Saroj Verma

Fantasy

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चन्द्र-प्रभा--भाग(१०)

चन्द्र-प्रभा--भाग(१०)

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भालचन्द्र, शेषनाग और शेषरानी सहित मंदिर के बाहर आया, सब शेषनाग और शेषरानी को देखकर आश्चर्यचकित और प्रसन्न भी थे, सबने शेषरानी, शेषनाग को प्रणाम किया।

     तभी विभूतिनाथ जी बोले, अब हमें और भी सावधानी बरतनी होगी क्योंकि अम्बालिका को ज्ञात हो गया कि हमारे साथ शेषनाग जी है तो वो अवश्य हमारे मार्ग मे विघ्न डालने का प्रयास करेंगी और जब तक हम अपने गन्तव्य तक ना पहुँच जाएं, तब तक हमें अपने पग फूँक फूँककर रखनें होंगे।

     आप बिल्कुल सही कह रहें हैं, शेषनाग बोले।

  आपकी ये समस्या हम वेष बदल कर हल कर देते हैं, शेषरानी बोली।

शेषनाग और शेषरानी ने सैनिकों का रूपधारण कर लिया, तब शेषनाग जी बोले मैं अभी आया, शेषनाग ने मंदिर के निकट एक बरगद के बड़े से वृक्ष के निकट जाकर हाथ जोड़कर प्रार्थना की, प्रार्थना करने के उपरांत सबने देखा कि बहुत से सर्प उस वृक्ष की जड़ो से बाहर आ रहें और बाहर आकर सब मनुष्य रूप में परिवर्तित हो गए, वे सब इच्छाधारी सर्प थे, उन सबने शेषनाग जी को प्रणाम किया और उन्हें बाहर बुलाने का कारण पूछा।

     शेषनाग जी बोले, मुझे आप लोगों की सहायता की आवश्यकता है, मेरे पुराने मित्र हैं, उनके प्राण संकट में हैं।

   उनमें से एक ने कहा, जी नागदेवता हम सब आपकी सहायता हेतु तत्पर है।

जी, मुझे आप सबसे यही आशा थी, महाराज अपारशक्ति ने एक बार मुझे कठिनाइयों से उबारा था, अब मेरा भी कर्तव्य बनता है कि मैं भी उनके लिए कुछ करूँ, उनके परिवार को संकट से उबारूँ, मुझे पहले ज्ञात होता कि वें संकट में तो मैं पहले उनकी सहायता करने का प्रयत्न करता, शेषनाग जी बोले।

     अब भालचन्द्र की शंकाएँ कुछ कम होती तो प्रतीत हो रहीं थीं, परन्तु उसका भय अब भी दूर नहीं हुआ था और उसका मुख देखकर सहस्त्रबाहु बोला___

      आपके मस्तिष्क में कैसे विचार आ रहें हैं मित्र!!

  यही कि हम सब अब भी सूर्यप्रभा को स्वतन्त्र करा पाएंगे या नहीं, अम्बालिका के षड्यंत्र को कोई नहीं जानता कि अब आगे वो क्या करने वाली हैं, ऊपर से सूर्यप्रभा मैना के रूप में हैं तो वो और भी असहाय होगी, ना जाने कैसी होगी वो और अम्बालिका ना जाने कैसा व्यवहार कर रही होगी उसके साथ, भालचन्द्र बोला।

      कृपया कर आप ऐसे विचार ना लाएं अपने मन में, इससे आपको और भी कष्ट होगा, सहस्त्रबाहु बोला।

   परन्तु क्या करूं मित्र? प्रेम में विवश हो जाता हूं, मैं भी सोचता हूं कि नकारात्मक वस्तुओं से दूर रहूं, परन्तु मन है कि वहीं जा टिकता है, भालचन्द्र बोला।

  वो तो ठीक है मित्र! परन्तु चंचल मन को समझाना भी आवश्यक है नहीं तो जो आपका ध्येय है उसमें बांधा पड़ सकती है, सहस्त्रबाहु बोला।

   तुम सत्य कह रहे हो मित्र! मन को समझाना ही पड़ेगा, भालचन्द्र बोला।‌

   सोनमयी ने नागरानी के चरण स्पर्श किए और बोली__

मां! आपको देखकर तो मुझे विश्वास नहीं हो रहा, मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि अब भी मैं कोई स्वप्न देख रहीं हूं।

   तभी सहस्त्रबाहु बोला__

हां, नाग माता! किसी किसी को आंखें खुली रखकर स्वप्न देखने की आदत होती है और ऐसे लोगों का मानसिक संतुलन बस समझो कि खो ही चुका होता है।

   ए, तुम अपना कार्य करो, मेरी बातों में ध्यान देने की कोई आवश्यकता नहीं है और ना ही मुझे तुम जैसे नासमझ लोगों की आवश्यकता है, सोनमयी बोली। Is

    अरे, तुम लोग फिर उलझ पड़े, भालचन्द्र बोला।

मैं नहीं मित्र! ये उलझ रहीं हैं मुझसे, सहस्त्रबाहु बोला।

 तभी नागरानी बोली__

पुत्री! क्या नाम है तुम्हारा?

जी, माता! मेरा नाम सोनमयी, सोनमयी बोली।

सोनमयी, ये नाम तो सुना सुना सा लग रहा है, नागरानी बोली।

  जी, किसी और का नाम भी तो सोनमयी हो सकता है ना नागमाता, ये क्या एक अनोखी युवती है जिसका नाम सोनमयी है, सहस्त्रबाहु बोला।

    ए.. तुम अपना कार्य करो ना, यहां महिलाओं के मध्य क्या कर रहे हो, सोनमयी बोली।‌

 तभी नागमाता बोली__

 मुझे याद आया, मेरी एक भक्त थी, जिसका नाम निर्जरा था, वो किसी राजा की पुत्री थी और एक बार वो वनविहार करने गई और एक लकड़हारे पर मोहित हो गई, वो अब प्रतिदिन उस लकड़हारे से मिलने जाने लगी, उसे उससे प्रेम हो गया , वो उस लकड़हारे से विवाह करना चाहती थी लेकिन उसके पिता, इस विवाह के विरुद्ध थे और निर्जरा ने अपने पिता के विरुद्ध जाकर प्रेम-विवाह कर लिया।

     विवाह के उपरान्त भी वो मेरे दर्शन करने आती रही, उसकी गोद में एक छोटी पुत्री भी कुछ दिनों बाद आ गई और वो अपनी पुत्री और पति के साथ मेरे दर्शन करने आती थी, उसकी बेटी का नाम सोनमयी था, कहीं तुम वही तो नहीं।

   मेरी मां का नाम तो बाबा ही बता सकते हैं क्योंकि उन्होंने ही मुझे पाल-पोस कर बड़ा किया है, मेरी मां मुझे उनकी गोद में सौंपकर चल बसीं थीं, सोनमयी बोली।

   अच्छा! चलो, तुम्हारे बाबा से पूछते हैं, हो सकता है कि उन्हें तुम्हारी मां का नाम ज्ञात हो, नागरानी बोली।

   जी चलिए, सोनमयी बोली।

विभूति नाथ जी से नागदेवी ने जब पूछा तो उन्हें ज्ञात हुआ कि सोनमयी उसी निर्जरा की पुत्री है और निर्जरा के पति की हत्या, अम्बालिका ने ही की थीं और हत्या निर्जरा के पिता के कहने पर हुई थीं, वो नहीं चाहते थे कि उनकी बेटी किसी लकड़हारे के साथ अपना जीवन व्यतीत करें, मृत्यु के पूर्व निर्जरा ने ये सब विभूतिनाथ जी से कहा।

   सोनमयी बोली कि इसका तात्पर्य है कि अम्बालिका मेरी भी शत्रु है।

      और ऐसे ही पूरा दिन व्यतीत हो गया लेकिन शीशमहल अभी भी बहुत दूर था अब रात्रि भी होने वाली थी, अब विश्राम के लिए एक उचित स्थान चाहिए था जहां जल की भी व्यवस्था हो और ऐसा एक स्थान भी मिल गया, सैनिकों ने मिलकर भोजन का प्रबंध किया और भोजन करके सब विश्राम करने लगे।

     आज भालचन्द्र बोला कि मैं पहरा दूंगा और आप लोग विश्राम कीजिए।

    रात्रि का दूसरा पहर व्यतीत हो चुका था, भालचन्द्र को कुछ स्वर सुनाई दिया, उसने देखा कि ना जाने कहां से असंख्य नेवले उस स्थान पर आ पहुंचे हैं और सूंघते हुए वो सैनिक बने सभी इच्छाधारी सर्पों के निकट पहुंच कर उन्हें हानि पहुंचाना चाहते हैं, नेवलों को देखकर सभी सैनिक पुनः सर्पो में परिवर्तित हो गए।

       अब तो उस स्थान की स्थिति देखते ही बनती थी, एक एक सर्प, एक एक नेवले के साथ सूझ रहा था, जहां तहां धरती पर लड़ाई के चिन्ह अंकित हो रहें थे, बहुत भयावह दृश्य था, अन्तत: भालचन्द्र ने सोचा कुछ उपाय करना पड़ेगा नहीं तो इच्छाधारी सर्प तो जीवित बचने वाले नहीं हैं और वो विचार करने लगा___

   परन्तु उसे कोई भी उपाय नहीं सूझ रहा था, उसने सहस्त्रबाहु से भी कहा कि कुछ युक्ति लगाओ, परन्तु सहस्त्रबाहु भी कुछ विचार ना कर पाया।

     अन्त में विभूतिनाथ जी ने अपने चारों ओर एक गोल घेरा बनाया, उसमें अग्नि प्रज्वलित की, इसके उपरांत उस घेरे में बैठकर कुछ मंत्रों का जाप करने कुछ क्षण जाप करने के उपरांत उन्होंने अपने निकट रखें हुए कलश में अग्नि वाले स्थान की राख छिटकी और कहा कि ये जल उन सारे नेवलों पर छिड़क दो, भालचन्द्र ने ऐसा ही किया और एक एक करके सारे नेवले उस कलश के जल से भस्म होते गए।

     विभूति नाथ जी बोले, ये कुछ और नहीं अम्बालिका का जादू था, मैंने पहले ही कहा था कि हमें सावधान रहना होगा।

क्रमश:__


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