चले जा पथिक
चले जा पथिक
'नमस्ते गुरूजी।' विभिन्न चालों से चले जा रहे दोपहियों और पैदल यात्रियों के उस सघन झुण्ड के बीच से किसी ने अपनी मधुर आवाज से उन्हें पुकारा। पुकारा क्या अभिवादन किया। अभिवादन तो स्वंय एक सुखद अनुभूति है पर ये क्या, इस अप्रत्याशित विनम्र शब्द ने तो उन्हें आश्चर्य में डाल दिया और वे एक दिवास्वप्न के अथाह समुद्र से, एक ही झटके में बाहर आ गए। लगा जैसे कुछ क्षण पूर्व वे किसी दफ्तर में रोजगार पाने वालों के समूह में थे, जहाँ अचानक नो वैकेंसी का बोर्ड लगा दिया गया। कोई नमस्ते कहकर हवाई किलों की दीवारों को गिरा गया। दाँये बाँये कुछ न दिखा तो कन्धे पर झोले को ऊपर सरकाते हुए, मन पुनः विचारों के जलाशय में उतर गया, जिसमें आनंद एवम् चुभन की मिश्रित हिलोरें उन्हें ऊपर नीचे ले जा रही थीं।
घर से निकलते समय पत्नी की कही बातें, बार बार उनके मस्तिष्क में दस्तक दे रही थीं। "क्यों जी, आज तो आपको तनख्वाह मिलेगी न ? दोनों छोटे बच्चों को कुछ कपड़े लेते आना।" और पूरी बात कहे बिना ही चुप हो गई, जैसे कहकर कोई अपराध कर दिया हो। गुरु जी को अपनी कही भी याद आ रही थी, "क्या बताऊँ अमला ! कुल नौ सौ तो रुपये मिलते हैं, इस माह पाँच सौ वर्मा जी को भी देने हैं। घर की अन्य वस्तुएं तो हैं ही।" स्वयं भी, पत्नी की तरह बात पूरी कहे बिना थम गए। निर्बल व सहमे स्वर में अमला ने सांत्वना दी। "जैसा आप समझें, कर लेना, बच्चों को मैं समझा दूँगी।" पानी का गिलास पति को देकर, वह बरामदे के कौने में जा सुबकने लगी। असहाय। चाहते हुए भी पति की मदद नहीं कर पा रही थी।
भीड़ की चहल पहल से उनके दिवास्वप्न का जुगाड़ फिर से कबाड़ में बदल गया। दिखने में तो उनके चेहरे पर बिल्कुल शांत व स्वच्छ भाव थे पर अंतर्मन की व्यथा स्वयं ही जान पा रहे थे। सामने कपडों की दुकान देख पैर खुदवखुद उधर कूदने लगे। मन और शरीर की क्रियाओं का विरोधाभास स्पष्ट दिखाई पड़ रहा था। उन्माद एवं अवसाद दोनों किनारों पर रख, गुरूजी बीच धार का सामना कर रहे थे। उन्होंने झोले को दाँये से बाँये कंधे पर स्थानांतरित किया। हाथ जेब के पास अनायास पहुँच गया और उसे टटोलने लगा। शीघ्र ही, उँगलियों ने उसमें मौजूद मुद्रा की थाह पा ली। अभी कुछ रुपये थे लेकिन सवाल था, पचास चालीस तो घर खर्च के लिए और कुछ असमय काम आने को रखने चाहिए। बच्चों के लत्तों- कपडों का खाली स्थान भरने का कोई विकल्प नहीं दिखा।
यही सोचते विचारते दुकान आ गई। "आओ रामधन" कहकर दुकानदार ने बगल वाली दुकान में घुसने से पहले ही उन्हें लपक लिया। अब रामधन एक खरीदार की मुद्रा में आस
नित थे। अपने आप से यूँ बात करने लगे। "एक के लिए पायजामा और दूसरे को बुशर्ट का कपड़ा ले लेता हूँ। इस वक्त काम चल जाये तो फिर दिला दूँगा।"
समय जाया किये बिना उन्होंने कपडों के बंडलों पर नजर डाली और उँगली से इंकित किया, "ये निकलवाओ, सेठ !" कहने की देर थी, उस किस्म के तमाम रंगों के कपड़े अलपेट कर दिए, उस छोकरे ने। दो मिनट में ही दो टुकड़े अपने मूल थान से अलग कर दिए गए। बजाज ने दोनों को अखबार में लपेट गुरूजी की तरफ खिसका दिया।"साढ़े सत्रह रुपये हुए" चोंक से गए पल भर के लिए रामधन, पर अप्रश्न बने रहे और कुर्ते की जेब से निकाल बीस रूपये बढ़ा दिए। तीन रुपये ले, शीघ्रता से दुकान से निकले जैसे गलती से बनिया और कुछ लेने के लालच में न फँसा दे। बाजार की व्यस्ततम गली ने ज्यादा नहीं सोचने दिया और बस अड्डे पर आ गए। वहाँ से चार किमी. था उनका गाँव। बस चलने का समय पहले ही हो चुका था अतः भरी हुई थी। "खड़े होकर जाना पड़ेगा। " स्कूल अध्यापक होने होने से, काफी लोग पहचानते थे उन्हें। "आप यहाँ एडजस्ट हो जाओ, गुरूजी !" सीट मिलने से उन्हें शारीरिक सुविधा मिली और पुनः विचारक्रांति में कूद पड़े। निरर्थक और अनवरत।
पिछले महीने, जब वे सामान ले घर पहुँचे तो अमला झोले से बड़ी उत्सुकता से निकालने लगी। लगभग सब जरूरतमन्द सामान थे। फिर भी बड़े लड़के ने कह दिया, "मेरे पास गणित की किताब..... अब भी ना लाये !" अपनी बात कहते हुए सिसकने लगा। रानी बिटिया कब चूकती, "मुझपे तो न पैन न पेंसिल, काहे से लिखूँ।" छोटा वाला खुश था, वह खड़िया को सलेट के कोने में ऐंठते हुए रगड़ता जा रहा था, जैसे उसे अति शीघ्र खत्म करने को कहा गया हो। अमला हमेशा की तरह पुचकारती हुई बोली, "सब हो जायेगा बिट्टो, तेरे पिताजी कैसे भी इंतजाम कर देंगे।" बच्चे बहलाने के साथ ही, वह अपने कहे का अर्थ भी पूर्ण रूप से समझती थी। जानती थी वह, बीच में कुछ नहीं, जो भी होगा अगले महीने होगा। और वह पिछले महीने की बची वस्तुएं तो ले ही आये। पर अब रामधन आज के बारे में सोचने लगे, जो बेटा पिछली बार खुश था उसके लिए केवल पायजामा लाये थे, बुशर्ट नहीं। वह कभी कभी गुस्से में बक देता था,
"मुझे तो अपना बेटा ही नहीं समझते आप लोग।" "नहीं बेटा, ऐसे नहीं कहते !"केवल इतना ही कह पाती थी अमला। गुरूजी सोचते ही जा रहे थे कि यकायक बस रुकी। "अरे, अपना गाँव आ गया।" और रामधन दोनों बड़े झोलों को लेकर बस से बाहर आ गये। दोनों झोले कन्धों पर व्यवस्थित कर, गुरूजी ने गाँव की पगडंडी पकड़ी और "चले जा पथिक" गुनगुनाते हुए विचार-सागर में डुबकियाँ लगाने लगे।