दायित्वबोध
दायित्वबोध
शहर में अचानक ही किसी झगड़े ने बढ़कर दंगे का रूप ले लिया था। काफी प्रयासो के बाद भी स्कूल से निकले मेंरे दस वर्षीय लड़के का पता न चल पाया। मैं उसे खोजने स्कूल की ओर निकला तभी पत्नी ने टोका “उस ओर जाते हो तो मिसेस वर्मा के बच्चों को भी लेते आना। मि.वर्मा टूर पर गए है। बेचारी मिसेस वर्मा कहां भटकेगी ?”
“ओफ्फो, यहां अपनी जान आफत में है और तुम्हें दूसरों की पड़ी है” मैं खीज उठा।
तभी एक दुबला-पतला युवक मेंरे लड़के को घर लेकर आया। अपने बच्चे को पाकर मैं खुशी से झूम उठा और उसका शुक्रिया अदा करते हुए कहा “अभी यहीं रुक जाओ। स्थिति काबू में आ जाए, तब चले जाना”
“अरे नहीं। तब तक बहुत देर हो जाएगी। अभी और कितने ही मासूमों को मेंरी जरूरत है” उसने जवाब दिया और चल पड़ा।
अपने ऊपर लज्जित मैं बिना एक पल गंवाए मिसेस वर्मा के बच्चों को लेने चल दिया।
