छवि...
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इतवार का दिन__
मैं तो बोर हो गई हूं, रोज रोज अपने हाथों का खाना खाकर, रोज खुद ही थाली लगाओ, फिर नसीब होता है कहीं जा कर खाना, काश फिर से छोटी हो कर अपने बचपने में पहुंच जाऊं और मां के हाथों से बना खाना खाऊं, रागिनी मन ही मन बड़बड़ाई।
जैसे तैसे रागिनी ने मन मारकर खुद के लिए थाली लगाई और किचन से बाहर आ ही रही थी कि पैर के नीचे कुछ आया, रागिनी गिरते गिरते बचीं लेकिन थाली हाथों से छूटकर नीचे जा गिरी।
थाली गिरने की आवाज़ सुनकर, रागिनी के पति मनीष और बेटी श्रेया बाहर आए और पूछा कि क्या हुआ?
देखा तो फर्श पर खाना बिखरा पड़ा था और रागिनी चिढ़ी हुई सी खड़ी थी।
रागिनी ने फर्श पर से बिखरा हुआ खाना समेटा और पार्क में गिलहरियों के खाने के लिए रख आई।
और आकर अपने कमरे में आराम करने लगी उसका बहुत मूड खराब हो चुका था, अब उसका ना अपने लिए और रोटियां बनाने का इरादा था और ना ही खाना खाने का।
उसकी आंखें भर आईं, मन में सोचने लगी, काश, मां होती तो मुझे कभी भी भूखा नहीं रहने देती।
और यही सोचते सोचते उसकी आंख लग गई।
थोड़ी देर बाद मनीष और श्रेया ने आकर रागिनी को जगाया,
रागिनी ने देखा कि उसके लिए दोनों खाना लेकर आए हैं, गरमागरम जीरा आलू, परांठे और दही के साथ जो उसे बहुत पसंद है।
श्रेया बोली, मां ! पापा ने जीरा आलू बनाया है और मैंने परांठे, क्या करूं मेरे बोर्ड एग्जाम है वो भी बारहवीं के तो ना आपको समय दे पाती हूं और ना रसोई को लेकिन जैसे भी परांठे है कच्चे पक्के आप खा लो मेरे हाथों के बने, समझ लेना नानी ने बनाएं हैं__
मनीष और श्रेया का प्यार देखकर रागिनी की आंखें भर आईं, आज उसे श्रेया में अपनी मां की छवि दिख रही थीं।