छोटी सी ख्वाहिश
छोटी सी ख्वाहिश
हम सर्द रात के अंधेरे मे ट्रेन का इंतज़ार कर रहे हैं; इनको वापस अपनी ड्यूटी पर जाना है। साथ मे मेरा भाई भी है, पर वो हमें अकेला छोड़ कर स्टेशन पर कहीं घूम रहा है।
मानो कल की ही बात हो हमारी शादी, फिर इनका वापस जाना और मेरा इनके आने की एक-एक घड़ी गिनना....और इतनी जल्दी फिर से जाने का वक़्त आ गया।
दोनो की आंखें नम है, पता ना चल जाये इस डर से हम एक दूसरे को ना देख कर कहीं शून्य में देख रहे है। स्टेशन की टिमटीमाती रोशनी हमारा साथ दे रही है।
इन्होंने कस के मेरा हाथ पकड़ रखा है, जिस में कभी न छोड़ने का अहसास छुपा है। हम चुप-चाप एक दूसरे के मौन को महसूस कर रहे हैं।
मैंने बोलने की कोशिश की, "सुनो ! सुनो ना !"
"हुँ बोलो।" (इनकी भारी आवाज मेरे कानों में शहद घोल देती है)
"पहुँचते ही पहली फुर्सत में चिट्ठी लिख देना प्लीज।"
"अरे ट्रेन से ही लिखना शुरू कर दूंगा।"
फिर हँसने की नाकाम कोशिश दोनो की।
ओस की बूंदे टीन शेड पे टप टप की आवाज़ कर रही हैं, बाकी सब सन्नाटा है।
अचानक गाड़ी के आने का संकेत हुआ, हम चौंक गए।
काश .. ट्रेन लेट होती मन मे ये खयाल, तभी बिजली चली गई।
जो एक-दो बल्ब जल रहे थे वो भी बंद घुप्प अंधेरा।
इन्होंने अँधेरे का फायदा उठाया मुझे जोर से जकड़ लिया; मैंने खुद को रोकने की भरसक कोशिश करी पर पलकें भीग ही गईं।
मुझे डर भी लगने लगा, ट्रेन आ रही इतना अँधेरा मैं अकेली राह जाऊंगी भाई कहाँ है। सर्द रात में भी मुझे जुदाई के दुख और डर से पसीना आता महसूस हुआ।
ट्रेन आ गई, ये मुझे छोड़ गाड़ी में चढ़ने लगे, तभी भाई आ गया मेरे कन्धे पर हाथ रख के बोला, "चलो अब चले।"
ये चलती ट्रेन से हाथ हिला के बाय कर अंदर चले गये। मैं भारी कदमों से घर की तरफ चल पड़ी।
मन में बस वही ख़्याल काश ट्रेन थोड़ी और लेट होती।