चीरहरण
चीरहरण
धनसुखी देवी ने अपने बेटे का विवाह खूब दान-दहेज लेकर धूमधाम से किया। आज के रिसेप्शन भोज में एक बड़ा सा बेग उसके हाथ में था जो उनके नाम के अनुरूप धनसुख में वृद्धि होने के कारण भरता जा रहा था। देने वाले उसे घेरकर खड़े थे। पति महोदय सीधे - साधे थे अतः वे उसके पास खड़े खींसे निपोर रहे थे।
धनसुखी की एक सखी भीड़ छंटने के इंतज़ार में एक ओर खड़ी थी ताकि बथाई के साथ वह भी सगुन का लिफाफा दे सके। अचानक धनसुखी की नज़र उस पर पड़ी तो--
" अरे ! द्रोपदी तुम, इतनी दूर क्यों खड़ी हो , आओ.. आओ.. पर मैं कहे देती हूं पांच सौ से ज्यादा किसी से भी नहीं लिया है तो तुमसे भी नहीं लूंगी।"
" अरे नहीं धनसुखी, बस सगुनरूपी है। " ये कहते हुए उसने अपना लिफाफा उसे थमा दिया। जिसे धनसुखी ने सबके सामने खोल डाला और जल्दी से उसमें रखा सौ का नोट निकाल कर सबके सामने लहरा दिया और बोली--
" हां हां सौ तो चलेंगे पर मैं पांच सौ से ज्यादा तो हरगिज़ नहीं लेती।"
वह द्रोपदी, महाभारत की द्रोपदी तो नहीं थी पर वह निर्वस्त्र हो गई उसका चीरहरण हो गया था।
