mona kapoor

Inspirational

5.0  

mona kapoor

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छोटी सोच

छोटी सोच

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हेलो ! प्रिया बेटा, क्या कर रही हो ?

“कुछ नही माँ, मम्मी जी की दवाइयां लेने बाहर आई हूं वो कल रात से उनकी तबियत फिर खराब है इसीलिए...अच्छा माँ, मैं आपसे घर जाकर बात करती हूं, ज़रा केमिस्ट से दवाइयां समझ लूं।”कहते हुए अपनी माँ रमा जी का फोन झट से काट दिया।

“अरे ! देखो तो ज़रा इस लड़की को जब से शादी हुई है, अपने ससुराल वालों की ही होकर रह गई है, अपनी सास की फिक्र है लेकिन माँ को चार चार दिन तक फोन करके नहीं पूछना कि ज़िंदा है या मर गई। जब फोन करूँ, मैं करूँ..सही कहते हैं लोग बेटा हो या बेटी कोई नहीं पूछता..और जब यह नहीं पूछती तो इसका भाई हमे क्या ख़ाक पूछेगा।” रमा जी गुस्से में तिलमिलाते हुए बड़बड़ाये ही जा रही थी।

शांति रखो जी..शांति रखो..ऐसा नहीं कहते। प्रवीन जी अपनी धर्मपत्नी को शांत कराते हुए बोले।

आप तो चुप ही रहो, हमेशा मुझे शांत करवाया करो, अपने बच्चों को मत समझाना, रमा जी अपने चढ़ते हुए पारे के साथ बोली।

“देखो रमा, बिटिया का अभी अभी घर बसा है, तुम्हे तो खुश होना चाहिए कि वो अपने नए घर में एडजस्ट कर रही है, तुम्हें शिकायत का कोई मौका नहीं दे रही, लेकिन तुम तो समझने की बजाय बात को और बढ़ाती ही जाती हो।”

देखिये जी, मैं कोई बात नहीं बढ़ाती बल्कि जायज बात कर रही हूं। जब से शादी हुई हैं तब से मेरी प्रिया, अकेली बहू होने के कारण उस घर की नौकरानी ही बन गयी हैं, उसकी सास को इतना तो चाहिए कि अपना ध्यान रखें ताकि कुछ काम में हाथ बटा सके लेकिन ना जी, बस बिस्तर पर पड़े पड़े रोटियां चाहिए। कितना थक जाती होगी मेरी बच्ची, बस बताती नहीं है। अभी उसे फोन करके किसी बहाने से कुछ दिनों के लिए बुला लेती हूं..अपने आप उसके ससुराल वाले संभालेगे अपना घर..रखेंगे कोई हाथ बंटाने के लिए मेड..कम से कम मेरी बच्ची को आराम तो मिलेगा। कहते हुए रमा जी फिर से प्रिया से बात करने के लिए फोन उठाया ही था कि प्रवीन जी बोले।

अरे ! हमारी प्रिया बेटी कोई नौकरानी नहीं है, बल्कि यह सबसे एक दिन वो वहां की महारानी जरूर बन जाएगी और बुरा ना मानो तो एक बात पूछनी थी कि “जब कल को तुम अपने साहबजादे की शादी करोगी और भगवान न करें तुम्हें कुछ हो जाए क्या तब तुम अपनी सेवा करवाने की उम्मीद अपनी बहू से नहीं करोगी क्या।”

“अजी, आप चुप ही रहिये, मैं अपने शरीर का खुद से इतने अच्छे से ध्यान रखती हूं और आगे भी करती रहूंगी, मुझे नहीं बनना किसी का मोहताज।”

अपनी पत्नी की बचकानी बातें सुनकर प्रवीन जी को गुस्सा तो आ रहा था लेकिन वक्त की नज़ाकत को समझते हुए अपनी पत्नी रमा को प्यार से समझाते हुए बोले कि “देखो, रमा मोहताज तो वक़्त बना देता है तुम्हारे और मेरे सोच से परे हैं वक़्त की मार क्योंकि मोहताज तो कोई किसी का नहीं होना चाहता लेकिन हमारे जीवन के सभी चरणों में सबसे दुःखमयी होता है यह बुढ़ापा। कहते हैं ना कि बच्चा और बूढ़ा एक सामान होते हैं और इन्हीं दोनों को सबसे ज्यादा प्यार और देखरेख की आवश्यकता होती हैं इसीलिए तुम्हें यही समझाऊँगा कि वक़्त की नज़ाकत को समझते हुए बात का बतंगड़ मत बनाओ बल्कि अपनी बेटी की पीठ को थपथपाओ क्योंकि वो दौ घरों का मान बढ़ा रही है।”

प्रवीन जी की बातें सुनकर रमा जी की आंखें शर्म से झुक गयी व जुबान बंद हो गई क्योंकि अब शायद व्यग्यं करने के लिए कुछ शेष न था।


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