दादी का लाड़ला से माँ का बेटा
दादी का लाड़ला से माँ का बेटा
अब तक तो नमन ने ख़ुद को सम्भाल रखा था। वह जानता था की अगर मिन्नी के सामने उसकी आँखे नम हुई तो मिन्नी भी बहुत रोएगी। मिन्नी की विदाई के बाद जैसे ही गाड़ी आगे बढ़ी, नमन के आँखो से सैलाब उमड़ पड़ा। सभी जानते थे इन भाई-बहन के प्यार को और इनके नोकझोंक को। वैसे दिखाते ज़रूर थे की इन्हें एक दूसरे के होने-ना होने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता लेकिन एक दिन भी दोनो एक दूसरे से अलग नहीं रह पाते थे।
नमन को माँ ने चुप कराने की बहुत कोशिश करी पर सब नाकाम रहा। वह रुक रुक कर भावनाओं में बह ही जा रहा था। नमन को ख़ुद भी समझ नहीं आ रहा था की उसे हुआ क्या है। इन बाइस सालों में वह कभी नहीं रोया है। रोना तो दूर कभी आँखे गीली भी नहीं हुई हैं। ना ही गहरे से गहरे चोट के लगने पर या फिर परीक्षा में पेपर गड़बड़ होने पर। नमन को तो दादी ने ये बोल कर बड़ा किया है की रोने धोने का काम लड़कियों का है और मारने पिटने का काम लड़कों का है। नमन ने भी दादी की इस बात को बहुत ही शिद्दत से माना है।फिर आज क्यों वह कमज़ोर हो रहा है।
जब घंटों बीत जाने पर भी नमन नहीं थम रहा था तो दादी ने फिर अपनी पूरानी सीख सुनानी शुरू करी। तभी उन्हें बीच में रोकते हुए नमन की माँ ने कहा, "माँजी हल्का हो लेने दें उसे। बरसों का ग़ुबार जमा है, सब निकल जाने दें आँसुओं के साथ। बहुत बोझ और ढेरों दर्द सीने में दबे पड़े है जो इसे मजबूर और दृढ़ नहीं कमज़ोर किए जा रहे है। लड़का है तो क्या हुआ, है तो हाड़ माँस का शरीर ही, जिसमें एक नाज़ुक, कोमल हृदय भी है। जिसमें भावनाओं का समुन्दर है जो कभी हँसी, कभी क्रोध , कभी प्यार, कभी रोष तो कभी आँसुओं के रूप में निकलता है। अब नमन के पापा को ही ले लें अपनी भावनाओं को, तकलीफ़ों को दबा दबा कर आज अवसाद से त्रस्त हैं। कितनी दवाइयाँ ले रहें हैं और कितने चिकित्सकों के चक्कर लगा रहें है। अपनी उम्र से दस साल बड़े दिखते है। मेरे बेटे के साथ मैं नहीं चाहती ऐसा कुछ हो। मैं उसे एक सम्पूर्ण और संवेदनापूर्ण इंसान बनता देखना चाहती हूँ।"
दादी चुप हो अपनी बहु की बात सुन रही थी। शायद या शायद नहीं, पता नहीं उन्हें कुछ समझ आ रहा था या नहीं लेकिन ये तो अच्छे से समझ आ रहा था की नमन की माँ नमन पर दादी के लड़के वाले लाड़ और सोंच को अब चलने नहीं देंगी।