँ को सारा दिन अकेले न रहना पड़े और बच्चों को भी संस्कार मिलें परन्तु जानकी की सोच को क्या कहें कि उसे लगा बेटा पैसे बचाने के लिये मेरे ऊपर जिम्मेदारी थोप रहा है।

हद तो उस दिन हुयी जब जानकी ने अपनी बहन को फोन पर यह सब बताया और स्वयं को मजबूर लाचार एवं बच्चों को स्वार्थी सिद्ध किया। अचानक अपनी चाबी से द्वार खोल कर भीतर आयी बहू के कानों में यह सब लावे की तरह पड़ा। एक बार को तो उसका बरस पड़ने का दिल किया पर उसने स्वयं पर काबू रखा। जब अपने पति को इस बारे में सब बताया तो माँ की सोच पर उसे ग्लानि हुयी। दोनो ही माँ को दुख देना नहीं चाहते थे पर माँ की स्वार्थी सोच माँ को ही सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचा रही थी। 

 अगले दिन बेटे ने पास के एक वृद्धाश्रम के मैनेजर से बात की और माँ को मन लगाने के लिये कुछ घंटे वहाँ भेजने की पेशकश की। इसके पीछे उद्देश्य था कि दुनिया में कितने दुख हैं माँ को पता तो चले। कुँये का मेढक जब तक समुन्दर में जायेगा नहीं गहराई मापेगा कैसे? पहले तो मैनेजर ने इन्कार किया पर जब उसे वस्तुस्थिति ज्ञात हुयी तो उसने हाँ कर दी। पहले तो जानकी को लगा कि उसे वृद्धाश्रम भेजने की भूमिका बनाई जा रही है पर जब बेटे ने समझाया तो वह मान गयी। वैसे भी लड़ना उनके स्वभाव में नहीं था वह तो बस खुद को बेचारी मानती थी। बच्चों का क्रेच फिर से प्रारंभ करा दिया गया। होमवर्क की जिम्मेदारी बहू ने फिर से सँभाल ली। जब जानकी ने वृद्धाश्रम जाना प्रारंभ किया और वहाँ के लोगों की आपबीती सुनना शुरू किया उनकी आँखे फटी की फटी रह गयीं। कोई बहू बेटे के मारने पीटने की कहानी कहता था, कोई धोखे से जायदाद हड़प कर यहाँ पहुँचाने की, किसी को पोते पोतियों से बात करने तक की छूट नहीं थी तो कोई दुनिया में ही अकेला था जिसके पास जिन्दा रहने के लिये कोई साधन ही नहीं था। जब जानकी की कहानी पूछी गयी तो उसे बताने में शर्म आयी कि उसके पास सब कुछ था, अगर कुछ नहीं था तो खुश व संतुष्ट रहने की कला। जब उन लोगों ने सुना तो हैरान ही रह गये। उनमें से एक ने कहा "काश बच्चों व परिवार को बदल पाने जैसा कोई नियम होता तो मैं आपके परिवार में सहर्ष जाकर उसे अपना लेती।"

जानकी को भी समझ में आ गया कि जिन छोटी छोटी खुशियों को उसने अनदेखा किया वह दरअसल जिन्दगी की अनमोल सौगातें थीं। बेहिसाब धन संपदा और भौतिक वस्तुओं से भी किसी को सुख और संतोष नहीं मिल सकता जितना इन छोटी छोटी खुशियों में छिपा है। आज उसका मन सचमुच हल्का था और वह स्वयं को सबसे खुशनसीब इन्सान समझ पा रही थी। चलो देर आये दुरुस्त आये।

   

 


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