विचार और कर्म
विचार और कर्म
वह सभी को उपदेश दिया करती थी--
" घर-परिवार के बड़े-बुजुर्गों, दीन-दुखियों, असहायों में ईश्वर स्वयं निवास करता है। उनकी सेवा ही ईश्वर की पूजा है। पता नहीं लोग कैसे अपने असहाय बुजुर्गों को छोड़कर घंटों सेवा-पूजा में लगे रहते हैं, उपदेश सुनने जाते हैं, जरा भी नहीं सोचते कि भगवान से ज्यादा बुजुर्गों को सेवा की जरूरत है। उनकी सेवा और देखभाल से जो आशीर्वाद मिलता है, वह अवश्य फलीभूत होता है।"
" वाह बहना ! कितने अच्छे विचार हैं आपके, आपका घर तो अवश्य स्वर्ग होगा।" सुनने वाली ने कहा।
" हां, सो तो है ही। "
एक दिन मंदिर में पूजा करते वक्त उसने अपनी पड़ोसन के लिए दूसरी औरतों से कहा--
" घर में तो इसकी सास असहाय सी गंदगी में पड़ी भूख से बिलबिलाती है मगर यह ठाकुर जी की सेवा में घंटों बिता देती है। मुझे तो दया आती है, इसकी सास पर।"
कुछ समय बाद उपदेशक महिला-- ठाकुर जी का मंदिर साफ करती रहती, उधर उसकी सास गंदगी में गंदी सीलन भरी कोठड़ी में पड़ी रहती।
इधर वो ठाकुर जी को नहला कर नये वस्त्र पहनाया करती उधर उसकी सास गंदे फटे चीथड़ों में लिपटी पड़ी रहती।
इधर वो ठाकुर जी को नये- नये व्यंजनों का भोग लगाती उधर उसकी सास भूख से बिलबिलाती रहती ।
उसका युवा बेटा यह सब देखते-देखते उकता गय। कहने लगा--
" माँ, आपके विचार तो बहुत अच्छे हैं मगर आपके कार्य .....प्लीज माँ, अपनी आने वाली बहू के सामने ऐसा हरगिज़ मत करना, वर्ना दादी जैसी आपकी हालत मुझसे देखी नहीं जाएगी।"
